Wednesday, July 19, 2017

सत्य जीवन को सौंदर्य प्रदान करता हैं

हमारी पहली पाठशाला हमारा घर है और पहली शिक्षक हमारी माता है। माता के लाड़-प्यार से सिखाए सबक हम याद रखते है। हमारे परिवार के सदस्यों का आचरण और चरित्र भी हमें जाने अंजाने बहुत से सबक दे जाता है। हमारे कुल और वंश का इसलिए हमारे शास्त्रों में बड़ा महत्व बताया गया है किंतु आज हम  अनुभव कर रहे है कि ये बातें पुरानी हो गई  और अब इनको कोई महत्व नहीं देता। इसका कारण यह है कि सयुक्त परिवार प्रथा अब बहुत ही कम रह गई है। अब तो एकल परिवार है जिनमें माता पिता और बच्चें ही साथ रह रहे है। माता पिता के पास भी समय नहीं है । वे आधुनिकता की चक्की में पीसे जा रहे है। चरित्र और आचरण की शिक्षा बच्चें कैसे पाए। बच्चे अपनी सूक्ष्म दृष्टि से और भोली समझ से बिना कुछ सुने कहे भी बहुत सी बातें सीख लेते है पर वे प्रश्न कहाॅ करें? स्पष्टीकरण किससे प्राप्त करें? किसी के पास तो समय नहीं है।

पहले सयुक्त परिवारों में दादा-दादी परिवार के अभिन्न अंग होते थे। कहते है मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता हेै। दादा-दादी बच्चों के लिए सचमूच प्यार का खजाना लूटाते थे। वे बच्चों के साथ खेलते थे। उन्हे कहानियाॅं सुनाते थे और बच्चों की समस्याऐं हल करते थे। माता पिता इस दिशा में स्वतंत्र रहते थें। उन्हें चिंता नहीं रहती थी। आज दादा-दादी शायद ही कहीं मिले। जहाॅं वे है भी वहाॅ उनका वह महत्वपूर्ण स्थान नही है। वे घर के मुखिया नहीं है। इसलिए उनकी कोई सुनता नहीं है। अब न दादा दादी के पास बालमन को बहलाने के लिए कहानियाॅ है ओैर न  उत्साह। इस स्थिति में भी टी.वी. के अतिरिक्त मोबाइल,कम्प्यूटर भी बच्चों के खेलने के साधन बन गए है। बच्चें ज्यादा समय इन्हीं के साथ खेलते है वे इन्हे देखकर ही नए नए सबक जाने अनजाने सीखते है और सच कहें तो उनका बचपन इनमें खर्च हो जाता है। बच्चें कम्प्युटर, मोबाइल आदि का ज्ञान अपने माता पिता से भी अधिक रखते है।

बच्चों के खेलने के मैदान तो रहे नही। इसलिए भाग दौड़ समाप्त सी हो गई है। अब खुले मैदान न होने से दोस्तों के खाथ खेलना, प्रतियोगिता करना सम्भव ही नही है। परिवार भी इतने छोटे हो गए है कि भाई बहनेां के मध्य भी प्रेम - अपनत्व भाईचारे के पाठ सीखे नहीं जा सकते। एक दूसरे की सहायता, एक दूसरे के लिए त्याग करना अब परिवार की पाठशाला के पाठक्रम का अंग नहीं रह गया है। ऐसे में पुस्तकीय ज्ञान ही एक मात्र सहारा है। पुस्तकीय ज्ञान भी आचरण नहीं सिखाता, वह तो अधिक से अधिक नम्बर परीक्षा में लाने में जोर देता है। शिक्षक भी इसी पर ध्यान देते हैं  चरित्र निर्माण पुस्तको का विषय हो गया है। आज तक उपदेशों से तो कभी चरित्र बना नहीं।

इसलिए हम पाते है कि विद्यार्थीयों में दृढ़ संकल्प कि कमी है। धैर्य वे जानते ही नहीं। थेाड़ी सी असफलता उन्हें निराशा के गर्त में ढकेल देती है। वास्तव में माता पिता के स्वप्न भी ऊॅचे ऊॅचे होते है। वे अपनी महत्वकांक्षा के हण्टर से अपनी ही संतान को इतना घायल किए होते है कि बच्चों केा कुछ समझ में नहीं आता।माता पिता बच्चों की सफलता के लिए सुविधाओं के इतने जाल फैला देते है कि बच्चें उससे बच ही नहीं पातें। लाखों रूपये खर्च करते है कि वे आॅख बंद कर कह रहें है कि चढ़ जा बेटा सूली पर, भगवान भला करेगा। आज तक दुनिया में कोई भी अपनी महत्वकांक्षा किसी पर लाद कर सफल नहीं हुआ है। सफलता मिलती है कठोर परिश्रम से, धैर्य से । उसके लिए व्यक्ति को स्वयं अपने स्वप्न बुनना पड़ते हैं।फिर यह भी निश्चित नहीं है कि सफलता मिलेगी ही। सफलता की यात्रा में सबसे पहले असफलता के स्टेशन आते है। कभी कभी एक दो नही, निरन्तर कई असफलता मिलती ही जाती है तब कहीं सफलता के शिखर पर पहुॅचा जा सकता है।

आज बड़ी विचित्र स्थिति है। हजारों लाखों युवक सफलता के लड्डू को  खाना चाहते है। सब कड़ी मेंहनत करते है। सबके पीछे डण्डा लेकर माता पिता खडे़ है। लपको और खाओं इस सफलता के लड्डू को पर निराश हाथ लगती है। तब मन भटकता है। बेईमानी के रास्तें खोजे जाते है। धन और सत्ता के रास्ते शिखर को छूने का प्रयत्न होता है। यह रास्ता भटकाने वाला है। क्योकि इस पर लोभ लालाच आकर्षक मुख मुद्रा लिए खड़े मिलते है। स्वार्थेा को मकड़ जाल यहां भी बिछा मिलता है। आदमी इसमें उलझता है और सरल व्यक्ति भी झूठ के प्रपंच में अपराध की दुनिया में पहुॅच जाता है। आज चारों और झूठ का बोलबाला इसलिए दिखाई देता हैं। हमने तो सुना है कि इस युग मेें सच्चे का मुॅहकाला है। सच्चाई और ईमानदारी को लोग मुर्खता समझने में लगें हैं, लेकिन क्या यह सच हैं?

हमारा अनुभव तो यह है कि दुनिया में सुख शान्ति का  मार्ग सच्चाई और ईमानदारी का ही है और कोई मार्ग  है ही नहीं। असत्य बेईमानी का मार्ग कितना ही सुगम,आकर्षक लगता हो किंतु ले जाता है वह अशान्ति असफलता अपराध की और ही फिर भी प्रश्न शेष रहता है फिर यह दुनिया चल कैसे रही है?

क्या यह दुनिया आज असत्य और बेईमानी पर चल रही है? आप गम्भीर चिंतन करेंगें तो पाएगें कि नही, यह झूठ है। दुनिया चलती है विश्वास और भरोसे से। विश्वास और भरोसा सत्य के अतिरिक्त कहीं मिल नही सकता । आज झूठ भी सत्य का आवरण ओढ़े हमारे आसपास घुम रहा है। असत्य की यह मजबूरी होती है कि वह अपना असली चेहरा छिपाऐं।  कोई धोख्ेाबाज अपना असली चेहरा दिखाकर आजतक दुनिया में सफल नही हुआ है। इसलिए आज यदि झूठ, फरेब,बेईमानी कहीं सफल होती दिखाई देती है तो यह भ्रम है सदा से झूठ यही करता आया है पर वह लम्बे समय तक चल नहीं पाता। झूठ का गुब्बारा छोटी सी आलपीन से भी फूट जाता है।

वास्तव मे मनुष्य मे स्वभाव से लाभ लालच रहता है यह आदमी को भटकाता है। आदमी की स्वार्थवृति जागजाती है और उसका अहंकार उसे बढ़ावा देता है कि कहाॅ कठिन रास्तों पर चलते हो, शार्टकट मारो और छू लो सफलता। झूठ का बगीचा लोभ लालच की हवा में पनपता है। उसके बीज अहंकार बनकर उछलते है पर यह सब सत्य की भूमि पर पनप नहीं सकते। सच्चाई का मार्ग एक मात्र सुख शान्ति व सफलता का मार्ग है। एकएक क्षण कल्पना कीजिए कि यदि मानव समाज सच्चाई के मार्ग पर चलने की ठान ले तो अदलतो के लाखों करोड़ों मुकदमों का क्या हो। अगर व्यक्ति अदालत में अपने अपराध और गलतियों को ज्यों का त्यों स्वीकार करने लगें  तो क्या हो? हमारी अदालतों, वकील,मुंशी के पास क्या काम रह जाए। हमारे पुलिस स्टेशन और प्रशासकीय अधिकारीयों के पास क्या काम रह जाए। मिलावट खौर, धोखेबाज, रिश्वतखोर, भ्र्रष्टाचारी कहाॅ जाए? इन सबकी नगण्य आवश्यकता भी न रहे। इसका अर्थ हम समझ ले।

यह संसार और इसकी सारी समस्याऐं झुठ पर खड़ी है। हमारी राजनीति, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र असत्य के पोषण पर जिन्दा है। हमारी बेचैनी, अशान्ति तनाव, बीमारीयाॅ, अपराध ये सब झूठ की पैदाईश है। इस सबका समाधान क्या है ?

विधि नहीं है समाधान :- अब आगे विचार कीजिए। जब हमारी संसार की (केवल भारत की ही नहीं) सब समस्याऐं झूठ पर खड़ी है तो क्या विधि विधान से इस झूठ की समाप्ति हो सकती है। विधि विधान से आज तक एक भी अपराध दण्ड के भय से समाप्त नहीं हुआ है। हम दण्ड को कठोर करते है, अपराध बढ़ जाते है। हमारे ही देश में बलात्कार, यौन शोषण जैसे अपराधों के लिए आजीवन कारावास और मृत्युदण्ड जैसे दण्डों का प्रावधान दिल्ली के निर्भयाकाण्ड के बाद किया गया। ये अपराध घटे नहीं बढ़ गए। अपराधों को रोकने की ताकत दण्ड में नहीं होती। अपराधों को रोकना पड़ता है तो मनुष्य में आन्तरिक रूप से मानसिक परिवर्तन करना ही पड़ेगा। उसमें मानवता की संवेदना जगाना पड़ेगी। उसे जागृत करना पड़ेगा। यह प्रेम और सहानुभूति से ही सम्भव है। इस कार्य को कर सकती है हमारी माताए। माता हमारे जीवन की प्रथम गुरू है। वह अपनी गोद में हमें संस्कारों का पाठ पढ़ाती है। इसके साथ आते है हमारे परिवार जहाॅ हम अनुशासन के साथ मर्यादा, अपनत्व, त्याग, सेवाभाव और संस्कारेा को मजबूत करते है।ये सारे जीवन हमारे लिए मार्गदर्शक होते है।

हमारा सामाजिक वातावरण और संगी साथी भी हम पर प्रभाव डालते है। वे हमें अनेक आकर्षण दिखाकर भटका सकते है। सामाजिक वातावरण का भी आत्याधिक प्रभाव रहता है। आज दूरदर्शन कम्प्यूटर नेट, सिनेमा और विज्ञापन भी हमें अनेक लुभावने स्वप्न दिखाते हैं। इनसे कैसे बचे?

उपरोक्त सबसे हमारे विचार, संस्कार और  चरित्र बनते है। सामाजिक वातावरण और संगी साथियों के प्रभाव से सुरक्षित रहने के लिए हमारे धर्मग्रंथो ने व्रतो का आविष्कार किया। व्रत धारण करने का अर्थ है कि कुछ कार्य करने के लिए हम दृढ़ संकल्पित है। कुछ भी हो पर हम व्रतों के पालन में कठोर रहेंगे चाहे फिर भले ही भौतिक हानि उठानी पड़े या शारीरिक कष्ठ भोगना पड़े। देखिए ऋग्वेद में कहा गया है-व्रत बंधन नहीं बल्कि स्वतंत्रता का द्वार है। साहित्यकार व विचारक वासुदेव शरण अग्रवाल कहते है-‘‘व्रत से रहित जीवन उस जहाज की तरह है जिसके नायक ने अपने गतव्य स्थान का निश्चय न किया हो‘‘ मज्झिम निकाय में कहा जाता है-शुद्ध और पवित्रकर्मी के व्रत स्वतः ही पूर्ण होते रहते है।‘‘

व्रत हमें संसार के परिवर्तनशील उबड़  खाबड़ रास्ते में दिशा दर्शन कराते है। महाभारत के अनुशासन पर्व में वेदव्यास जी कहते है-मनुष्य के लिए तीन बातों का ही उत्तम व्रत बताया गया है।-किसी से द्रोह न करें, दान दे तथा दूसरेां से सत्य बोले।‘‘

सत्य वचन और सत्य आचरण हर मर्ज की दवा है। इसके पालन करने से जीवन में सुख-शान्ति स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। व्यक्ति निर्भय हो जाता है। वह विश्वसनीय बन जाता है। और फिर सफलता मुस्कराते हुए उसकेा इन्तजार करते मिलती है। झूठ को इसलिए किसी भी धर्मशास्त्र में स्थान नहीं मिला है। शतपथ ब्राम्हण्पा में कहा गया है- वह पुरूष अपवित्र है जो झूठ बोलता है। वेद व्यास जी महाभारत के वनपर्व में लिखते है-मैं मृत्यु से उतना नहीं डरता जितना झूठ से डरता हूॅ। झूठ  के प्रति इतना स्पष्ट मत  होने के बाद भी हमारे दण्डशास्त्र में इसे अपराध नहीं माना है। यह मन का विषय हैं। समाजशास्त्र का विषय है और इससे निपटने के लिए सत्यव्रत को धारण करने के लिए निर्दशित किया गया है। इसलिए हमारे शास्त्रो ने सत्यव्रत धारण कर जीवन सफल बनाने का उपदेश दियज्ञं

धर्म का विषय नहीं है सत्य :- सत्य किसी धर्म विशेष का विषय नहीं हैं दुनिया का हर धर्म सत्य के पक्ष में खड़ा है। सत्य वास्तव में धारण करने का विषय है। जीवन को आनंदमय बनाने की रामबाण औषधी है सत्य। सत्य के आचरण से कोई करोड़पति, अरबपति बन जाएगा-ऐसी घोषणा कोई नहीं करता पर शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत होने के कई उदाहरण हमारे सामने है। जितने भी महापुरूष हुए है उन्होने सत्य का आचरण किया है और इस संबंध में प्रेरणा दी है किंतु महात्मा गाॅधी ने तो जीवन की प्रयोगशाला में सत्य पर प्रयोग ही कर डाले। उनकी जीवनी की पुस्तक का शिर्षक ही है - सत्य के प्रयोग। उन्होने सत्य को ईश्वर माना और सत्य के प्रति इस निष्ठा की पूजा की। वास्तव में सत्य ही ईश्वर है। उसका एक मात्र सहोदर प्रेम है। गांधीजी कहते है-सत्य अहिंसा और प्रेम एक ही चीज है।

सत्यनारायण की व्रत कथा :- भारत के विभिन्न प्रदेशों में सत्यनारायण की व्रत कथा कहने का एक रिवाज है। ब्राम्हण या पूजारी इस कथा को कहता है और सत्यनारायण व्रत करने से लकड़हारे, बुढ़े ब्राम्हण सेठ और राजा को क्या प्राप्त हुआ इसका वर्णन करता है। इस कथा का उद्देश्य हीे यह है कि बार बार लोग इसे सुने और सत्य आचरण का व्रत धारण करें पर न तो ब्राम्हण पूजारी इस कथा को गम्भीरता से ग्रहण करते है और न सत्य का व्रत धारण करते है अतः इस कथा और व्रत के धारण करने का कोई अर्थ नहंीं रह जाता।

मेरे जीवन में सत्यनारायण :- मैं जिस परिवार में जन्म लिया वहाॅ सत्यनारायण व्रत कथा का आयोजन परम्परा से होता आया था। मैं ऐसा अनुभव भी करता हूॅ कि मेरे माता पिता सत्यव्रती थे अैार झूठ के प्रति घर में तिरस्कार का भाव था। छह भाईयों और एक बहन के परिवार में सत्यवचन और सत्य आचरण के संस्कार बिना किसी उपदेश के प्रभावशील थे। सादाजीवन, उच्च विचार का जीवन था। कोई दिखावटीपन का भ्रम जाल था ही नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो परिवार में आपसी पे्रम, सहयोग और विश्वास का वातावरण था। पिता-माता के प्रति सम्मान भाव, अपनों से बड़ेंा के प्रति आदर और मर्यादा का पालन होता ही था। मुझे कहना चाहिए कि कड़ा अनुशासन था।

मैं धन्य हूॅ कि ऐसे परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरी माता जी ने बताया कि मेरा जन्म पौष की पूर्णिमा के पुण्य नक्षत्र में हुआ था उस दिन हमारें घर सत्यनारायण व्रत कथा चल रही थी। तब मैं जन्मा मेरी दादी माॅ ने घर के बाहर आंगन में जहाॅ कथा चल रही थी आकर कहा- यहाॅ सत्यनारायण की कथा चल रही है। और  अंदर सत्यनारायण पधार गये है। वास्तव में मेरा जन्म कर्क राशि में हुआ और जन्मपत्री का नाम हेमचंद्र निकला पर यह नाम कभी प्रयोग में नहीं आया । सत्यनारायण ही पुकारा गया। यहाॅ तक की मुझसे बड़ेां के द्वारा प्रेमवश कहें सत्तू भी हो गया पर हेमचन्द्र तो कभी न हुआ।

वह समय ही ऐसा था जब भगवान के पवित्र नामों का चलन था। हमारें परिवार में केवल मैं ही भगवान के इस पवित्र नाम से पुकारा गया। इस नाम का प्रभाव बचपन और भरी जवानी में कितना रहा मैं याद करकर भी कह नही सकता। झूठ तो मैं कई बार बोला होऊॅगा। दावें से कुछ नहीं कहा जा सकता पर जब कुछ विचारशील हुआ तब नाम पर चिंतन किया, मुझे लगा-‘‘मैं तो सत्यनारायण हूॅ। मेरी दादी ने यह नाम दिया है। इस पवित्र नाम की पवित्रता की मुझे रक्षा करना चाहिए और मैं सावधान हो गया। जाग गया और जब जब असत्य भाषण के अवसर आए मेरे मन में खूद के प्रति धिक्कार भाव जागने लगा। आज में शपथपूर्वक कह सकता हॅू कि झूठ बोलने और असत्य दिखावटी आचरण पर इस नाम ने बड़ी कठोरता से लगाम कसी है।

सत्य बोलने और सत्यव्रती होने से इस जगत में भी लाभ ही लाभ है। हमारी छवि यदि ऐसी बन गई तो हम विश्वसनीय बनजाते है। सत्यकथन का सबसे बड़ा फायदा यह है कि डर का भूत हमसे कोसो दूर भाग जाता है। प्रेम का साम्राज्य हमारे आसपास खड़ा हो जाता है और झूठे, मक्कार, धेाखेबाज अपराधी प्रवृति के व्यक्ति अपने आप आपसे दूर भागने लगते हैं। मेरा तो एक विचित्र अनुभव भी रहा कि रिश्वतखोर, भ्रष्टाचारी, षड़यंत्र बाज अधिकारी जो हमारे बाॅस रहे है, वे भी मुझसे दूरी बनाए रखे। डर कर रहे और कभी भी मेरे विरूद्ध सामने नही आए। हाॅ यह जरूर हुआ कि मेरे अन्य साथियों ने शासकीय सेवा में मलाईदार पोस्टींग प्राप्त कर अनुचित लाभ उढ़ाए उसकी गंध भी मुझे नहीं लगी।

इस सत्यव्रती होने का विशेष लाभ यह रहा कि लम्बी सेवा अवधी में विभागीय जाॅच, निलम्बन जैसी कार्यवाही कभी नहीं हुई। मेरी साथी मजाक करते रहे-धिक्कार है आपको जो आपने राजस्व विभाग में ऐसे समय गवांया।

सत्य के प्रयोग :- पूज्य महात्मा गाॅधी ने अपने जीवन में सत्य के प्रयोग किए और उसके परिणाम हमारे सामने अपनी आत्मकथा के रूप में रखे। उन्होने यह प्रेरणा दी कि हम सब भी सत्यमय जीवन व्यतीत कर सत्य के प्रयोग जीवन में करे। बिना प्रयोग किए सत्य का स्वाद और आनंद मिलने से रहा। मैंने सत्य के प्रयोग को सामान्य रूप से अपनाया। सत्य को जीवन में उतारना सबसे सरल है। आपको कुछ भी करना नहीं पड़ता। जो है जैसा है उसे स्वीकार करना पड़ता है  पर इसमें कठिनाई यह है कि लोभ लालच और स्वार्थ से भरे संसार में सत्य को स्वीकारना बड़ा अटपटा और झमेले वाला लग सकता है। झूठ बोलकर जो कुछ पाया जा सकता है, वह संसारिक लाभ से हम वंचित रहते है। और कभी कभी इस कारण खतरे भी उठाने पड़ते है पर अंत में हम पाते है असीम संतोष, शान्ति और आनंद। सच को स्वीकार करने का आनंद जब भी है  जब हम अपरिमित हानि यहाॅ तक की जीवन को भी दांव पर लगाने की स्थिति में पहुॅच जाए तब भी नहीं डिगें तो फिर जीवन का अमरत्व हमें प्राप्त होता है।

मैनें तों एक साधारण जीवन पाया, नायब तहसीलदार था तब किसी प्रकरण में कुछ गलती हो गई होगी, मुझे अधिकारी ने बुलाया और पूछताछ की, मैंने जो स्थिति थी उसकी जानकारी दी। अधिकारी मुझसे प्रसन्न थे। बोले-मैं स्पष्टीकरण माॅगूगा। आप लिख दीजिए कि पटवारी द्वारा गलत जानकारी देने के कारण यह भूल हो गई। मैंने कहा-नहीं सर, यह गलती तो मुझसे हुई है। मैं ऐसा कैसे लिख दूॅ। वे नाराज हुए। बोले-फिर भुगतो दण्ड।

मैं  चला आया। आपको आश्चर्य होगा मेरे विरूद्ध कुछ नहीं हुआ। मैं  सच बोल कर भी बचा रहा।

एक बार एक न्यायाधीश प्रकरण में मेरा बयान था। मैंने जो हुआ और किया था उसका सच सच वर्णन किया। मेरे बयान से अपराधी को लाभ मिल रहा था। न्यायाधीश भी नाराज दिखे। उन्होंने भी कुछ प्रश्न किए पर मैं टस से मस नहीं हुआ। उस बयान पर आम धारणा बनी कि न्याययधीश मेरे विरूद्ध विभाग को कार्यवाही के लिए लिखेगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बाद में उक्त न्यायधीश से मेरी चर्चा हुई। बोले- हाँ,उसे दिन यही विचार आया था पर निर्णय लिखने तक मैं इस निश्चय पर पहुॅचा कि आप अपने भोलेपन व अनुभवहीनता के शिकार है और मन बदल गया।

मैं रीवा में डिप्टी कलेक्टर था। कलेक्टर एक मामले में रूचि ले रहे थे। उन्होंने कुछ पुछताछ की। मैं डटा रहा और अंत में मैंने कहा-सर, मेरा नाम सत्यनारायण है और में झूठ नहीं बोलता। जो वस्तु स्थिति है वह यही है।

इस प्रकरण में एक विधायक महोदय की भी रूचि थी। एक बैठक में उन्होंने कलेक्टर से कहा-आपके एस. डी. ओ. का प्रतिवेदन भ्रामक है। फिर से जाॅच कराइए।

कलेक्टर ने सुना और फिर पूर्ण विश्वास से बोले- यह एस. डी. ओ. सच बोलता है। इसकी रिपोर्ट झूठी हो ही नहीं सकती।

सत्य आपको विश्वसनीय बना देता है। मुझे दादी माॅ की याद आई जिन्होने मुझे यह पवित्र नाम दिया।

सम्मान दिलाता है सत्य : सत्य वचन और सत्य आचरण आपको प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाता है। इससे निस्वार्थ प्रेम की खेती होती है। शासकीय सेवा में मुझे जो भी प्रतिष्ठा और सम्मान मिला उसका कारण मैं सत्यव्रत मानता हूॅ। मुझे अपने स्वाभीमान पूर्वक जीवन यापन में यहीं एक सहारा रहा।

शासकीय कार्यालय के कर्मचारी ही नहीं जनता में भी सत्यव्रत आपकी छवि उज्जवल बनाता है। आपके प्रति विश्वास और प्रेम जगाता है।

एक बात और-सत्य का कभी विज्ञापन नहीं करना पड़ता। यह घोषणा नहीं करना पड़ती कि आप सत्यवादी है। जंगल की आग की तरह यह खबर चुपचाप फैल जाती है। आपको मानवीय प्रतिष्ठा  मिलती है इससे। हाॅ भ्रष्ट, मक्कार, झूठे आपके प्रति अच्छे भाव नहीं रखते। वे आपको मुर्ख समझते है। कहते है-आप समय के साथ नहीं चल रहें। पद पर रहते पद का फायदा नहीं उठा रहें। बुढ़ापे में पछताऐंगें। आपके बच्चे ही आपसे नफरत करेगे। कहेगे- आपने हमारे लिए कुछ नहीं किया। लेकिन यह कोरी कल्पना है। ईश्वर सबका रखवाला है। वह आपको आपके भाग्य का सब कुछ देता है। मेरा अनुभव तो बहुत अच्छा है। मैं अस्सी वर्ष की उम्र पार कर रहा हूॅ।

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