सामान्य विचार यह है कि मृत्यु के बाद सब कुछ समाप्त हो जाता है। देहावसान के बाद व्यक्ति के सुख दुःख, कर्म, अकर्म, विकर्म सब कुछ समाप्त हो जाते है और वह इस दुनिया से मुक्त हो जाता है। हमारे एक मित्र का कहना है ’आप डुबे जग डुबा’। मृत्यु के बाद कौन क्या करता है, कहता है इसका महत्व नहीं रहता। अतः जीते जी जो कर लिया सो काम, भज लिया सो राम। हमे मृत्यु के बाद की चिन्ता या सोच विचार नहीं करना चाहिए।
सोचिए क्या यह सत्य है? मुझे उज्जैन के वरिष्ट प्रशासकीय अधिकारी की मृत्यु का स्मरण आता है| उनकी शव यात्रा में मैं भी सम्मलित था। शवयात्रा शहर के सतीगेट पँहुची, आवागमन में कुछ व्यवधान पड़ा और हमारा वाहन रुक गया। तभी एक अधेड़ सज्जन आए पुछा ’किसकी मृत्यु हुई हैं? उन्हे नाम व पद बताया गया। वे प्रसन्न हो ताली बजाने लगे, कहा ’वेरी गुड़, वेरी गुड़’ हमे बुरा लगा। सामान्य सा नियम है कि मृत्यु के बाद किसी की निन्दा नहीं की जाती। किसी की मृत्यु पर प्रसन्न्न होने का प्रश्न ही नहीं है। किन्तु मृत्यु के बाद भी अच्छे बुरे स्मरण तो रहते ही है।
मृत्यु का क्षण यह नियत करता है कि हमने हमारा जीवन कैसे जिया। भगवदगीता में भगवान कृष्ण कहते है कि अन्तिम क्षण का स्मरण ही हमारे आगामी जन्म का निर्णायक क्षण है। इस क्षण में यह स्पष्ट होता है कि हमने कैसा जीवन जिया। इस क्षण को हमारे जीवन भर के संस्कार तय करते है। हम कोई बनावटी स्मरण इस क्षण में रच नहीं सकते। यही संस्कार यह तय करते है कि लोग हमारी मृत्यु के बाद हमें किस रुप में स्मरण करेंगे। इसलिए यह महत्वपुर्ण है कि हम जीवित अवस्था में भी इस बात की सावधानी बरते कि मृत्यु के बाद हमारे सम्बन्ध में सही चित्र इस संसार में उभरे। हमारा संसार बहुत छोटा भी हो सकता है और अति विशाल भी, यह हमारे कार्यो पर निर्भय करता है।
ऎसे विचार का प्रसंग कुछ दिन पूर्व मुझे उदयपुर में उपस्थित हुआ। मैं श्री के. जी. भटनागर की मृत्यु के अवसर पर वहाँ गया था। श्री के. जी. भटनागर कोई सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व नहीं थे। वे राजस्थान सरकार के खाद्य विभाग के सेवा निवृत अधिकारी थे। उनकी मृत्यु ’मोटर न्युरान डिसआर्डर’ (एम. एन. डी.) नामक बीमारी से हुई थी। यह एक अजीब सी बीमारी थी जिसके सम्बन्ध में मैंने तो सुना नहीं था। शायद पाठकों को भी इस बीमारी के सम्बन्ध में जानकारी न हो, इसलिए संक्षेप में उल्लेख कर दूँ। इस बीमारी में मासपेशियां कमजोर हो जाती है और व्यक्ति का चलना फिरना धीरे धीरे बन्द हो जाता है, हाथ जम से जाते है और क्रमशः पूरे शरीर की मासपेशिया काम करना बन्द कर देती है, मसल्स वेस्टींग होती है। यह बीमारी कोई एक करोड़ लोगो में एक व्यक्ति को होती है और मेडिकल साइन्स में अभी तक इसका कोई इलाज भी नहीं है।
इस बीमारी में संवेदी नसे पूरी तरह स्वस्थ होती है। बीमार पूरी तरह सचेत होता है पर शरीर स्वयं कोई गति नहीं कर सकता है। ऎसी विचित्र दशा होती है बीमार की कि वह उठ बैठ नहीं सकता, चल नहीं सकता किन्तु बातचित लेटे लेटे कर सकता है, हँस सकता है, रो सकता है, नाराज हो गुस्सा कर सकता है, निराश हो सकता है किन्तु गति सम्बन्धी कोई क्रिया नहीं कर सकता है। रोगी की बैबसी बडी़ दयनीय होती है, उसका खाना पीना, दैनिक समस्त क्रियाएं दुसरों पर निर्भर रहती है। इस बीमारी में श्रवण केन्द्र की मासपेशिया सबसे अन्त में समाप्त होती है और यही मृत्यु का कारण होती है।
श्री के. जी. भटनागर पिछले तीन वर्ष से इस बीमारी से ग्रसित थे। उनकी मृत्यु पर आयोजित शोक सभा में मैं सम्मलित हुआ। मेरे लिए इस सभा में यह सुनना आन्नद और सन्तोष का कारण था कि वे जीवन के अन्तिम क्षण तक हँसते मुस्कराते रहे हर कोई उनकी बाल सुलभ हँसी और मुस्कान को याद कर रहा था। बच्चे उनके सहज प्रेम व वासल्य को याद कर रहे थे। एक भी व्यक्ति मुझे नही मिला जिसने उनके बेबस शरीर से चिड़चिड़ाहट, क्रोध, निराश, अवसाद का वर्णन किया हो।
हम छोटी छोटी दुर्घटनाओं और असफलताओं पर अवसाद ग्रस्त होते है, आत्महत्या के सम्बन्ध में विचार करते है। अपनी आवश्यक सेवाओं के न होने पर परिवार पर दोषारोपण करते है किन्तु अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में भी जो मुस्कराता हो, हंसता हो, बाल सुलभ लीलाओं का आन्नद लेता हो, उसकी मृत्यु का आना, न आना भी खेल है।
यह सब मैं लिखने को इसलिए बाध्य हुँ कि मृत्यु के पूर्व मैं स्वयं इसका साक्षी रहा हूँ, कुछ ऎसे अवसर आए कि श्री के. जी. भटनागर के साथ मृत्यु के पूर्व मैं रह सका। उसके बिस्तर के पास कुर्सी लगाकर कुछ घन्टे व्यतीत करने का अवसर मुझे मिला। भगवान के प्रति निष्ठा-भक्ति से पूर्ण वह सब कुछ ईश्वर की लीला समझ प्रसन्न होता रहा, किसी से कोई शिकायत नहीं, किसी पर दोषारोपण नहीं। सबके प्रति प्रेम – अपनत्व, आशीर्वाद का भाव। कष्ट, दुःख का कोई उल्लेख नहीं। संकट के समय का यह आनन्द विस्मयकारक लगा।
महाभारत में माता कुन्ती भगवान से विपत्ति मांगती है ताकि वह इस समय प्रभू स्मरण कर सके। जीवन में जब भी विपत्ति आए तब उसे प्रभू स्मरण का अमूल्य अवसर मान प्रसाद रुप में ग्रहण करें वही तो संकट में मुस्करा सकता है। भगवान कृष्ण गीता में यही तो सन्देश देते है, वे विषाद ग्रस्त अर्जुन को मुस्कराते हुए यही तो संदेश देते है। जीवन अंतिमकाल तभी सुखद हो सकता है जब हम प्रभू के प्रति पूर्ण भक्तिभाव से निष्ठा रख सके।
इन बातों पर विज्ञान अभी तक विश्वास नहीं करता था किन्तु अब विज्ञान का ध्यान भी इस और गया है। अमेरिका की युनिवर्सिटी आँफ मियामी में साईकोलाजी विभाग के प्रोफेसर माइकल मैककुलफ ने आठ दशको तक धर्म पर अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि भगवान पर निष्ठा रखने वाले अपनी भावनाओं और व्यवहार पर काबू रख सकते है। धार्मिक कृत्य पूजा ध्यान लगाने का प्रभाव मनुष्य के मस्तिष्क पर सकारात्मक पड़ता है और वह स्वयं पर नियत्रंण के लिए अत्याधिक महत्वपूर्ण होता है।
इस सम्बन्ध में महात्मा गांधी सच कहते है “आस्था तर्क से परे की चीज है, जब चारों और अन्धेरा ही दिखाई पडता है और मनुष्य की बुद्धि काम करना बन्द कर देती है, उस समय आस्था की ज्योति प्रखर रुप से चमकती है और हमारी मदद करती है।“
सब और से अन्धेरे का क्षण मृत्यु का भी हो सकता है, जब हमारी बुद्धि काम नही करती तब आस्था की मुस्कान ही हमारे लिए मदद को उपस्थित होती है।
Satyanarayan Bhatnagar JI Ka Panna: Here you can find the writings of Hindi Sahitya Bhushan Shree Satyanarayan Bhatnagar's writings and thoughts.
Sunday, September 27, 2009
Wednesday, September 23, 2009
माँ के गौरवशाली रूप को मत भूलिए
भारतीय संस्कृति में माँ का बड़ा उँचा और प्यारा स्थान है। यह एक ऐसा सम्बन्ध है जिसके आस पास बाकी सारे रिश्ते रहते है। पिता का रिश्ता भी माँ के बाद आता है, कहते है माता-पिता। माँ का बड़ा विराट रूप है हमारे शास्त्रों में, इसलिए वह सर्वाधिक पूजनीय है। माँ हरेक वस्तु में हमें दिखाई देती है। हमारे देश में गंगा व नर्मदा नदी भी माँ है। ये नदियाँ जीवन दायनी है। पृथ्वी भी माँ है। पृथ्वी माँ की गोद में हम खेलते कूदते बड़े होते है। हमारे लिए अन्न भी माँ है। हम आज भी ज्वार माता कहते है। अन्न हमें जीवन देता है। भारत वर्ष हमारा देश है लेकिन वह भी भारत माता के रूप में हमारा है।
माँ प्यार का तो प्रतीक है ही, वह सृजनकारी भी है, वह हमें बनाती है। संस्कार देती है। माँ बनना एक तपस्या है। माँ के रूप में हम अनेक गुणों की पूजा करते है। माँ बनने का बड़ा लम्बा रास्ता है। हम प्रत्येक प्यार भरे रिश्ते को जो हमारा मार्गदर्शन करें, हमें संस्कार दे, दुलार दे तथा डाँट फटकार भी दे उसे माँ के रूप में देखते है। माँ बनना एक गौरव है। माँ बनना त्याग और तपस्या की एक कहानी है। वैसा त्याग कोई और कर ही नहीं सकता। इसलिए पिता को माँ के बाद याद किया जाता है।
माँ हर रूप में हमारी रक्षक होती है। वेदव्यासजी महाभारत के शान्तिपर्व में कहते है, ’पुत्र असमर्थ हो या समर्थ, दुर्बल हो या हष्ट-पुष्ट, माता उसका पालन करती है। माता के सिवा कोई दूसरा विधिपूर्वक पुत्र का पालन नहीं कर सकता।’ माता के रहते पुत्र पर बुढ़ापा नहीं आता। माँ का नाम पुकारते हुए जो घर में जाता है। वह आनन्द पाता है। माता दस दस पिताओं से भी बड़ी कही गई है। वेदव्यासजी अनुशासन पर्व में कहते है, ’माता अपने गौरव से पृथ्वी को भी तिरस्कृत कर देती है। अतः माता के समान कोई दूसरा गुरू नहीं है।’
प्रत्येक महिला माता का रूप है। गुरू पत्नी, राजपत्नी, देव पत्नी, पुत्र वधु, माता की बहिन, पिता की बहिन, शिष्य पत्नी, भृत्य पत्नी, मामी, माता और विमाता, भाभी ,सास, बेटी, इष्ट देवी ऐसी सोलह माताओं का वर्णन हमारे शास्त्रों में मिलता है। कहते है कि कुपुत्र तो जन्म ले सकता है पर माता कभी कुमाता नहीं होती।
कहाँ गई वह प्यारी माँ - आज पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में वह ममतामयी माँ कही दिखाई नहीं देती। हमारे सिनेमा, टेलीविजन और प्रचार माध्यमों में नारी का जो रूप दिखाई दे रहा है, उससे नाचती गाती, इठलाती, बलखाती जो नारी दिखाई देती है, उसमें माँ गायब है। स्त्री के माँ के रूप को याद ही नहीं किया जाता। आधुनिकता के नाम पर नारी के एक ऐसे रूप को दिखाया जाता है जो उपभोग की वस्तु है। यह इसलिए किया जाता है कि माँ का जो प्राचीन रूप हमारे हृदय पटल पर अंकित है, उसे गा बजाकर नचाया नहीं जा सकता। उसके द्वारा किसी को रिझाया नहीं जा सकता। वह उपभोक्ता वस्तुओं की सेल्समेन नहीं हो सकती।
माँ के रूप में नैतिकता का पाठ होता है। जीवन मूल्य होते है, वह बाजार के उपयोग की वस्तु नहीं हो सकती। इसलिए उसे ’बाजार’ से बाहर कर दिया गया है।
हमारे कथानक - हमारे चलचित्रों और टेलीविजन में भी जो कथानक दिखाए जा रहे है, उसमें पत्नी है, प्रेमिका है, नायिका है, खलनायिका है, नारी के रूप में माँ नहीं है। माँ बाजार में नहीं मिलती। वह बदली नहीं जा सकती। उसके साथ मर्यादा है। पत्नी को तलाक दिया जा सकता है, पत्नी दूसरी लाई जा सकती है। इसलिए सब पात्रों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाएगा। माँ गौण रहेगी। माँ का क्या उपयोग? वह आर्कषण की वस्तु नहीं है।
पत्नी के आने के बाद माँ का रूप तो नहीं बदलता पर बेटे का रूप बदलता है। बदलना ही चाहिए। बेटे पर नए दायित्व जो आते है। लेकिन माँ का महत्व कम नहीं होता। बेटा माँ से डरता नहीं है। माँ से प्यार ही मिलता रहा है। माँ नाम ही प्यार का है, माँ से डरना कैसा? इसलिए माँ की उपेक्षा हो सकती। हमें याद रखना चाहिए कि हम शीतला माता से डरते है। उसका व्रत रखते है, पूजा करते है, पर अपनी माता से हम नहीं डरते। उसके साथ उदण्ड व्यवहार भी करते है किन्तु वह कुछ नहीं कहती। वह माँ है सहना जानती है। लेकिन हम शीतला माँ से डरते है। वह दण्ड दे सकती है। क्या यह हमारी नैतिक कमजोरी है। एक विचारणीय प्रश्न है।
आधुनिकता के नाम पर - माँ को पश्चिमी सभ्यता के नाम पर मंच से हटा दिया गया है। वह बाजार के खरीदने, बेचने वाले माल के लिए उपयोगी नही है। इसमें न आधुनिकता का प्रश्न है और न पश्चिमी सभ्यता का। यह पूँजीवादी खेल है। माँ धनतंत्र के प्रोत्साहन के लिए उपयोगी नहीं है। यही है भारतीय संस्कृति को बिगाडने का खेल जो नारी स्वतंत्रता के नाम पर खेला जा रहा है। भारतीय संस्कृति में माँ पूज्य है। पवित्र ग्रन्थ कुरान शरीफ में कहा गया है कि माँ के तलवे के नीचे स्वर्ग का वास है। माँ के इस गौरवशाली रूप से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ’गोदान’ में कहते है, ’नारी केवल माता है और इसके उपरान्त वह जो कुछ है वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूगा। जीवन का, व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी’
माँ हमारे लिए प्रेरणा का केन्द्र है। वह प्यार का, दुलार का हाथ है। उसे भूलना, उसका तिरस्कार करना एक भीषण भूल है और आधुनिकता के मायाजाल में हम यही कर रहे है। आज जो पत्नी, प्रेयसी है, कल उसे भी इसी रूप को धारण करना है। अतः यौवन के उफान में हमें इस सच्चाई को भूलना नहीं है। बाजार के लिए तड़क, भड़क, आर्कषण,लावण्यभरी नारी की आवश्यकता तो समझ में आती है पर उसे अर्धनग्न करने, उदण्ड बनाने की क्या आवश्यकता है? यह समझ में नहीं आता। नारी की शक्ति, उसकी गरिमा, उसका गौरव माँ के रूप में है। उसे भटका कर न समाज को कुछ मिलेगा और न नारी का सम्मान बना रहेगा। इसलिए सबकुछ कीजिए, कुछ भी दिखाईए पर माँ के सम्मान का ध्यान रखिए। अन्यथा बाद मे पछताना ही पछताना रह जाएगा।
नवरात्री के नो दिन हम माँ के आँगन में खूब नाचे गाँए, धुम धड़का किया, पूजा अर्चना की आनन्द मनाया, प्रार्थना की किन्तु क्या अपनी माँ का स्मरण उसी रूप में किया। हमारी माँ भी शक्ति का रूप है। उसका भी प्यार भरा आदर सम्मान हृदय से होना चाहिए। केवल नो दिन नहीं, प्रतिदिन प्रतिक्षण, तब प्रेम का आर्शीवाद रूपी हाथ अनजाने ही हमारे सिर पर होगा। याद रखिए माँ देवी है। शक्ति है, प्यार का दीपक है। इसे निरन्तर जलते रहना है। इसके प्रकाश में ही हम सभी को कार्यरत रहना है। भगवान ने माँ बनाई ही इसलिए कि हम देख सके कि भगवान कैसा है? भगवान हमें कैसे प्यार करता है। माँ सब जानती है। हमारे हृदय के हर संवेदन का उसे आभास होता है। उसे धोखा नहीं दिया जा सकता। माँ के इस गौरवशाली रूप को भूलिए मत।
विज्ञापन का आनन्द लीजिये
आज के युग में विज्ञापनों का महत्व स्वयंसिद्ध है। जूते - चप्पल से लेकर टाई - रूमाल तक हर चीज विज्ञापित हो रही है। लिपस्टीक, पावडर, नेलपालिश, माथे की बिन्दिया विज्ञापनों का विषय है। नमक जैसी आम इस्तेमाल की वस्तुएँ भी विज्ञापनो से अछूती नहीं रह पायी है। बाजार में बढती प्रतिद्वन्द्विता और विज्ञापनो के बढ़ते प्रभाव को लेकर तरह-तरह की आशाएं - आशंकाएँ उपभोक्ताओं में है, परन्तु सिक्के का दूसरा पहलू भी है। विज्ञापन अपने छोटे से कलेवर में बहुत कुछ समाये होते है। वह बहुत कम बोलकर भी बहुत कुछ कह जाते है। यदि विज्ञापनों के इस गुण और ताकत को हम समझने लगें तो अधिकांश विज्ञापन हमारे सामने कोई आक्रमणकारी अस्त्र न रहकर कला के श्रेष्ठ नमूने बनकर उभरेंगे।
विज्ञापन क्यों?
किसी भी तथ्य को यदि बार-बार लगातार दोहराया जाये तो वह सत्य प्रतीत होने लगता है - यह विचार ही विज्ञापनों का आधारभूत तत्व है। विज्ञापन जानकारी भी प्रदान करते है। उदाहरण के लिए कोई भी वस्तु जब बाजार में आती है, उसके रूप-रंग- सरंचना व गुण की जानकारी विज्ञापनों के माध्यम से ही उपभोक्ताओं को मिलती है।
जहाँ तक उपभोक्ता वस्तुओं का सवाल है, विज्ञापनों का मूल उद्देश्य ग्राहको के अवचेतन मन पर छाप छोड जाता है और विज्ञापन इसमें सफल भी होते है। ये कहीं पे निगाहे, कही पे निशाना का सा अन्दाज है।
विज्ञापन रचना - प्रक्रिया
विज्ञापन तैयार करने से पहले उद्यमी के दिमाग में यह बात स्पष्ट होती है कि उसका उपभोक्ता कौन है? और अपने विज्ञापनों में उद्यमी /विज्ञापन एजेंसी उसी उपभोक्ता समूह को सम्बोधित करती है। उस समूह की रूचि, आदतों एवं महत्वाकांक्षाओं को लक्ष्य करके ही विज्ञापन की भाषा, चित्र एवं अखबार, पत्रिकाओं, सम्प्रेषण माध्यमों का चुनाव किया जाता है। उदाहरणार्थ - यदि कोई उद्यमी महिलाओं के लिए कोई वस्तु तैयार करता है तो उसकी शैली निम्न बातों के आधार पर निर्धारित होगी -
उपभोक्ता समूह - महिलाएँ
आर्थिक - मध्यम/ निम्न/ उच्च
शैक्षिक स्तर - साधारण/ उच्च
अपनी सलोनी त्वचा के लिए मैं कोई ऐसी- वैसी क्रीम इस्तेमाल नहीं करती ।
(अब ये पंक्ति अति साधारण है, परन्तु उसमें कई छिपे अर्थ निहित है। अपनी सलोनी त्वचा के माध्यम से बेहतर दिखने की महत्वाकांक्षा को उभारा गया है, जबकि ऐसी - वैसी शब्द से भय उत्पन्न करता है कि सस्ती क्रीम निश्चय ही त्वचा के लिए हानिकारक होगी।)
यदि वस्तु की खरीददार मध्यम श्रेणी की महिलाएं हो तो विज्ञापन फुसफुसायेगा -
जिसका था आपको इंतजार............एक क्रीम जो आपकी त्वचा को कमनीय बनाये...... आपके पति आपको देखते रह जायें.....................
(जिसका आपको इंतजार था, यानी महंगी क्रीम आप चाहते हुए भी खरीद नहीं सकती हैं, परन्तु ये क्रीम आपकी पहंच में है।
ये ख्याल में रखकर कि अधिकांश निम्न मध्यम वर्ग की महिलाएँ घर में ही सिमटी होती हैं, पति का उल्लेख भी है।
यदि उपभोक्ता समूह निम्न आर्थिक वर्ग का हो तो विज्ञापन कुछ यूँ बात करेगा -
ये सस्ती और श्रेष्ठ है, इसीलिये तो राधा, माया, बसन्ती भी इसे इस्तेमाल करती है।
(लोग संस्ता माल चाहते हैं , घटिया माल कदापि नहीं। अतः श्रेष्ठ बताकर यह प्रकट किया गया कि यह ऐसी - वैसी नहीं है।
राधा-माया- बसन्ती इत्यादि नामों का उल्लेख यह सिद्ध करने के लिए किया गया है कि इस वर्ग के अन्य लोग भी इसे इस्तेमाल करते है, यानी कि यह एक अपनायी गयी एवं स्वीकृत वस्तु है।)
विजुअल्स/ चित्रांकन
भाषा एवं शैली ही नहीं, अपितु विजुअल्स या चित्राकंन भी विज्ञापन का महत्वपूर्ण अंग है। ये चित्र, ग्राफ्स इत्यादि भाषा के प्रभाव को और भी प्रबलता प्रदान करते है। ये सब भी उपभोक्ता समूह को मद्देनजर रखकर ही तैयार किये जाते है।
उदाहरण स्वरूप यदि काँलेज के विद्यार्थियों के लिए कोई वस्तु तैयार की गई है तो चुस्त- फुर्त युवक - युवतियों का समूह विज्ञापन में दर्शाया जायेगा या फिर एक खूबसूरत युवती को निहारते युवक दिखाये जायेंगे। .................. और स्लोगन धीमे से फुसफुसायेगा आपको कानों में -
जिसने भी देखा.......................देखता ही रह गया.............
एक युवक बाईक पर सवार उसे देखकर .................मुग्ध नवयौवनाएँ।
(विज्ञापन की कापी कहेगी............राजेश काँलेज का हीरा है।..............अब और कुछ कहा नहीं जा रहा है, परन्तु यह सुझाया जा रहा है कि बाईक महाविद्यालय में लोकप्रियता बढाती है।)
एक मशीनी चीता तेज रफ्तार से दौडते हुए आता है। उस पर बैठा व्यक्ति उसको नियंत्रित करता है। चीता एक बाईक में बदल गया..................
(जो सुझाव है, वे इस तरह है............. चीता रफ्तार का प्रतीक है, यानी ये बाईक तेज रफ्तार से दौड सकती है। मशीनी चीते की जटिलता उस उच्च तकनीक को प्रगट करती है, जिसके माध्यम से बाईक तैयार की गई। चीता शाक्ति का प्रतीक है........ अतः यह मनुष्य की परिस्थितियों को नियंत्रित करने की इच्छा को उभारता है। सुझाव यह है कि एक शक्तिशाली बाईक को नियंत्रित करने वाला युवक अपने पौरूष को अभिव्यक्त करता है।)
अब आप समझ सकते हैं कि भाषा एवं चित्रों का यह गठबन्धन उपभोक्ताओं पर कितना गहरा असर डाल सकने में सक्षम है। ये श्रोताओं के मन में दबी - छुपी इच्छाओं को उभारते है। यही कारण है कि उपभोक्ता जब वस्तुएँ खरीदता है, तब वह सिर्फ पैकिंग में लिपटा माल ही नहीं खरीदता, अपितु अपनी प्रसुप्त इच्छाओं की पूर्ति भी करता है।
कोई महिला जब लक्स साबुन खरीदती है, तब वह सिर्फ स्नान के लिए साबुन नहीं क्रय करती है, अपितु फिल्म अभिनेत्रियों का सा- सौन्दर्य पाने की जो आकांक्षा है, उसकी कीमत भी अदा करती है।
(क्राउनींग ग्लोरी की डिम्पल, सिन्थाल के साथ विनोद खन्ना भी इन्ही आकांक्षाओं को उभारने का साधन है)।
इस तरह एक छोटा सा विज्ञापन बहुत बडी ताकत अपने आप में छिपाये होता है। यह एक लक्ष्य को निर्धारित कर शुरू होता है। और चुपके से अपनी बात कह जाता है। विज्ञापन का मूल उद्देश्य किसी वस्तु विशेष को क्रय करने का सुझाव देना है। विज्ञापन कभी सिर पर चोट नहीं करता, वह तो हमारी पीठ में कोहनी मारता है। वह भाषा, शैली, ध्वनि, चित्र, प्रकाश के माध्यम से हमारे अवचेतन से बतियाता है। विज्ञापन सुझाव ऐसे देता है -
मैं सिन्थाल इस्तेमाल करता हूँ। (क्या आप करते है?)
हमको बिन्नीज माँगता (आपको क्या मांगता?)
फेना ही लेना ।
जल्दी कीजिये.................सिर्फ तारीख तक।
कोई भी चलेगा मत कहिये .........................मांगिये।
विज्ञापन बार -बार वस्तु के नाम का उललेख करता है, जिससे कि उनका नाम आपको याद हो जाये। जब आप दुकान पर जाते है तो कुछ यूँ होता है ............
आप कहते है साबुन दीजिये........
दुकानदार: कौन सा चाहिये, बहनजी?
बस यही वक्त है, जब आपके अवचेतन में पडे़ विज्ञापन अपना खेल खेलते हैं, वे कहते है................कोई भी चलेगा मत कहिये ............. क ख ग ही मांगिये।
या
मैं सिन्थाल इस्तेमाल करता हूँ - विनोद खन्ना
बरसों से फिल्म अभिनेत्रियँ लक्स इस्तेमाल करती है।
जो विज्ञापन आपकी प्रसुप्त इच्छाओं को पूरा करता है, वह बाजी मार जाता है।
सम्प्रेषण की कला
यह स्पष्ट है कि विज्ञापन प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कहता है। वह कभी हास्य के माध्यम से, कभी लय के माध्यम से, कभी -कभी भय उत्पन्न करके भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। विज्ञापन की कलात्मकता एवं सृजनात्मकता इस बात में निहित है कि यह परिस्थितियों को नये नजरिये से देखने की कोशिश करता है।
जिस तरह एक कवि बिम्बों के माध्यम से अपनी भावनाऒं को अभिव्यक्त करता है। उसी प्रकार एक विज्ञापन भी प्रतिकात्मक रूप से मानवीय इच्छाओं, भावनाओं एवं कामनाओं का स्पर्श करता है।
फूल सौन्दर्य और प्रेम के प्रतीक बन जाते हैं (जय साबून) तो दूसरी ओर हरे रंग का शैतान मनुष्य की ईष्र्या को व्यक्त करता है (ओनिडा)।
विज्ञापन तैयार करने वाले विशेषज्ञ सिर्फ कलाकार ही नहीं होते, मनुष्य के मनोविज्ञान की गहरी पकड़ भी उन्हें होती है। अतः विज्ञापन को देखिये ही नहीं, सतर्क दृष्टि से उनका अध्ययन कीजिये -
सोचिये -
+ किस वर्ग को विज्ञापन सम्बोधित कर रहा है?
+ उसका भाषा एवं शैली क्या है?
+ कौन से शब्द हैं, जो सुझाव दे रहे हैं?
+ विज्ञान की चित्र एवं रंग व्यवस्था कैसी है?
+ ये चित्र एवं रगं क्या अभिव्यक्त करना चाहते है?
+ ध्वनि, लय एवं प्रकाश की कलात्मकता एवं उनमें निहित अर्थ को ग्रहण कीजियें।
इस तरह आप विज्ञापन का अन्दाज समझने लगेंगे। विज्ञापन फिर आपको बहका नहीं पायेंगे, अपितु अपने आसपास के परिदृश्य एवं मानव मन की आपकी समझ भी गहरी होगी। विज्ञापन सम्प्रेषण की एक संपूर्ण कला है। उसका आनन्द लीजियें।
Tuesday, September 22, 2009
सफलता आपका इंतजार कर रही है
श्री ’क’ एक युवा छात्र था। वह पी.एम.टी. की तैयारी कर रहा था। उसके पिताजी वरिष्ठ अधिकारी थे। वे एक ज्योतिषीजी के सम्पर्क में थे। उन्होने सहज भाव से ज्योतिषी से पूछ लिया, ’पुत्र की डाक्टर बनने की क्या सम्भावना है? ज्योतिषी ने जन्म पत्री देख गणित लगाया और घोषणा कर दी कि पुत्र का चयन पी.एम.टी. में हो जाएगा’ पुत्र श्री ’क’ को इस घोषणा का पता चल गया। उसका प्रसन्न होना सहज ही था।
श्री ’क’ की चचेरी बहन भी पी.एम.टी. की तैयारी कर रही थी। उसे इस ज्योतिषी की घोषणा का पता चला तो उसने भी अपने पिता से कहा, ’मेरी जन्म पत्री भी इन्ही ज्योतिषी को बता दीजिए। पिताजी गए, जन्म पत्री बताई तो ज्योतिषी ने कहा, ’डाक्टर बनने की कोई सम्भावना नहीं है।’ पिताजी घर आए और बोले, ’बेटा! ज्योतिषी का कहना है कि तुम अथक परिश्रम करोगी तो ही सफलता मिलेगी। डाक्टर बनना तो निश्चित है पर मेहनत तो करना पड़ेगी।’ उन्होने भविष्यवाणी बदल दी।
परिणाम घोषित हुआ। श्री ’क’ असफल रहे। उनकी चचेरी बहन सफल हो गई। प्रतियोगी परीक्षा में ज्योतिष काम नहीं आया, अथक परिश्रम ही काम आया। यहाँ एक तथ्य पर विचार करना भी आवश्यक है, क्या ज्योतिष के जानकार यह घोषणा कर सकते है कि अमुक परीक्षा में सफल होगा ही, चाहे परिश्रम किया गया हो या नहीं। जब हम अन्धविश्वासी होकर चलेंगे तो परिणाम तो विपरीत होगे ही। फिर हम किसी के लिए ऐसी अन्धी अशुभ घोषणा कैसे कर सकते है कि कोई परीक्षा में असफल होगा ही। जैसे सफलता की निश्चित घोषणा विष है, वैसे ही असफलता की निश्चित घोषणा भी विष है। ऐसी ज्योतिषी की घोषणा युवा वर्ग को निरन्तर अभ्यास और परिश्रम करने से निरूत्साहित करती है। अन्दर से कमजोर बनाती है।
अतः यह कहा जा सकता है कि प्रतियोगी परिक्षा या ऐसे ही किसी प्रकरण में ज्योतिषी जी के पास जाने का अर्थ अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है क्योंकि वे जो भी घोषणा करेंगे वह विष का काम करेगी। सच्ची घोषणा तो यही होगी कि यदि अथक परिश्रम करोंगे तो ही सफलता तुम्हारे कदम चुमेगी। जिस जिसने भी परिश्रम किया है उसी को सफलता मिलती रही है। परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है। जीवन के हर क्षैत्र में सफलता का एकमात्र राजमार्ग परिश्रम के माध्यम से ही प्राप्त किया जाता है। अंग्रेज निबंधकार एडीसन महोदय ने सच कहा है, ‘कोई भी यथार्थतः मूल्यवान वस्तु ऐसी नहीं है जो कष्टों और श्रम के बिना खरीदी जा सके।’
जीवन में अथक और निरंतर परिश्रम के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति का दृष्टिकोण आशावादी होना चाहिए। आशावादी दृष्टिकोण व्यक्ति को सकारात्मक सोच की ओर ले जाता है। सकारात्मक सोच व्यक्ति का स्वप्न देखने और उन्हें साकार करने का जोश पैदा करता है। जैसे घड़ी में चाबी भरी हो तो चलती रहती है वैसे ही आशावादी दृष्टिकोण युवाओं को कर्म योग की ओर प्रेरित करता रहता है। नकारात्मक अंधविश्वासी कोई भी कर्म सफलता के मार्ग में काँटे बिछाने जैसा है। क्योंकि यह सफलता के प्रति सन्देह उत्पन्न कर देता है। हर सफलता अपना मूल्य मांगती है। यदि बिना मूल्य के कोई वस्तु मिले तो मान कर चलिए उसका हमें भविष्य में बहुत बड़ा मुल्य चुकाना पडे़गा। वह मार्ग खतरनाक है। अभी भले ही वह आकर्षक लगे।
परिश्रम से प्राप्त सफलता हमें एक आत्मविश्वास जागृत करती है। हम अनुभव प्राप्त करते है। यह अनुभव हमें एक विश्वास जगाता है कि हम कार्य कर सकते है। इतना ही नहीं इस परिश्रम से प्राप्त सफलता का परिणाम यह होता है कि हमारी एक छबि बन जाती है कि हम कार्य कर सकते है। यह छबि अमूल्य है, इस छबि के कारण दूसरे हम पर विश्वास करने लगते है। इस विश्वास के कारण वे भी हमारे कार्य में सहयोग देने लगते है। स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी और मदर टेरेसा जैसे उदाहरण हमारे सामने है। इनकी ऐसी छबि बन गई कि पूरा देश उन पर विश्वास कर गया और उन्हे सफलता के साथ सम्मान और प्रतिष्ठा भी मिली। परिश्रम के फल अत्यन्त मधुर है। साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ’जिन्दगी मुस्कराई’ में कहते है, ’परिश्रम ही हर सफलता की कुंजी है और वही प्रतिभा का पिता है।’ परिश्रम के साथ प्रतिभा का निखार तो आना ही है।
अन्धविश्वास के अतिरिक्त आज जो वातावरण हमारे चारों ओर बन गया है, वह भी युवकों को निराश करता है। ऐसा कहते है कि चारों और भ्रष्टाचार है, भाई भतीजावाद है और इसलिए कितना ही परिश्रम करो, सब व्यर्थ है। कई युवक तो इन तर्को के आधार पर प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं होते। कई युवक अपनी असफलता के लिए इसे बहाने के तौर पर उपयोग करते है। यह सच है कि कुछ प्रकरणों में ऐसा दिखाई दिया है लेकिन ऐसा नहीं है कि कड़ी मेहनत व्यर्थ जाती हो। परिश्रमी भी असफल होते है किन्तु जो सफल होते वे भी परिश्रमी ही होते है।
ऐसे प्रकरणें में असफलता का कारण युवकों में लक्ष्य का अभाव देखा गया है। यदि हमने कोई स्वप्न सजोया है तो वह ऊँचा होना चाहिए और हमें कड़ी मेहनत द्वारा उसका मूल्य चुकाने के लिए तैयार होना चाहिए। इसी देश में अत्यन्त गरीब वर्ग के युवकों ने ऊँचे स्वप्न सजाकर सफलता का परचम लहलराया है। क्या आप सुशील कुमार शिन्दे को जानते है? यदि नहीं तो आपको जानना चाहिए। भारत में वे कई उच्च पदों पर कार्य कर चुके है। वर्तमान में वे केन्द्रीय शासन के विघुत विभाग के मंत्री है। वे अत्यन्त गरीब चर्मशोधन कार्य करने वाले परिवार से है। उन्हे गरीबी के कारण पर्याप्त शिक्षा न मिल सकी तो उन्होने प्रारम्भ में मुम्बई न्यायालय में भृत्य की सेवा की। सेवा में रह कर विधि स्नातक हुए और तब राजनीति में आए। संघर्षो की लम्बी कहानी है उनका जीवन। सफलता के लिए पसीना तो बहाना ही पड़ेगा, धैर्य भी धारण करना पडे़गा। यहाँ चट मंगनी, पट ब्याह सम्पन्न नहीं होता। राजस्थान के किसी अज्ञात कवि ने लिखा है,
राम कहे सुग्रीव ने लंका केती दूर ?
आलसिया आधी घणी, उद्यम हाथ हजूर ।
राम ने सुग्रीव से पूछा कि लंका कितनी दूर है। सुग्रीव ने उत्तर दिया- ’स्वामी ! आलसियों के लिए बहुत दूर है पर उद्यमशील के हाथ के पास ही है।’ जो धैर्य धारण कर परिश्रम करेगा सफलता उसके पास खड़ी है। इस तरह की सफलता को भाग्य कह कर मत झूठलाइए। निरन्तर परिश्रम करने वाले भाग्य को भी परास्त कर देते है।
उपरोक्त उदाहरण के अतिरिक्त भी कई उदाहरण है। डाक्टर आर.एल.भाटिया फन एण्ड जाय कम्पनी के सी.ई.ओ. है। अभी वे एक कार्यक्रम में इन्दौर (म.प्र.) में आए थे। उन्होने स्वयं बताया कि वे बारह वर्ष की आयु में स्टैंडर्ड चार्टर बैंक में प्युन बने थे। पच्चीस वर्ष के अथक परिश्रम के बाद वे उसी बैंक में एच.आर.विभाग के प्रमुख की हैसियत से पहुँचे। उसके बाद उन्होने खुद की कम्पनी प्रारम्भ की जिसका टर्नओव्हर तीन से चार करोड़ है। उनके शिक्षक उन्हे कमजोर समझते थे। वे नौंवी में अधिकांश विषयों में फैल हुए लेकिन परिश्रम के बल पर 1987 में पी.एच.डी. पुरी की। सफलता के लिए संघर्षो की लम्बी कहानी है यह ।
ऐसा नहीं है कि एक दो बार असफल हुए और निराश होकर बैठ गए। नहीं, यदि आपने लक्ष्य उँचा रखा है तो उसे साकार करने के लिए निरन्तर परिश्रम के लिए डॅटे रहना पडेगा। सफलता भी आपकी कई परिक्षाएँ लेकर तय करती है कि आप उसे पाने के योग्य भी है या नहीं। लेकिन जब उसे पता चल जाता है कि हम पात्र है तो फिर एक शक्ति का उदय हमारे अन्दर ही होता है जो हमें पहुँचा देता है लक्ष्य की ओर । ऐसे कई जीवित उदाहरण है जो हमारे आसपास ही मिल सकते है।
सफलता की लम्बी कहानी किसी सिफारिश या भ्रष्टाचार के आधार पर चल ही नहीं सकती, क्योकि जीवन का संग्राम एक दिन या एक वर्ष का नहीं होता। कोई छोटा मोटा पद पा लेना सफलता का एक चरण हो सकता है। पर मंजिल तो दूर ही रहती है। उँचे स्वप्न साकार करने का मूल्य पसीने से ही तोला जा सकता है जो देता है योग्यता, अनुभव, आत्मविश्वास और विजेता का भाव। चाहे जो परिस्थिति हो, चाहे जो उम्र हो, आप चाहे जहाँ हो यदि ठान लेंगे अपने अन्दर से धीरे धीरे रास्ता मिलता जाएगा।
हमारी गरीबी, अपंगता या दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र में निवास हमारे लिए कमजोरी नहीं है। ब्रिटिश सेनापति एवं राजनीतिज्ञ आर्थर बेलेजली ने क्या खूब लिखा है, ’अस्तबल में जन्म लेने मात्र से कोई मनुष्य घोड़ा नहीं हो जाता।’ मनुष्य होने मात्र से जीवन संघर्ष में सफलता के हम हकदार हो जाते है। अन्ध विश्वास और नकारात्मक सोच के हीन भावों के जालों को नष्ट कीजिए और एक विश्वास भरा कदम उठाइए। सफलता आपका इन्तजार कर रही है।
Monday, September 21, 2009
बहुत खतरे है आधूनिक जीवन शैली में
प्रकरण क्रमांक 1- मैं अपने मित्र के निवास पर रूका था। मित्र ने बेटे से कहा, ‘टेबल से प्लेटे हटा दो’ बेटे ने कहा, ‘यह मेरा काम नहीं है, आप बिहारी को आवाज दो’। बिहारी उनके घर काम करने वाला कर्मचारी है जब मैने कहा ‘बेटा, यह घर का काम है हमें करना ही चाहिए’ तो वह बोला, ‘मैं नौकर नहीं हुँ, यह काम बिहारी करता है’
प्रकरण क्रमांक 2- नूतन अपने दोस्तों के साथ टी.वी.देख रहा था । उनकी माँ ने कहा ‘बेटा, बाजार से दूध ले आओ’ बेटे ने कहा, ‘मैं अभी टी.वी. देख रहा हुँ माँ। आप ही ले आओ।’
आज परिवारों में यह आम बात है । बच्चे या तो टी.वी. देखते है या पढ़ते है। पढ़ते नहीं है तो ट्युशन पर जाते है। होमवर्क करते है। सुबह से लेकर रात तक वे इन्ही कामों में व्यस्त रहते है। श्रम के काम वे करना अपने सम्मान के विरूद्ध मानते है। घर में या तो कोई कामवाली बाई होती है या कर्मचारी। खुद घर का काम भी उन्हे अपना नहीं लगता। उनके पास खेलने का समय नहीं है। घर के बाहर वे अपने दोस्तों के साथ हॅसी मजाक करने का समय नहीं निकाल पाते क्योकि टेलिविज़न देखने में व्यस्त रहते है इसलिए वे प्रकृति की अमूल्य सौगात धूप और धूल से बचे रहते है और बचपन का स्वभाविक आनन्द नहीं उठा पाते। छोटे छोटे बच्चे तक घर के बाहर खेल नहीं पाते। उन्हे घर के बाहर सुरक्षा कारणों से भी नहीं जाने दिया जाता। पता नहीं कैसे बच्चों का संग हो जाए। स्टेटस सिम्बल का भूत भी बचपन से खड़ा कर दिया जाता है। इस प्रकार आज श्रम के प्रति उदासीनता का वातावरण मध्यमवर्गीय परिवारों तक पाया जाता है।
स्वप्नो का भार - बचपन से ही बच्चों के सर पर प्रतियोगिता का चक्र चला दिया जाता है। जमाना ही प्रतियोगिता का है, नम्बर वन बनना है। इस दुनिया में सर्वश्रेष्ट बनना है। माता-पिता की महत्वकांक्षा के शिकार बच्चे पैदा होते ही हो जाते है। प्ले स्कूल, के.जी. के बच्चों में यह भावना घर करने लगती है और उस पर आनन्द यह कि न माँ के पास समय है, न पिता के पास। बच्चे या तो स्कूल में व्सस्त रहे, ट्युशन पढ़े, होमवर्क करे, टी.वी. देखे या अपने घर के नौकरों के भरोसे रहे। बच्चों को संस्कार देने का दायित्व अब टी.वी. निर्वाह कर रहा है। उपभोक्ता संस्कृति में टी.वी. इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि बच्चे दोस्तो के साथ खेलने, घर के कामकाज में मदद करने में आलस करने लगे है।
इतना ही नहीं इस व्यस्त जिन्दगी के परिणाम स्वरूप माता-पिता और सम्बन्धियो से भी मिलने जुलने के लिए बहुत कम समय मिल पाता है। श्रम के प्रति श्रद्धा तो है ही नहीं। श्रम के कामों को छोटा समझा जाने लगा है। फलस्वरूप आर्थिक हालातों में भले ही सुधार हुआ हो, सुख और आनन्द में कमी आ गई है। देखे इसके परिणाम क्या हो रहे है।
भाईचारा गायब - अब हमारे भाई तो है पर भाईचारा गायब है। परिवार में भाई-भाई में, भाई-बहन में वह अपनत्व, सहयोग, त्याग अब नहीं पाया जा रहा है। जो स्वभाविक रूप से पाया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि परिवारों में भी प्रतियोगिता कण्ठकाटू रूप में बढ़ गई है। यह प्रतियोगिता अपने को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की है। हम कितनी ही प्रतियोगिता कर ले नम्बर वन तो एक ही होगा। शेष सबको तो दुःखी होना है इससे अहंकार परिवारो में घर कर रहा है। प्रसिद्ध साहित्यकार बिमल मित्र गवाह न.3 में लिखते है ‘मनुष्य का आज का धर्म हो गया है आगे बढ़ते चलों, सबको पीछे छोड़ते चलों, धक्का मार कर चोट पहुचाकर। किसी प्रकार बढ़ते चलो’ जब यह युग धर्म होगा तो भाईचारा कैसे होगा।
इसी तथ्य को विचारक जे.जे. कृष्णमूर्ति इस प्रकार व्यक्त करते है -‘स्पर्धारत समाज में भाई चारा हो ही नहीं सकता। कोई भी सुधार या शिक्षा पद्धति ऐसे समाज में बन्धुत्व की भावना नहीं ला सकती’ वास्तव में हमने उपभोक्तावादी समाज में जो जीवन शैली का बदलाव किया यह उसका स्वभाविक परिणाम है। हम युवाओं को दोष देते है, यह गलत है। भूल तो हमसे ही हुई है। हमने अपने महत्वकांक्षा के नीचे परिवार के सभी नैतिक गुणों को दबा दिया है। जैसी जीवन शैली हम अपनाएगे, उसके परिणाम हमें ही भुगतने पडे़गे। आज वृद्धावस्था के लिए जो समस्याएं खड़ी है। वह भी इसी जीवन शैली का परिणाम है।
तब फिर क्या करे - उपरोक्त परिस्थिति में माता -पिता तथा पालकों को दायित्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। अब आज के वातावरण में बच्चों का लालन पालन सहज नहीं है। अब माता-पिता को अपने बच्चों को अधिक समय दे कर उनसे निकट संबंध बनाना चाहिए ताकि बच्चे अपने को असुरक्षित महसुस न करे। ये सम्बंध इतने अपनत्व लिए होना चाहिए कि बालक अपनी हर गतिविधि को माता-पिता से बाट सके। उसे डर या संकोच न हो। बच्चों की हर समस्या का निदान दिन प्रतिदिन होना चाहिए। बच्चों को प्रेरणा और प्रोत्साहन देने का कार्य भी आवश्यक है। यदि ऐसा करने में माता-पिता को असुविधा भी हो तो उठाना चाहिए। ये सम्बन्ध अनमोल है। इन सम्बन्धों पर ही बच्चों के भविष्य की रूप रेखा निर्भर है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित तथ्यों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
फिजिकल एक्सरसाइज भी जरूरी - हम कितने ही व्यस्त हो और अपने बच्चों को नम्बर वन बनाने के लिए कितने ही स्वप्न बुन ले पर उनके लिए व स्वयं के लिए फिजिकल एक्सरसाइज आवश्यक है। यह हमें नहीं भूलना चाहिए। यह प्रकृति का नियम है और इससे इन्कार कर हम सुखी नहीं हो सकते। फिजिकल एक्सरसाइज के अभाव में बच्चों के स्वास्थ पर बहुत बुरा असर पड़ता है। अस्थिरोग विषेशज्ञों का मत है कि धूप में न निकलने की वजह से विटामिन डी की कमी हो जाती है। हड्डिया धीरे धीरे कमजोर होकर टेडी हो जाती है। बच्चों को बहुत सारी फिजिकल एक्सरसाइज की जरूरत है। जितना पढ़ना जरूरी है, उतना खेलना भी जरूरी है। उन्हे खेलने के लिए खुले मैदानों में मुक्त छोडिए।
बढ़ता तनाव - जहाँ शारीरिक श्रम की आवष्यकता है वहीं शिशुरोग विशेषज्ञ ज्यादा पढ़ाई पर जोर देने से बढ़ रहे तनाव के प्रति हमें सचेत करते है। वे कहते है कि इस तनाव से बच्चों की प्रतिभा का विकास रूक जाता है। बच्चों को पढ़ाई के साथ खेलना भी आवष्यक है। पढ़ाई के बीच बीच में ब्रेक भी होना चाहिए। एक ही जगह बैठे रहने से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। ज्यादा पढ़ने से आँख पर भी तनाव पड़ता है।
डिप्रेशन की आशंका - इधर मनोचिकित्सको का कहना है कि पढ़ाई का तनाव तो सदा ही रहता है। इस प्रतियोगिता के समय में माता पिता का नम्बर वन बने रहने का दबाव होने से बच्चे अपनी क्षमता से अधिक मन मारकर पढ़ते है। पढ़ना उनके लिए आनन्द नहीं रहता। वे पढ़ने से उबने लगते है। इसलिए मन चाहे अंक उन्हे नहीं मिलते। उनकी तथा माता -पिता की आशाओं पर तुशारापात होता है। इस कारण बच्चे गहरे अवसाद मे चले जाते है और कभी कभी आत्महत्या तक कर लेते है।
खतरे ही खतरे - इस जीवन शैली से खतरे ही खतरे है। हम सब उन खतरों को अब जानने और समझने लगे है लेकिन फिर भी अपने बच्चों की समय के दौड़ में पिछड़ जाने की आशंका में इस मार्ग पर डटे हुए है। परिणाम में बच्चों में प्रारम्भ से ही मोटापे का रोग विकराल रूप धारण करने लगा है क्योकि उनके जीवन में श्रम का अभाव है। यह उन्हे शारीरिक रूप से कमजोर बना देता है। बच्चें घर और बाहर की गतिविधियों को निपटा नहीं पाते। इस दृश्टि से वे आलसी हो जाते है। उनकी व्यहारिक जीवन नीरस हो जाता है वे अपने माता पिता, रिश्तेदार और दोस्तों से निकट का अपनत्व भरा सम्बन्ध नहीं रख पाते। यही कारण है कि वे संकट की घडी में धैर्य नही रख पाते। उन्हे समझ में नहीं आता कि वे किस कन्धें पर सर रखकर आगे बढ़ने का साहस प्राप्त करे। इन्ही क्षणों में वे अपने आसपास अन्धकार पाते है और आत्महत्या करने को प्रवृत हो जाते है। कभी कभी इसका उलटा भी हो जाता है। बच्चे असामाजिक प्रवृति के कारण हिंसक हो जाते है।
और भी बडा खतरा - इन सब खतरों से बड़ा एक खतरा है। मान लीजिए जैसा उपर वर्णन किया है वैसा कुछ नहीं होता। हम सब खतरों से निकल कर लक्ष्य पा लेते है। हमे लाखो नहीं करोड़ों का आफर मिल जाता है तब कम्पनी हमारे स्वास्थ्य परीक्षण पर हमें रोक सकती है। आजकल लाखों रू खर्च करने वाली कम्पनिया नियुक्ति के पूर्व कड़ा व गहराई का स्वास्थ्य परीक्षण कराती है क्योकि वह आप से नियुक्ति के बाद निरन्तर कार्य चाहती है। यदि नियुक्ति के बाद इम्प्लाईज़ बार बार बीमार हो तो उसे अवकाश देना पड़ेगा जिससे कम्पनी के उत्पादन तो कम होगा ही कम्पनी के अन्य कर्मचारियों पर भी गलत प्रभाव पडेगा । इसलिए हर कम्पनी चाहती है कि इम्प्लाईज़ नियुक्ति के समय पूर्णरूप से फिट रहे ।
यदि हम तनावग्रस्त रहे, फिजिकल एक्सरसाइज न की और श्रम के प्रति हमारी उदासीनता रही तो हम कितने ही अच्छे अंक ले आए हमें कोई न कोई बीमारी हो सकती है। आजकल उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, माइग्रेन जैसी बीमारी युवाओं को भी आमतौर पर देखी गई। बीमारियों का सम्बन्ध मन से भी है अतः शिक्षा के मध्य आधुनिक जीवन शैली के नाम पर केवल पढ़ाकु मत बनिए अन्यथा अन्त में सारा श्रम व्यर्थ चला जाएगा।
सत्यनारायण भटनागर
Sunday, September 20, 2009
आप अपने आप से क्या कहते है?
सामान्यतया हम यह समझते हैं कि हम बातचीत में एक दूसरे से कुछ न कुछ कहते है। अपने आप से कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं है। लेकिन सच मानिए दूसरे जो कुछ कहते है और हम उसको सुनते है, उसका कोई महत्व नहीं है। वास्तव में जो हम अपने आप से कहते है, सुनते, पढ़ते, बोलते है, उसका प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है। हमारा मन इन विचारों, तथ्यों पर विचार करता है और उसके बाद हम निर्णय लेते हैं। वे निर्णय हमारे माने जाते हैं और उन निर्णयों का प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। हम जो कुछ करते है वे हमारे विचारों के अनुरुप होता है। हमारे विचार मन के द्वारा तय होते है अतः हमारा मन ही हमें कार्यो के लिये प्रेरित या निरुत्साहित करता है।
उदाहरण के लिए जब हम किसी चढ़ाई पर जाने की तैयारी करते हैं या कोई भी काम प्रारम्भ करने का निश्चय करते हैं तो हमारा मन यदि कह दे कि यह कार्य कैसे होगा? या कहे दे कि यह कार्य तो ही नहीं सकता तो आप मानिए वह कार्य होगा ही नहीं। आधे अधूरे मन से कार्य कभी सफल नहीं होते। मान लीजिए मन कहता है कि यह कार्य अवश्य होगा, तब एक दृढ़ता सी आ जाती है। हम उस कार्य में तन मन से लग जाते हैं और कार्य चाहे जैसा हो हम उसमें सफलता प्राप्त कर लेते है। यदि हम किसी कारणो से सफलता न भी प्राप्त कर सके तो भी निराश नहीं होते। इसीलिए कहते है ’मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’। भगवान कृष्ण भगवत गीता (के 6/5) में कहते हैं ‘जिसने मन को जीत लिया, उसके लिये मन सर्वश्रेष्ठ मित्र हैं किन्तु जो ऐसा न कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु भी। मन को बड़ा चंचल कहा गया है। यह दिन भर हजारों तरह की बात सोचता, कल्पना करता, भटकता रहता है। इसकी मित्रता कैसी? यह मन कैसे हमारा मित्र बन कल्याण कर सकता है।
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण मन की चंचलता को स्वीकार कर इसे अभ्यास और वैराग्य भावना से नियंत्रण में रखने का सुझाव देते है। मन हमारी उर्जा है, शक्ति है। इसे नियत्रण में रखना है, मन मरे नहीं, मन कमजोर न हो, मन को मन से ही नियंत्रण में लाना हैं। मन से ही मन को नियंत्रण में लाने को ही हम अपने आप से कुछ कहना, सुनना कह सकते है। मन को जब हम समझा दे, अपना लक्ष्य बता दे तो वह लक्ष्य पूर्ति में जुट जाता है।
मन का स्वभाव - आप मन को जिस कार्य में लगा देते है, मन फिर पुरी दृढ़ता से उसमें रस लेने लगता है। प्रतिक्षण वह उसी विषय में अटका रह सकता है। चाहिए आपका एक उददेश्य, एक लक्ष्य। जब मन उस लक्ष्य पूर्ति में लगता है वह उसी कें लिए कल्पनाएं करता है। अवरोधों को हटानें और समाधानो को खोजने में तन्मय हो जाता हैं। यहाँ प्रतिभाशाली व्यक्तियों की वैज्ञानिक समस्याओं का हल स्वप्न में ही उन्हें मिला हैं। यदि आपका मन किसी विषय में उलझ गया है तो फिर वह समस्या सूलझ कर ही रहेगी। अब यह हम पर है कि हम उसे किन कामो में लगने के लिए प्रेरित करते हैं। मन एक विचार देता है, विचार सबसे शक्तिशाली कारक है जो हमें कर्म की ओर प्रेरित करता हैं। हमारे कर्म विचारों के अनुरुप ही होते हैं।
मन कल्पवृक्ष है- हमारे मन को हम कल्पवृक्ष कह सकते हैं। कल्पवृक्ष से जो माँगों वह मिलता है। कल्पवृक्ष हमारी मनोकामनाओं को पूर्ण करता है। एक कथा है- एक व्यक्ति जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठा। उसे प्यास लग रही थी, उसने सोचा कितना अच्छा हो कि शीतल जल मिल जाए, उसने सोचा और शीतल जल की सुराही उसके सामने थी। उसने आनंद से जल ग्रहण किया, सोचा यदि ऐसे ही स्वादिष्ट भोजन प्राप्त हो तो आनंद ही आनंद हैं । सोचते ही स्वादिष्ट भोजन की थाली आ गई। उसने स्वादिष्ट भोजन किया और सोचा एक बिस्तर मिल जाए तो वह मजे से नींद ने सके। तत्काल एक बिस्तर लग गया, वह व्यक्ति बिस्तर पर विश्राम कर सोचने लगा यह सब कैसे हो रहा है। अवश्य ही वृक्ष पर भूत है वह भूत मेरी जान भी ले लेगा। यह नकारात्मक विचार आते ही भूत आए और वह मारा गया। वह कल्पवृक्ष था। हमारा मन कल्पवृक्ष है। जब हम बूरे विचार करते है, नकारात्मक ढंग से सोच लेते है तो परिणाम में दुःख, दर्द, निराशा, हताशा, असफलता, गरीबी, लाचारी आएगी ही लेकिन यदि हम सकारात्मक सोच करते है तो यही मन हमारे लिए मार्ग खोजता है, स्वप्न बुनता है।
वेदव्यासजी महाभारत के स्त्री पर्व (7.22) में कहते है ‘पराक्रम, धन, मित्र और सुहद भी दुःख से छुटकारा नहीं दिला सकते जिस प्रकार दृढ़तापूर्वक संयम से रहने वाला अपना मन दिला सकता है। वे महाभारत के शान्ति पर्व (193/18) में कहते है ’तीर्थो में श्रेष्ठ तीर्थ हृदय है। पवित्र वस्तुओं में अति पवित्र भी विशुद्ध हृदय है’ यह कितने आनंद और आश्चर्य का विषय है कि हम जिस क्षण अपने आपको सकारात्मक सोच का संदेश देते हैं, उसी क्षण मन बदल जाता है। नए ढंग से काम करने लगता है।
प्रतिध्वनि है मन - मन प्रतिध्वनि उत्पन्न करता है। एक बालक जंगल में गया। वह बोला- ’कैसे हो?’ आवाज आई ‘कैसे हो?’ उसे लगा कोई उसकी नकल उतार रहा है। उसने गुस्से से कहा - ‘तुम गधे हो।’ आवाज आइ ‘तुम गधे हो।’ उसे फिर गुस्सा आ रहा था कि उसके पिता ने कहा ‘बोलो, तुम चैम्पीयन हो’ बालक ने जोर से आवाज दी और जवाब मिला ‘तुम चैम्पीयन हो’। हमारा मन हमारे कर्मो की प्रतिध्वनि है। महान भक्त तुकाराम इसीलिए कहते है ’अच्छे बुरे चित्त का साक्षी तू स्वयं है’ हमारा मन जो कहता है, हम वही होते है।
अपने आप से कैसे कहे- अब समस्या यह है कि हम अपने आप से कैसे कहे? यह समस्या इसीलिए लगती है कि हम अपने आप का दर्शन नहीं करते। वस्तुतः हम अपने आप से प्रतिदिन, प्रतिक्षण कुछ न कुछ कहते रहते है। जब हम निराश, हताश, दुःखी और असफल होते है तो कोई दूसरा हमें इस परिस्थिति में लाने का जिम्मेदार नहीं होता। हमने अपने आप में हीन भावना भर ली होती है। कोई दूसरा अपकी इच्छा कें विरुद्ध न तो आपको हरा सकता है, न गुलाम बना सकता है, न दुःखी कर सकता है। वास्तव में हम परिस्थितयों में अपने आपको इस कदर जकड़ लेते है कि उनका सामना करने का मन ही नहीं रहता। हम अपने को परास्त मान लेते हैं और फिर जो घटित होता है, वह तो होगा ही। ऐसे ही जब आप उत्साह से उमंग से, प्रस्न्नता से भरे होते है तो जमाना आपके साथ गीत गाने को तत्पर होता है, तब किसी को इसके लिए निमत्रण नहीं देना होता है।
भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण इसीलिए अध्याय 3/17 में कहते है ‘किन्तु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनंद लेता है तथा जिसका आत्म साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है।’
कैसे कहे मन से - हमें अपने आप से कुछ कहना पागलपन लगता ही लेकिन वस्तुतः हम अपने आप से प्रतिदिन, प्रतिक्षण कुछ कहते है, सोचते हैं, विचारते हैं। स्वामी रामसुखदासजी कहते है कि वैसा ही है जैसे गंगाजल से गंगा की पूजा की जाए अथवा अपने हाथो अपना मुख धोया जाए।
सन्त तुकाराम जी ने कहा है -
जेवि हिरंनि हिरा चिरिजे
तेबा मनेचि मन धरिजे
अर्थात् जैसे हीरे से हीरा चीरा जाता है, वैसे ही मन को मन से धरना है। हमारा मन हमारा मित्र बने इसके लिए सावधानी पूर्वक विवेक का उपयोग प्रतिक्षण ध्यानपूर्वेक करना है। हम उसे नकारात्मक विचारों में भटकने न दे। असामाजिक न होने दे इसके लिए सावधानी आवश्यक हैं। जैसे ही वह भटके अपने ईष्ट भगवान का ध्यान कर लगाम कसे। अपनी अन्तरआत्मा की आवाज सुने आपको सदा आनंद मार्ग मिलेगा।
सत्यनारायण भटनागर
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