Sunday, September 20, 2009

आप अपने आप से क्या कहते है?


सामान्यतया हम यह समझते हैं कि हम बातचीत में एक दूसरे से कुछ न कुछ कहते है। अपने आप से कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं है। लेकिन सच मानिए दूसरे जो कुछ कहते है और हम उसको सुनते है, उसका कोई महत्व नहीं है। वास्तव में जो हम अपने आप से कहते है, सुनते, पढ़ते, बोलते है, उसका प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है। हमारा मन इन विचारों, तथ्यों पर विचार करता है और उसके बाद हम निर्णय लेते हैं। वे निर्णय हमारे माने जाते हैं और उन निर्णयों का प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। हम जो कुछ करते है वे हमारे विचारों के अनुरुप होता है। हमारे विचार मन के द्वारा तय होते है अतः हमारा मन ही हमें कार्यो के लिये प्रेरित या निरुत्साहित करता है।

उदाहरण के लिए जब हम किसी चढ़ाई पर जाने की तैयारी करते हैं या कोई भी काम प्रारम्भ करने का निश्चय करते हैं तो हमारा मन यदि कह दे कि यह कार्य कैसे होगा? या कहे दे कि यह कार्य तो ही नहीं सकता तो आप मानिए वह कार्य होगा ही नहीं। आधे अधूरे मन से कार्य कभी सफल नहीं होते। मान लीजिए मन कहता है कि यह कार्य अवश्य होगा, तब एक दृढ़ता सी आ जाती है। हम उस कार्य में तन मन से लग जाते हैं और कार्य चाहे जैसा हो हम उसमें सफलता प्राप्त कर लेते है। यदि हम किसी कारणो से सफलता न भी प्राप्त कर सके तो भी निराश नहीं होते। इसीलिए कहते है ’मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’। भगवान कृष्ण भगवत गीता (के 6/5) में कहते हैं ‘जिसने मन को जीत लिया, उसके लिये मन सर्वश्रेष्ठ मित्र हैं किन्तु जो ऐसा न कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु भी। मन को बड़ा चंचल कहा गया है। यह दिन भर हजारों तरह की बात सोचता, कल्पना करता, भटकता रहता है। इसकी मित्रता कैसी? यह मन कैसे हमारा मित्र बन कल्याण कर सकता है।

भगवद्गीता में भगवान कृष्ण मन की चंचलता को स्वीकार कर इसे अभ्यास और वैराग्य भावना से नियंत्रण में रखने का सुझाव देते है। मन हमारी उर्जा है, शक्ति है। इसे नियत्रण में रखना है, मन मरे नहीं, मन कमजोर न हो, मन को मन से ही नियंत्रण में लाना हैं। मन से ही मन को नियंत्रण में लाने को ही हम अपने आप से कुछ कहना, सुनना कह सकते है। मन को जब हम समझा दे, अपना लक्ष्य बता दे तो वह लक्ष्य पूर्ति में जुट जाता है।

मन का स्वभाव - आप मन को जिस कार्य में लगा देते है, मन फिर पुरी दृढ़ता से उसमें रस लेने लगता है। प्रतिक्षण वह उसी विषय में अटका रह सकता है। चाहिए आपका एक उददेश्य, एक लक्ष्य। जब मन उस लक्ष्य पूर्ति में लगता है वह उसी कें लिए कल्पनाएं करता है। अवरोधों को हटानें और समाधानो को खोजने में तन्मय हो जाता हैं। यहाँ प्रतिभाशाली व्यक्तियों की वैज्ञानिक समस्याओं का हल स्वप्न में ही उन्हें मिला हैं। यदि आपका मन किसी विषय में उलझ गया है तो फिर वह समस्या सूलझ कर ही रहेगी। अब यह हम पर है कि हम उसे किन कामो में लगने के लिए प्रेरित करते हैं। मन एक विचार देता है, विचार सबसे शक्तिशाली कारक है जो हमें कर्म की ओर प्रेरित करता हैं। हमारे कर्म विचारों के अनुरुप ही होते हैं।

मन कल्पवृक्ष है- हमारे मन को हम कल्पवृक्ष कह सकते हैं। कल्पवृक्ष से जो माँगों वह मिलता है। कल्पवृक्ष हमारी मनोकामनाओं को पूर्ण करता है। एक कथा है- एक व्यक्ति जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठा। उसे प्यास लग रही थी, उसने सोचा कितना अच्छा हो कि शीतल जल मिल जाए, उसने सोचा और शीतल जल की सुराही उसके सामने थी। उसने आनंद से जल ग्रहण किया, सोचा यदि ऐसे ही स्वादिष्ट भोजन प्राप्त हो तो आनंद ही आनंद हैं । सोचते ही स्वादिष्ट भोजन की थाली आ गई। उसने स्वादिष्ट भोजन किया और सोचा एक बिस्तर मिल जाए तो वह मजे से नींद ने सके। तत्काल एक बिस्तर लग गया, वह व्यक्ति बिस्तर पर विश्राम कर सोचने लगा यह सब कैसे हो रहा है। अवश्य ही वृक्ष पर भूत है वह भूत मेरी जान भी ले लेगा। यह नकारात्मक विचार आते ही भूत आए और वह मारा गया। वह कल्पवृक्ष था। हमारा मन कल्पवृक्ष है। जब हम बूरे विचार करते है, नकारात्मक ढंग से सोच लेते है तो परिणाम में दुःख, दर्द, निराशा, हताशा, असफलता, गरीबी, लाचारी आएगी ही लेकिन यदि हम सकारात्मक सोच करते है तो यही मन हमारे लिए मार्ग खोजता है, स्वप्न बुनता है।

वेदव्यासजी महाभारत के स्त्री पर्व (7.22) में कहते है ‘पराक्रम, धन, मित्र और सुहद भी दुःख से छुटकारा नहीं दिला सकते जिस प्रकार दृढ़तापूर्वक संयम से रहने वाला अपना मन दिला सकता है। वे महाभारत के शान्ति पर्व (193/18) में कहते है ’तीर्थो में श्रेष्ठ तीर्थ हृदय है। पवित्र वस्तुओं में अति पवित्र भी विशुद्ध हृदय है’ यह कितने आनंद और आश्चर्य का विषय है कि हम जिस क्षण अपने आपको सकारात्मक सोच का संदेश देते हैं, उसी क्षण मन बदल जाता है। नए ढंग से काम करने लगता है।

प्रतिध्वनि है मन - मन प्रतिध्वनि उत्पन्न करता है। एक बालक जंगल में गया। वह बोला- ’कैसे हो?’ आवाज आई ‘कैसे हो?’ उसे लगा कोई उसकी नकल उतार रहा है। उसने गुस्से से कहा - ‘तुम गधे हो।’ आवाज आइ ‘तुम गधे हो।’ उसे फिर गुस्सा आ रहा था कि उसके पिता ने कहा ‘बोलो, तुम चैम्पीयन हो’ बालक ने जोर से आवाज दी और जवाब मिला ‘तुम चैम्पीयन हो’। हमारा मन हमारे कर्मो की प्रतिध्वनि है। महान भक्त तुकाराम इसीलिए कहते है ’अच्छे बुरे चित्त का साक्षी तू स्वयं है’ हमारा मन जो कहता है, हम वही होते है।

अपने आप से कैसे कहे- अब समस्या यह है कि हम अपने आप से कैसे कहे? यह समस्या इसीलिए लगती है कि हम अपने आप का दर्शन नहीं करते। वस्तुतः हम अपने आप से प्रतिदिन, प्रतिक्षण कुछ न कुछ कहते रहते है। जब हम निराश, हताश, दुःखी और असफल होते है तो कोई दूसरा हमें इस परिस्थिति में लाने का जिम्मेदार नहीं होता। हमने अपने आप में हीन भावना भर ली होती है। कोई दूसरा अपकी इच्छा कें विरुद्ध न तो आपको हरा सकता है, न गुलाम बना सकता है, न दुःखी कर सकता है। वास्तव में हम परिस्थितयों में अपने आपको इस कदर जकड़ लेते है कि उनका सामना करने का मन ही नहीं रहता। हम अपने को परास्त मान लेते हैं और फिर जो घटित होता है, वह तो होगा ही। ऐसे ही जब आप उत्साह से उमंग से, प्रस्न्नता से भरे होते है तो जमाना आपके साथ गीत गाने को तत्पर होता है, तब किसी को इसके लिए निमत्रण नहीं देना होता है।

भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण इसीलिए अध्याय 3/17 में कहते है ‘किन्तु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनंद लेता है तथा जिसका आत्म साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है।’

कैसे कहे मन से - हमें अपने आप से कुछ कहना पागलपन लगता ही लेकिन वस्तुतः हम अपने आप से प्रतिदिन, प्रतिक्षण कुछ कहते है, सोचते हैं, विचारते हैं। स्वामी रामसुखदासजी कहते है कि वैसा ही है जैसे गंगाजल से गंगा की पूजा की जाए अथवा अपने हाथो अपना मुख धोया जाए।

सन्त तुकाराम जी ने कहा है -

जेवि हिरंनि हिरा चिरिजे
तेबा मनेचि मन धरिजे

अर्थात् जैसे हीरे से हीरा चीरा जाता है, वैसे ही मन को मन से धरना है। हमारा मन हमारा मित्र बने इसके लिए सावधानी पूर्वक विवेक का उपयोग प्रतिक्षण ध्यानपूर्वेक करना है। हम उसे नकारात्मक विचारों में भटकने न दे। असामाजिक न होने दे इसके लिए सावधानी आवश्यक हैं। जैसे ही वह भटके अपने ईष्ट भगवान का ध्यान कर लगाम कसे। अपनी अन्तरआत्मा की आवाज सुने आपको सदा आनंद मार्ग मिलेगा।

सत्यनारायण भटनागर

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