Sunday, September 27, 2009

स्मृति के झरोखे से – वह पीड़ा में भी हंसता रहा

सामान्य विचार यह है कि मृत्यु के बाद सब कुछ समाप्त हो जाता है। देहावसान के बाद व्यक्ति के सुख दुःख, कर्म, अकर्म, विकर्म सब कुछ समाप्त हो जाते है और वह इस दुनिया से मुक्त हो जाता है। हमारे एक मित्र का कहना है ’आप डुबे जग डुबा’। मृत्यु के बाद कौन क्या करता है, कहता है इसका महत्व नहीं रहता। अतः जीते जी जो कर लिया सो काम, भज लिया सो राम। हमे मृत्यु के बाद की चिन्ता या सोच विचार नहीं करना चाहिए।

सोचिए क्या यह सत्य है? मुझे उज्जैन के वरिष्ट प्रशासकीय अधिकारी की मृत्यु का स्मरण आता है| उनकी शव यात्रा में मैं भी सम्मलित था। शवयात्रा शहर के सतीगेट पँहुची, आवागमन में कुछ व्यवधान पड़ा और हमारा वाहन रुक गया। तभी एक अधेड़ सज्जन आए पुछा ’किसकी मृत्यु हुई हैं? उन्हे नाम व पद बताया गया। वे प्रसन्न हो ताली बजाने लगे, कहा ’वेरी गुड़, वेरी गुड़’ हमे बुरा लगा। सामान्य सा नियम है कि मृत्यु के बाद किसी की निन्दा नहीं की जाती। किसी की मृत्यु पर प्रसन्न्न होने का प्रश्न ही नहीं है। किन्तु मृत्यु के बाद भी अच्छे बुरे स्मरण तो रहते ही है।

मृत्यु का क्षण यह नियत करता है कि हमने हमारा जीवन कैसे जिया। भगवदगीता में भगवान कृष्ण कहते है कि अन्तिम क्षण का स्मरण ही हमारे आगामी जन्म का निर्णायक क्षण है। इस क्षण में यह स्पष्ट होता है कि हमने कैसा जीवन जिया। इस क्षण को हमारे जीवन भर के संस्कार तय करते है। हम कोई बनावटी स्मरण इस क्षण में रच नहीं सकते। यही संस्कार यह तय करते है कि लोग हमारी मृत्यु के बाद हमें किस रुप में स्मरण करेंगे। इसलिए यह महत्वपुर्ण है कि हम जीवित अवस्था में भी इस बात की सावधानी बरते कि मृत्यु के बाद हमारे सम्बन्ध में सही चित्र इस संसार में उभरे। हमारा संसार बहुत छोटा भी हो सकता है और अति विशाल भी, यह हमारे कार्यो पर निर्भय करता है।

ऎसे विचार का प्रसंग कुछ दिन पूर्व मुझे उदयपुर में उपस्थित हुआ। मैं श्री के. जी. भटनागर की मृत्यु के अवसर पर वहाँ गया था। श्री के. जी. भटनागर कोई सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व नहीं थे। वे राजस्थान सरकार के खाद्य विभाग के सेवा निवृत अधिकारी थे। उनकी मृत्यु ’मोटर न्युरान डिसआर्डर’ (एम. एन. डी.) नामक बीमारी से हुई थी। यह एक अजीब सी बीमारी थी जिसके सम्बन्ध में मैंने तो सुना नहीं था। शायद पाठकों को भी इस बीमारी के सम्बन्ध में जानकारी न हो, इसलिए संक्षेप में उल्लेख कर दूँ। इस बीमारी में मासपेशियां कमजोर हो जाती है और व्यक्ति का चलना फिरना धीरे धीरे बन्द हो जाता है, हाथ जम से जाते है और क्रमशः पूरे शरीर की मासपेशिया काम करना बन्द कर देती है, मसल्स वेस्टींग होती है। यह बीमारी कोई एक करोड़ लोगो में एक व्यक्ति को होती है और मेडिकल साइन्स में अभी तक इसका कोई इलाज भी नहीं है।

इस बीमारी में संवेदी नसे पूरी तरह स्वस्थ होती है। बीमार पूरी तरह सचेत होता है पर शरीर स्वयं कोई गति नहीं कर सकता है। ऎसी विचित्र दशा होती है बीमार की कि वह उठ बैठ नहीं सकता, चल नहीं सकता किन्तु बातचित लेटे लेटे कर सकता है, हँस सकता है, रो सकता है, नाराज हो गुस्सा कर सकता है, निराश हो सकता है किन्तु गति सम्बन्धी कोई क्रिया नहीं कर सकता है। रोगी की बैबसी बडी़ दयनीय होती है, उसका खाना पीना, दैनिक समस्त क्रियाएं दुसरों पर निर्भर रहती है। इस बीमारी में श्रवण केन्द्र की मासपेशिया सबसे अन्त में समाप्त होती है और यही मृत्यु का कारण होती है।

श्री के. जी. भटनागर पिछले तीन वर्ष से इस बीमारी से ग्रसित थे। उनकी मृत्यु पर आयोजित शोक सभा में मैं सम्मलित हुआ। मेरे लिए इस सभा में यह सुनना आन्नद और सन्तोष का कारण था कि वे जीवन के अन्तिम क्षण तक हँसते मुस्कराते रहे हर कोई उनकी बाल सुलभ हँसी और मुस्कान को याद कर रहा था। बच्चे उनके सहज प्रेम व वासल्य को याद कर रहे थे। एक भी व्यक्ति मुझे नही मिला जिसने उनके बेबस शरीर से चिड़चिड़ाहट, क्रोध, निराश, अवसाद का वर्णन किया हो।

हम छोटी छोटी दुर्घटनाओं और असफलताओं पर अवसाद ग्रस्त होते है, आत्महत्या के सम्बन्ध में विचार करते है। अपनी आवश्यक सेवाओं के न होने पर परिवार पर दोषारोपण करते है किन्तु अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में भी जो मुस्कराता हो, हंसता हो, बाल सुलभ लीलाओं का आन्नद लेता हो, उसकी मृत्यु का आना, न आना भी खेल है।

यह सब मैं लिखने को इसलिए बाध्य हुँ कि मृत्यु के पूर्व मैं स्वयं इसका साक्षी रहा हूँ, कुछ ऎसे अवसर आए कि श्री के. जी. भटनागर के साथ मृत्यु के पूर्व मैं रह सका। उसके बिस्तर के पास कुर्सी लगाकर कुछ घन्टे व्यतीत करने का अवसर मुझे मिला। भगवान के प्रति निष्ठा-भक्ति से पूर्ण वह सब कुछ ईश्वर की लीला समझ प्रसन्न होता रहा, किसी से कोई शिकायत नहीं, किसी पर दोषारोपण नहीं। सबके प्रति प्रेम – अपनत्व, आशीर्वाद का भाव। कष्ट, दुःख का कोई उल्लेख नहीं। संकट के समय का यह आनन्द विस्मयकारक लगा।

महाभारत में माता कुन्ती भगवान से विपत्ति मांगती है ताकि वह इस समय प्रभू स्मरण कर सके। जीवन में जब भी विपत्ति आए तब उसे प्रभू स्मरण का अमूल्य अवसर मान प्रसाद रुप में ग्रहण करें वही तो संकट में मुस्करा सकता है। भगवान कृष्ण गीता में यही तो सन्देश देते है, वे विषाद ग्रस्त अर्जुन को मुस्कराते हुए यही तो संदेश देते है। जीवन अंतिमकाल तभी सुखद हो सकता है जब हम प्रभू के प्रति पूर्ण भक्तिभाव से निष्ठा रख सके।

इन बातों पर विज्ञान अभी तक विश्वास नहीं करता था किन्तु अब विज्ञान का ध्यान भी इस और गया है। अमेरिका की युनिवर्सिटी आँफ मियामी में साईकोलाजी विभाग के प्रोफेसर माइकल मैककुलफ ने आठ दशको तक धर्म पर अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि भगवान पर निष्ठा रखने वाले अपनी भावनाओं और व्यवहार पर काबू रख सकते है। धार्मिक कृत्य पूजा ध्यान लगाने का प्रभाव मनुष्य के मस्तिष्क पर सकारात्मक पड़ता है और वह स्वयं पर नियत्रंण के लिए अत्याधिक महत्वपूर्ण होता है।

इस सम्बन्ध में महात्मा गांधी सच कहते है “आस्था तर्क से परे की चीज है, जब चारों और अन्धेरा ही दिखाई पडता है और मनुष्य की बुद्धि काम करना बन्द कर देती है, उस समय आस्था की ज्योति प्रखर रुप से चमकती है और हमारी मदद करती है।“

सब और से अन्धेरे का क्षण मृत्यु का भी हो सकता है, जब हमारी बुद्धि काम नही करती तब आस्था की मुस्कान ही हमारे लिए मदद को उपस्थित होती है।

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