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प्रकरण क्रमांक 1- मैं अपने मित्र के निवास पर रूका था। मित्र ने बेटे से कहा, ‘टेबल से प्लेटे हटा दो’ बेटे ने कहा, ‘यह मेरा काम नहीं है, आप बिहारी को आवाज दो’। बिहारी उनके घर काम करने वाला कर्मचारी है जब मैने कहा ‘बेटा, यह घर का काम है हमें करना ही चाहिए’ तो वह बोला, ‘मैं नौकर नहीं हुँ, यह काम बिहारी करता है’
प्रकरण क्रमांक 2- नूतन अपने दोस्तों के साथ टी.वी.देख रहा था । उनकी माँ ने कहा ‘बेटा, बाजार से दूध ले आओ’ बेटे ने कहा, ‘मैं अभी टी.वी. देख रहा हुँ माँ। आप ही ले आओ।’
आज परिवारों में यह आम बात है । बच्चे या तो टी.वी. देखते है या पढ़ते है। पढ़ते नहीं है तो ट्युशन पर जाते है। होमवर्क करते है। सुबह से लेकर रात तक वे इन्ही कामों में व्यस्त रहते है। श्रम के काम वे करना अपने सम्मान के विरूद्ध मानते है। घर में या तो कोई कामवाली बाई होती है या कर्मचारी। खुद घर का काम भी उन्हे अपना नहीं लगता। उनके पास खेलने का समय नहीं है। घर के बाहर वे अपने दोस्तों के साथ हॅसी मजाक करने का समय नहीं निकाल पाते क्योकि टेलिविज़न देखने में व्यस्त रहते है इसलिए वे प्रकृति की अमूल्य सौगात धूप और धूल से बचे रहते है और बचपन का स्वभाविक आनन्द नहीं उठा पाते। छोटे छोटे बच्चे तक घर के बाहर खेल नहीं पाते। उन्हे घर के बाहर सुरक्षा कारणों से भी नहीं जाने दिया जाता। पता नहीं कैसे बच्चों का संग हो जाए। स्टेटस सिम्बल का भूत भी बचपन से खड़ा कर दिया जाता है। इस प्रकार आज श्रम के प्रति उदासीनता का वातावरण मध्यमवर्गीय परिवारों तक पाया जाता है।
स्वप्नो का भार - बचपन से ही बच्चों के सर पर प्रतियोगिता का चक्र चला दिया जाता है। जमाना ही प्रतियोगिता का है, नम्बर वन बनना है। इस दुनिया में सर्वश्रेष्ट बनना है। माता-पिता की महत्वकांक्षा के शिकार बच्चे पैदा होते ही हो जाते है। प्ले स्कूल, के.जी. के बच्चों में यह भावना घर करने लगती है और उस पर आनन्द यह कि न माँ के पास समय है, न पिता के पास। बच्चे या तो स्कूल में व्सस्त रहे, ट्युशन पढ़े, होमवर्क करे, टी.वी. देखे या अपने घर के नौकरों के भरोसे रहे। बच्चों को संस्कार देने का दायित्व अब टी.वी. निर्वाह कर रहा है। उपभोक्ता संस्कृति में टी.वी. इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि बच्चे दोस्तो के साथ खेलने, घर के कामकाज में मदद करने में आलस करने लगे है।
इतना ही नहीं इस व्यस्त जिन्दगी के परिणाम स्वरूप माता-पिता और सम्बन्धियो से भी मिलने जुलने के लिए बहुत कम समय मिल पाता है। श्रम के प्रति श्रद्धा तो है ही नहीं। श्रम के कामों को छोटा समझा जाने लगा है। फलस्वरूप आर्थिक हालातों में भले ही सुधार हुआ हो, सुख और आनन्द में कमी आ गई है। देखे इसके परिणाम क्या हो रहे है।
भाईचारा गायब - अब हमारे भाई तो है पर भाईचारा गायब है। परिवार में भाई-भाई में, भाई-बहन में वह अपनत्व, सहयोग, त्याग अब नहीं पाया जा रहा है। जो स्वभाविक रूप से पाया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि परिवारों में भी प्रतियोगिता कण्ठकाटू रूप में बढ़ गई है। यह प्रतियोगिता अपने को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की है। हम कितनी ही प्रतियोगिता कर ले नम्बर वन तो एक ही होगा। शेष सबको तो दुःखी होना है इससे अहंकार परिवारो में घर कर रहा है। प्रसिद्ध साहित्यकार बिमल मित्र गवाह न.3 में लिखते है ‘मनुष्य का आज का धर्म हो गया है आगे बढ़ते चलों, सबको पीछे छोड़ते चलों, धक्का मार कर चोट पहुचाकर। किसी प्रकार बढ़ते चलो’ जब यह युग धर्म होगा तो भाईचारा कैसे होगा।
इसी तथ्य को विचारक जे.जे. कृष्णमूर्ति इस प्रकार व्यक्त करते है -‘स्पर्धारत समाज में भाई चारा हो ही नहीं सकता। कोई भी सुधार या शिक्षा पद्धति ऐसे समाज में बन्धुत्व की भावना नहीं ला सकती’ वास्तव में हमने उपभोक्तावादी समाज में जो जीवन शैली का बदलाव किया यह उसका स्वभाविक परिणाम है। हम युवाओं को दोष देते है, यह गलत है। भूल तो हमसे ही हुई है। हमने अपने महत्वकांक्षा के नीचे परिवार के सभी नैतिक गुणों को दबा दिया है। जैसी जीवन शैली हम अपनाएगे, उसके परिणाम हमें ही भुगतने पडे़गे। आज वृद्धावस्था के लिए जो समस्याएं खड़ी है। वह भी इसी जीवन शैली का परिणाम है।
तब फिर क्या करे - उपरोक्त परिस्थिति में माता -पिता तथा पालकों को दायित्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। अब आज के वातावरण में बच्चों का लालन पालन सहज नहीं है। अब माता-पिता को अपने बच्चों को अधिक समय दे कर उनसे निकट संबंध बनाना चाहिए ताकि बच्चे अपने को असुरक्षित महसुस न करे। ये सम्बंध इतने अपनत्व लिए होना चाहिए कि बालक अपनी हर गतिविधि को माता-पिता से बाट सके। उसे डर या संकोच न हो। बच्चों की हर समस्या का निदान दिन प्रतिदिन होना चाहिए। बच्चों को प्रेरणा और प्रोत्साहन देने का कार्य भी आवश्यक है। यदि ऐसा करने में माता-पिता को असुविधा भी हो तो उठाना चाहिए। ये सम्बन्ध अनमोल है। इन सम्बन्धों पर ही बच्चों के भविष्य की रूप रेखा निर्भर है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित तथ्यों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
फिजिकल एक्सरसाइज भी जरूरी - हम कितने ही व्यस्त हो और अपने बच्चों को नम्बर वन बनाने के लिए कितने ही स्वप्न बुन ले पर उनके लिए व स्वयं के लिए फिजिकल एक्सरसाइज आवश्यक है। यह हमें नहीं भूलना चाहिए। यह प्रकृति का नियम है और इससे इन्कार कर हम सुखी नहीं हो सकते। फिजिकल एक्सरसाइज के अभाव में बच्चों के स्वास्थ पर बहुत बुरा असर पड़ता है। अस्थिरोग विषेशज्ञों का मत है कि धूप में न निकलने की वजह से विटामिन डी की कमी हो जाती है। हड्डिया धीरे धीरे कमजोर होकर टेडी हो जाती है। बच्चों को बहुत सारी फिजिकल एक्सरसाइज की जरूरत है। जितना पढ़ना जरूरी है, उतना खेलना भी जरूरी है। उन्हे खेलने के लिए खुले मैदानों में मुक्त छोडिए।
बढ़ता तनाव - जहाँ शारीरिक श्रम की आवष्यकता है वहीं शिशुरोग विशेषज्ञ ज्यादा पढ़ाई पर जोर देने से बढ़ रहे तनाव के प्रति हमें सचेत करते है। वे कहते है कि इस तनाव से बच्चों की प्रतिभा का विकास रूक जाता है। बच्चों को पढ़ाई के साथ खेलना भी आवष्यक है। पढ़ाई के बीच बीच में ब्रेक भी होना चाहिए। एक ही जगह बैठे रहने से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। ज्यादा पढ़ने से आँख पर भी तनाव पड़ता है।
डिप्रेशन की आशंका - इधर मनोचिकित्सको का कहना है कि पढ़ाई का तनाव तो सदा ही रहता है। इस प्रतियोगिता के समय में माता पिता का नम्बर वन बने रहने का दबाव होने से बच्चे अपनी क्षमता से अधिक मन मारकर पढ़ते है। पढ़ना उनके लिए आनन्द नहीं रहता। वे पढ़ने से उबने लगते है। इसलिए मन चाहे अंक उन्हे नहीं मिलते। उनकी तथा माता -पिता की आशाओं पर तुशारापात होता है। इस कारण बच्चे गहरे अवसाद मे चले जाते है और कभी कभी आत्महत्या तक कर लेते है।
खतरे ही खतरे - इस जीवन शैली से खतरे ही खतरे है। हम सब उन खतरों को अब जानने और समझने लगे है लेकिन फिर भी अपने बच्चों की समय के दौड़ में पिछड़ जाने की आशंका में इस मार्ग पर डटे हुए है। परिणाम में बच्चों में प्रारम्भ से ही मोटापे का रोग विकराल रूप धारण करने लगा है क्योकि उनके जीवन में श्रम का अभाव है। यह उन्हे शारीरिक रूप से कमजोर बना देता है। बच्चें घर और बाहर की गतिविधियों को निपटा नहीं पाते। इस दृश्टि से वे आलसी हो जाते है। उनकी व्यहारिक जीवन नीरस हो जाता है वे अपने माता पिता, रिश्तेदार और दोस्तों से निकट का अपनत्व भरा सम्बन्ध नहीं रख पाते। यही कारण है कि वे संकट की घडी में धैर्य नही रख पाते। उन्हे समझ में नहीं आता कि वे किस कन्धें पर सर रखकर आगे बढ़ने का साहस प्राप्त करे। इन्ही क्षणों में वे अपने आसपास अन्धकार पाते है और आत्महत्या करने को प्रवृत हो जाते है। कभी कभी इसका उलटा भी हो जाता है। बच्चे असामाजिक प्रवृति के कारण हिंसक हो जाते है।
और भी बडा खतरा - इन सब खतरों से बड़ा एक खतरा है। मान लीजिए जैसा उपर वर्णन किया है वैसा कुछ नहीं होता। हम सब खतरों से निकल कर लक्ष्य पा लेते है। हमे लाखो नहीं करोड़ों का आफर मिल जाता है तब कम्पनी हमारे स्वास्थ्य परीक्षण पर हमें रोक सकती है। आजकल लाखों रू खर्च करने वाली कम्पनिया नियुक्ति के पूर्व कड़ा व गहराई का स्वास्थ्य परीक्षण कराती है क्योकि वह आप से नियुक्ति के बाद निरन्तर कार्य चाहती है। यदि नियुक्ति के बाद इम्प्लाईज़ बार बार बीमार हो तो उसे अवकाश देना पड़ेगा जिससे कम्पनी के उत्पादन तो कम होगा ही कम्पनी के अन्य कर्मचारियों पर भी गलत प्रभाव पडेगा । इसलिए हर कम्पनी चाहती है कि इम्प्लाईज़ नियुक्ति के समय पूर्णरूप से फिट रहे ।
यदि हम तनावग्रस्त रहे, फिजिकल एक्सरसाइज न की और श्रम के प्रति हमारी उदासीनता रही तो हम कितने ही अच्छे अंक ले आए हमें कोई न कोई बीमारी हो सकती है। आजकल उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, माइग्रेन जैसी बीमारी युवाओं को भी आमतौर पर देखी गई। बीमारियों का सम्बन्ध मन से भी है अतः शिक्षा के मध्य आधुनिक जीवन शैली के नाम पर केवल पढ़ाकु मत बनिए अन्यथा अन्त में सारा श्रम व्यर्थ चला जाएगा।
सत्यनारायण भटनागर
सद्विचार !
ReplyDeleteसही विषय उठाया है
ReplyDeleteआपकी बात बिल्कुल सटीक है। ज़रूरत है कि माँ-बाप भी आत्ममंधन करें और समझे कि कहाँ ग़लती हो रही हैं।
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