
भारतीय संस्कृति में माँ का बड़ा उँचा और प्यारा स्थान है। यह एक ऐसा सम्बन्ध है जिसके आस पास बाकी सारे रिश्ते रहते है। पिता का रिश्ता भी माँ के बाद आता है, कहते है माता-पिता। माँ का बड़ा विराट रूप है हमारे शास्त्रों में, इसलिए वह सर्वाधिक पूजनीय है। माँ हरेक वस्तु में हमें दिखाई देती है। हमारे देश में गंगा व नर्मदा नदी भी माँ है। ये नदियाँ जीवन दायनी है। पृथ्वी भी माँ है। पृथ्वी माँ की गोद में हम खेलते कूदते बड़े होते है। हमारे लिए अन्न भी माँ है। हम आज भी ज्वार माता कहते है। अन्न हमें जीवन देता है। भारत वर्ष हमारा देश है लेकिन वह भी भारत माता के रूप में हमारा है।
माँ प्यार का तो प्रतीक है ही, वह सृजनकारी भी है, वह हमें बनाती है। संस्कार देती है। माँ बनना एक तपस्या है। माँ के रूप में हम अनेक गुणों की पूजा करते है। माँ बनने का बड़ा लम्बा रास्ता है। हम प्रत्येक प्यार भरे रिश्ते को जो हमारा मार्गदर्शन करें, हमें संस्कार दे, दुलार दे तथा डाँट फटकार भी दे उसे माँ के रूप में देखते है। माँ बनना एक गौरव है। माँ बनना त्याग और तपस्या की एक कहानी है। वैसा त्याग कोई और कर ही नहीं सकता। इसलिए पिता को माँ के बाद याद किया जाता है।
माँ हर रूप में हमारी रक्षक होती है। वेदव्यासजी महाभारत के शान्तिपर्व में कहते है, ’पुत्र असमर्थ हो या समर्थ, दुर्बल हो या हष्ट-पुष्ट, माता उसका पालन करती है। माता के सिवा कोई दूसरा विधिपूर्वक पुत्र का पालन नहीं कर सकता।’ माता के रहते पुत्र पर बुढ़ापा नहीं आता। माँ का नाम पुकारते हुए जो घर में जाता है। वह आनन्द पाता है। माता दस दस पिताओं से भी बड़ी कही गई है। वेदव्यासजी अनुशासन पर्व में कहते है, ’माता अपने गौरव से पृथ्वी को भी तिरस्कृत कर देती है। अतः माता के समान कोई दूसरा गुरू नहीं है।’
प्रत्येक महिला माता का रूप है। गुरू पत्नी, राजपत्नी, देव पत्नी, पुत्र वधु, माता की बहिन, पिता की बहिन, शिष्य पत्नी, भृत्य पत्नी, मामी, माता और विमाता, भाभी ,सास, बेटी, इष्ट देवी ऐसी सोलह माताओं का वर्णन हमारे शास्त्रों में मिलता है। कहते है कि कुपुत्र तो जन्म ले सकता है पर माता कभी कुमाता नहीं होती।
कहाँ गई वह प्यारी माँ - आज पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में वह ममतामयी माँ कही दिखाई नहीं देती। हमारे सिनेमा, टेलीविजन और प्रचार माध्यमों में नारी का जो रूप दिखाई दे रहा है, उससे नाचती गाती, इठलाती, बलखाती जो नारी दिखाई देती है, उसमें माँ गायब है। स्त्री के माँ के रूप को याद ही नहीं किया जाता। आधुनिकता के नाम पर नारी के एक ऐसे रूप को दिखाया जाता है जो उपभोग की वस्तु है। यह इसलिए किया जाता है कि माँ का जो प्राचीन रूप हमारे हृदय पटल पर अंकित है, उसे गा बजाकर नचाया नहीं जा सकता। उसके द्वारा किसी को रिझाया नहीं जा सकता। वह उपभोक्ता वस्तुओं की सेल्समेन नहीं हो सकती।
माँ के रूप में नैतिकता का पाठ होता है। जीवन मूल्य होते है, वह बाजार के उपयोग की वस्तु नहीं हो सकती। इसलिए उसे ’बाजार’ से बाहर कर दिया गया है।
हमारे कथानक - हमारे चलचित्रों और टेलीविजन में भी जो कथानक दिखाए जा रहे है, उसमें पत्नी है, प्रेमिका है, नायिका है, खलनायिका है, नारी के रूप में माँ नहीं है। माँ बाजार में नहीं मिलती। वह बदली नहीं जा सकती। उसके साथ मर्यादा है। पत्नी को तलाक दिया जा सकता है, पत्नी दूसरी लाई जा सकती है। इसलिए सब पात्रों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाएगा। माँ गौण रहेगी। माँ का क्या उपयोग? वह आर्कषण की वस्तु नहीं है।
पत्नी के आने के बाद माँ का रूप तो नहीं बदलता पर बेटे का रूप बदलता है। बदलना ही चाहिए। बेटे पर नए दायित्व जो आते है। लेकिन माँ का महत्व कम नहीं होता। बेटा माँ से डरता नहीं है। माँ से प्यार ही मिलता रहा है। माँ नाम ही प्यार का है, माँ से डरना कैसा? इसलिए माँ की उपेक्षा हो सकती। हमें याद रखना चाहिए कि हम शीतला माता से डरते है। उसका व्रत रखते है, पूजा करते है, पर अपनी माता से हम नहीं डरते। उसके साथ उदण्ड व्यवहार भी करते है किन्तु वह कुछ नहीं कहती। वह माँ है सहना जानती है। लेकिन हम शीतला माँ से डरते है। वह दण्ड दे सकती है। क्या यह हमारी नैतिक कमजोरी है। एक विचारणीय प्रश्न है।
आधुनिकता के नाम पर - माँ को पश्चिमी सभ्यता के नाम पर मंच से हटा दिया गया है। वह बाजार के खरीदने, बेचने वाले माल के लिए उपयोगी नही है। इसमें न आधुनिकता का प्रश्न है और न पश्चिमी सभ्यता का। यह पूँजीवादी खेल है। माँ धनतंत्र के प्रोत्साहन के लिए उपयोगी नहीं है। यही है भारतीय संस्कृति को बिगाडने का खेल जो नारी स्वतंत्रता के नाम पर खेला जा रहा है। भारतीय संस्कृति में माँ पूज्य है। पवित्र ग्रन्थ कुरान शरीफ में कहा गया है कि माँ के तलवे के नीचे स्वर्ग का वास है। माँ के इस गौरवशाली रूप से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ’गोदान’ में कहते है, ’नारी केवल माता है और इसके उपरान्त वह जो कुछ है वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूगा। जीवन का, व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी’
माँ हमारे लिए प्रेरणा का केन्द्र है। वह प्यार का, दुलार का हाथ है। उसे भूलना, उसका तिरस्कार करना एक भीषण भूल है और आधुनिकता के मायाजाल में हम यही कर रहे है। आज जो पत्नी, प्रेयसी है, कल उसे भी इसी रूप को धारण करना है। अतः यौवन के उफान में हमें इस सच्चाई को भूलना नहीं है। बाजार के लिए तड़क, भड़क, आर्कषण,लावण्यभरी नारी की आवश्यकता तो समझ में आती है पर उसे अर्धनग्न करने, उदण्ड बनाने की क्या आवश्यकता है? यह समझ में नहीं आता। नारी की शक्ति, उसकी गरिमा, उसका गौरव माँ के रूप में है। उसे भटका कर न समाज को कुछ मिलेगा और न नारी का सम्मान बना रहेगा। इसलिए सबकुछ कीजिए, कुछ भी दिखाईए पर माँ के सम्मान का ध्यान रखिए। अन्यथा बाद मे पछताना ही पछताना रह जाएगा।
नवरात्री के नो दिन हम माँ के आँगन में खूब नाचे गाँए, धुम धड़का किया, पूजा अर्चना की आनन्द मनाया, प्रार्थना की किन्तु क्या अपनी माँ का स्मरण उसी रूप में किया। हमारी माँ भी शक्ति का रूप है। उसका भी प्यार भरा आदर सम्मान हृदय से होना चाहिए। केवल नो दिन नहीं, प्रतिदिन प्रतिक्षण, तब प्रेम का आर्शीवाद रूपी हाथ अनजाने ही हमारे सिर पर होगा। याद रखिए माँ देवी है। शक्ति है, प्यार का दीपक है। इसे निरन्तर जलते रहना है। इसके प्रकाश में ही हम सभी को कार्यरत रहना है। भगवान ने माँ बनाई ही इसलिए कि हम देख सके कि भगवान कैसा है? भगवान हमें कैसे प्यार करता है। माँ सब जानती है। हमारे हृदय के हर संवेदन का उसे आभास होता है। उसे धोखा नहीं दिया जा सकता। माँ के इस गौरवशाली रूप को भूलिए मत।
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