Tuesday, October 6, 2009

हड़कू के मन में क्या है? (कहानी)


उनकी छुटकी-सी बिटिया लगभग बेसुध पड़ी है। हड़कू और मंगलिया को ओझा ने उपाय सुझाया है, पर हड़कू क्यों मना कर रही है?


हल्दुआ ग्राम में जब सूरज की किरण पड़ती है तो दूर-दूर फैले झोपड़े दिखाई देने लगते हैं मानो वे खेत में उग आए हों। रात के अंधेरे में यहां कुछ भी दिखाई नहीं देता। पूरे गांव में जब कुत्ते के भौंकने की आवाज़ सुनाई देती है, तो लगता है कुछ हलचल हुई है। अन्यथा पूरा गांव सोया-सा लगता है। झोपड़े दूर-दूर हैं, पर हैं एक-दूसरे से संबंधित। सब जानते हैं एक-दूसरे की आवाज़।

गांव सोया हुआ था। एक झोपड़े में आग तापते बैठे थे मंगलिया और उसकी पत्नी हड़कू। हड़कू और मंगलिया इसी गांव के निवासी हैं। यहीं पैदा हुए। यहीं की मिट्टी में खेले-कूदे और फिर कुछ ऐसा हुआ कि पति-पत्नी बन गए।

मंगलिया चिंतित था। उसकी दो माह की बेटी रोए जा रही थी। मां हड़कू परेशान थी। बेटी दूध ही नहीं पी रही थी। पता नहीं क्या हो गया? किसकी नज़र लगी? अभी कल तक तो खूब हलचल करती हाथ-पैर हिलाती, मुस्कराती थी। जब उसे भूख लगती, बस तभी रोती।

मंगलिया और हड़कू दोनों सड़क निर्माण कार्य में रोज़गार पाए हुए थे। दिन भर सड़क पर मिट्टी-पत्थर डालते, शाम ढले आ जाते झोपड़े पर। बेटी सोई रहती। कभी परेशान नहीं किया उसने। आज पता नहीं क्या हो गया। दोनों चिंतामग्न बैठे थे।

मंगलिया ने कहा ‘हड़कू, कल सुबह-सुबह चलते हैं शहर। वहां डॉक्टर को दिखाते हैं। हालत तो अच्छी नहीं है।’ हड़कू चिंता में पड़ी थी। बोली, ‘क्या होगा शहर ले जाने से? कितनी दूर है यहां से। फिर वहां बहुत खर्च है। वहां जाने पर रोज़गारी भी नहीं मिलेगी। भगवान ने चाहा, तो बेटी ठीक हो जाएगी। तुम ओझा को बुला लाओ। वही ठीक कर देगा।’

मंगलिया को लगा ठीक ही कहती है हड़कू। शहर है दूर-दूर तक फैला, न जान, न पहचान। शहर की जान-पहचान होती है पैसा। वहां सब दूर तो पैसा लगता है। जाना तो सचमुच मुश्किल है। उसे हड़कू की बात समझ में आ गई। दोनों आग तापते-तापते सो गए।

सुबह अभी आई नहीं थी। अंधकार बाहें फैलाए पड़ा था। मंगलिया उठा और चल दिया अंधकार को चीरता ओझा के झोपड़े की ओर। उसकी इस हलचल से गांव के कुत्ते भौंकने लगे। गांव जाग गया। सब देखने लगे क्या गड़बड़ है। मंगलिया पहुंच गया था ओझा विश्वासी के खेत पर। उसने खेत की मेड़ पर खड़े हो, दोनों हाथ मुंह पर रख विश्वासी को आवाज़ लगाई। विश्वासी आवाज़ पहचान गया। झोपड़े के बाहर आया और पूछा, ‘क्या बात है मंगलिया?’

मंगलिया ने वहीं से कहा-‘ओझा भाई! बेटी बीमार है जल्दी चलो।’ मंगलिया की आवाज़ गूंज गई गांव भर में। गांव जान गया इस समाचार को। लोग उठ कर चल दिए मंगलिया के झोपड़े की ओर। सूरज अब दिखाई देने लगा था। खेत रोशनी से भर रहे थे। पगडंडी पर लोग मंगलिया के घर जाते दिखाई दिए। मंगलिया की बेटी नहीं, गांव की बेटी बीमार हो गई थी। सबको चिंता हो गई। मंगलिया के झोपड़े के आसपास गांव एकत्र हो गया था।

ओझा आया। उसने बेटी को देखा। दो माह की बेटी निस्तेज पड़ी थी। सांस धीमी चल रही थी। कोई हलचल नहीं हुई। ओझा ने मंत्र पढ़ा। कुछ चावल फेंके पर कोई हलचल नहीं हुई। ओझा लगातार कुछ बुदबुदा रहा था। आसमान को ताक रहा था, मानो पुकार रहा हो किसी को।

थोड़ी देर यह सब कर वह बोला, ‘यह तो गड़बड़ मामला है कोई हवा लगी है। किसी की बुरी नज़र लग गई है। इसमें तो बहुत खर्चा होगा?’ मंगलिया ने पूछा- ‘बहुत याने कितना?’

ओझा बोला,‘कम से कम तीन हजार।’ उपस्थित लोगों में हलचल मच गई। बेचारा मंगलिया इतना कहां से लाएगा। इतना धन होता, तो शहर नहीं ले जाता। मंगलिया मौन रहा। मौन ही उसका उत्तर था। ओझा ने हलचल सुनी। वह समझ गया कि मांग कुछ ज्यादा हो गई।

बोला, ‘मामला ऐसा ही है फिर भी मंगलिया की हालत देखकर कुछ कम खर्चा करूंगा। गांव वाले मदद करें। गांव की बेटी का सवाल है।’ मंगलिया हाथ जोड़े बोला,‘ओझा भाई, सड़क की मजदूरी कर काम चला रहा हूं। अभी खेत भी खाली है आपको मैंने कष्ट दिया। आप क्षमा करना।’ ओझा ने सुना, समझ में आया कि उससे गलती हो गई।

वह समझ रहा था कि गांव वाले मिलजुलकर कुछ करेंगे। दया का समुद्र उमड़ेगा और उसकी आज की सुबह मंगलमय हो जाएगी। उसने मंगलिया को हाथ-जोड़कर क्षमा मांगते देखा, तो पैंतरा बदला। बोला, ‘यह सच है कि तुम इतना न कर पाओगे।

ऐसा करो कि बकरी का एक मेमना ही दे दो, तो मैं ऐसा करूंगा कि यह संकट टल जाए। इससे कम में तो कुछ हो ही नहीं सकता।’ मंगलिया के पास तो मेमना भी न था। उसने फिर हाथ जोड़कर कहा-‘ओझा भाई! मेरे पास तो मेमना भी नहीं है। मैं क्या करूं?’

उसकी आवाज़ में निराशा थी। वह बुझ-सा गया था। मां हड़कू बार-बार बेटी की ओर देख रही थी। बेटी निढाल पड़ी थी। सांस धीमे-धीमे चल रही थी। कोई हलचल नहीं थी। वह ओझा की बात सुन रही थी। पति मंगलिया की बेबसी देख रही थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे, तभी उसे उसके भाई बुधरिया का स्वर सुनाई दिया, ‘ओझा भाई! मेरे पास है मेमना, मैं दे दूंगा। आप बलि की जो क्रिया करना हो, करो। ’

यह स्वर जादू भरा था। गांव वालों में हर्ष छा गया। चलो, गांव की बेटी के लिए कुछ हुआ। अब शायद बच जाए बेटी। मंगलिया के चेहरे पर संतोष झलक रहा था। वह शांत था। तभी हड़कू बोली, ‘मैं अभी तैयार नहीं हूं। ओझा भाई, आप कल आना। मैं आज सोचूंगी।’ उसने स्नेहपूर्ण नज़रों से बुधरिया को देखा। ओझा को बुरा लगा। बना-बनाया खेल बिगड़ गया। बोला, ‘ठीक है जैसी इच्छा। हड़कू को जब अपनी बेटी की चिंता नहीं तो मैं क्या करूं?’

गांव वाले सब चर्चामग्न थे। क्या हो गया? क्यों मना कर दिया हड़कू ने? पता नहीं हड़कू के मन में क्या है। कल क्या होगा? क्या हड़कू तैयार होगी या मना कर देगी। पुरुषों का मत था कि हड़कू ने गलती कर दी। अपनी बेटी की जान बचाने के लिए एक क्या, ऐसी कई बलि दी जा सकती हैं। गांव की महिलाएं चुप थीं। वे समझ रही थीं हड़कू की पीड़ा। पर चुप थीं। कल पता चल ही जाएगा। अगले दिन सुबह ओझा स्नान ध्यान कर तिलक लगाए तैयारी से उपस्थित हुआ। बुधरिया मेमने को गोद में उठाए ले आया। ओझा ने कंकू -चावल मेमने पर मंत्र पढ़कर डाले और बोला, ‘मंगलिया और हड़कू अपने दोनों हाथ मेमने पर रखकर बोलो,  मेमना हमने बेटी की जान के खातिर ओझा को भेंट दिया।’

हड़कू बोली, ‘ओझा भाई! ऐसा नहीं होगा। जैसी मेरी बेटी, वैसी ही बकरी के लिए यह मेमना है। मैं मां हूं,  मैं जानती हूं संतान की मृत्यु का दुख क्या होता है। इस मेमने की बलि से बकरी को जो हृदय विदारक पीड़ा होगी, वह मैं जानती हूं। मैं अपनी बेटी के लिए मेमने की जान नहीं जाने दूंगी। मेरी बेटी जाए या रहे- यह भगवान की इच्छा है। मैं मेमने की बलि नहीं होने दूंगी। आप सब मुझे क्षमा करें।

सब सुनकर स्तब्ध रह गए। एक मां की वाणी में संतान का दर्द समाया हुआ था। हड़कू आंख बंद कर प्रार्थना में रत थी। मेमना उछल-कूदकर आनंद मना रहा था।

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