Friday, October 16, 2009

रसोईघर है जीवन दर्शन की प्रयोगशाला


पिछले दिनों मैं मुंबई गया तो वहां मुझे अपनी भतीजी मिली। वह इंजीनियरिंग कर रही है। मैंने उसे चाय बनाकर लाने को कहा। वह बोली, चाय बनाना तो मैं नहीं जानती। मैं आश्चर्यचकित रह गया। जो चाय बनाना न जानता हो, उससे भोजन के संबंध में बात करना ही व्यर्थ है।

आजकल हम परिवार में रसोईघर के काम को बहुत कम महत्व देते हैं। हमारा सारा ध्यान पढ़ने, लिखने और करियर बनाने की ओर होता है। अच्छा भोजन तो बना-बनाया भी मिल जाता है- एक फोन करो, घर-दफ्तर जहां चाहो गरमा-गरम टिफिन उपस्थित। डिब्बाबंद भोजन भी उपलब्ध है, खोलो, गरम करो और खाओ। फिर दुनियाभर के कष्ट उठाकर किचन में समय बर्बाद करने का क्या अर्थ है?

असल में गृहस्थ आश्रम में रसोईघर है जीवन दर्शन की प्रयोगशाला। हमारी भारतीय संस्कृति में रसोई को बहुत महत्व दिया गया है। क्या खाना चाहिए, कैसा खाना चाहिए, किस विधि से पकाना चाहिए। रसोई की सफाई पर अत्यधिक बल दिया जाता था। यह सब अकारण नहीं है।

हमारे स्वास्थ्य पर भोजन का शत प्रतिशत प्रभाव पड़ता है। हमारे ऋषि मुनियों ने इसीलिए अन्न को ब्रह्मा कहा है। गीता में भोजन के सात्विक, राजस और तामस जैसे भेद किए गए हैं। तामस भोजन जिसे हम फास्ट फूड कहते हैं, गीता के अनुसार आलस और नींद लाता है। यह हमारी कार्य क्षमता को घटाता है। हमारे उत्साह, उमंग और प्रसन्नता में बाधक बनता है।

भोजन पकाने की जो एकाग्रता है, वह मन के तनाव को समाप्त करती है और हमें धैर्यवान बनाती है। यह एक ऐसी गतिविधि है जो तत्काल फल और संतुष्टि देती है। भोजन पकाने का काम प्रबंधन के गुर सिखाता है -आधुनिक प्रबंधन के गुर। इसीलिए वह परिवार को बांध कर रखता है।

गृहस्थ आश्रम में बच्चे प्रेम, त्याग, सहयोग, अपनत्व के गुण सीखते हैं। इस आश्रम में से आप यदि रसोई के केन्द्र को हटा दीजिए तो वह आश्रम वाली परिभाषा खो देगा। आश्रम शब्द में ही श्रम निहित है। बिना श्रम किए भोजन का भोग करना प्रकृति के विरुद्ध है।

गृहस्थ आश्रम एक तपस्या है। रसोईघर उसका केन्द्र है। भोजनशाला जीवन की वास्तविक शाला है, जहां जीवन का दर्शन तैयार होता है। यह दर्शन परिवार को साथ-साथ रहने, एक-दूसरे के लिए त्याग करने, एक-दूसरे की पसंद-नापसंद जानने और साथ सुख-दुख भोगने की शिक्षा देता है। यह दर्शन जीवन जीने की कला सिखाता है।

भोजन शास्त्र में अतिथि, पशु, कुत्ता, गाय आदि का भी भाग है जो हमें प्रकृति से जोड़ता है। यह हमें परोपकार रूपी यज्ञ की प्रेरण देता है। यह ईश्वर की याद दिलाता है और जीवन को यज्ञ बनाता है। भोजन का दर्शन, हमारे जीवन दर्शन का सहज और सगुण रूप है।

आप विचार कीजिए, इस भोजन और स्वास्थ्य को लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अनेक प्रयोग क्यों किए। स्वाद पर नियंत्रण उन्होंने अध्यात्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण बताया। हमारे प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद और पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री अपनी धर्मपत्नी द्वारा तैयार भोजन ही करते रहे। भोजन का आनंद ताजे और हल्के भोजन में है। इस बात को आज के प्रसिद्ध व सफल कुश्तीबाज खली भी स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि वह घर में पत्नी के हाथ का बनाया भोजन ही करते हैं, होटल में भोजन नहीं करते।

हमारे देश में यह भ्रम पाया जाता है कि भोजन पकाना सिर्फ महिलाओं का काम है। महाभारत काल में जब पांडवों को अज्ञातवास में समय व्यतीत करना पड़ा तब ध्यान दीजिए, रसोइए का काम भीम ने ही संपन्न किया, द्रौपदी ने नहीं।

राजा नल के विवाह के पहले देवता उनसे प्रसन्न होकर वर देते हैं कि वह अच्छे पाकशास्त्री होंगे। एक राजा का पाकशास्त्र से क्या संबंध हो सकता है? विचार कीजिए। इस वर का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को भोजन जैसे शास्त्र का ज्ञान होना चाहिए। भगवान कृष्ण के समय जो 64 कलाएं शिक्षा में दी जाती थीं, उसमें भोजन पकाना शामिल था।

1 comment:

  1. बहुत सही कह रहे हैं आप..मैं भी अपनी भतीजी के यहाँ ही ऐसी स्थिति से दो चार हो चुका हूँ. क्या कहा जाये.

    सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
    दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
    खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
    दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

    -समीर लाल ’समीर’

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