Sunday, October 25, 2009

अपनों को धन्यवाद अवश्य दीजिए


श्री छोटेलाल जी मेरे निकट पड़ौसी है और मेरे एकांकी जीवन में हमेशा सहयोगी रहे है। अभी एक दिन मैने उनसे कहा, ’ मुझे सुबह पांच बजे उठ कर यात्रा पर जाना है। क्या आप मुझे उठाने के लिए सुबह टेलीफोन की घण्टी बजा देंगे ? उन्होने हां भरी और ठीक समय पर टेलीफोन की घंटी बज उठी। मैं बिस्तर से उठा, तैयार हुआ और यात्रा पर चल दिया। यात्रा से वापस आने पर मैने उन्हे धन्यवाद दिया। कहा, ’’ आपके सहयोग के द्वारा यात्रा आनन्दमय रही। ’’ जब मैने उन्हे धन्यवाद दिया तो वे बोले, ’’ में टेलीफोन करने के बाद इंतजार करता रहा कि आप जवाब देंगे ,पर आपकी ओर से उत्तर न पाने पर मैं कुछ समझ नहीं पाया।’’ तब मुझे अनुभव हुआ कि मुझे तत्काल धन्यवाद देना था। मुझसे भूल हुई। जब मैने अपने पडौसी को धन्यवाद कहा तो उनके चेहरे पर प्रसन्नता और संतोष का भाव था। जब भी कोई हम पर उपकार करता है तो हमें एक धन्यवाद का स्वर हृदय से देना ही चाहिए। इसमें कंजूसी कैसी?

यह दुनिया एक दूसरे की सहायता से चलती है। कुछ लोग हमें सहायता देते है, कुछ लोगों को हम सहायता देते है। अपनी अपनी परिस्थिति और योग्यता के अनुसार सहायता का आदान प्रदान चलता रहता है। यह संभव ही नहीं है कि हम बिना किसी सहायता के अपने सभी काम सम्पन्न कर लें। होता यह है कि जब भी कोई अनजान व्यक्ति हमारी सहायता करता है तो हम तत्काल भाव विभोर हो उसे धन्यवाद देते है। उसकी सहायता को हम विस्मृत नहीं करते। सबसे कहते सुनते है पर जब कोई हमारा अपना सहायता प्रदान करता है तो हम मौन रहते है सोचते है यह तो उसका कर्तव्य था। उसने कर्तव्य निर्वाह किया, इसमें कैसा धन्यवाद !

अपनो को भी दे धन्यवाद - यह सही है कि अपनों को शाब्दिक धन्यवाद देने में संकोच होता है। उनकी सहायता स्वभाविक होती है, वे हमसे धन्यवाद की आशा नहीं रखते है। हमारे शरीर के संकेत तो आभार व्यक्त कर सकते है। हमें अपने निकटतस्थ व्यक्तियों का भी हृदय से धन्यवाद ज्ञापन करना चाहिए। धन्यवाद शब्दों से ही नहीं कार्यो से भी दिया जा सकता है। जब भी अवसर मिले हमें अपने कर्तव्य का पालन उचित रीति से कर धन्यवाद देना चाहिए।

हमारे माता-पिता ,पत्नी, पति, भाई ,बहन और अन्य सम्बन्धी हमारे दिन रात कुछ न कुछ करते है। क्या हम उनके उपकारों का ध्यान रखते है ? क्या हम हृदय से उनके आभारी रहते है? मेरा अनुभव है नहीं । अवसर मिलते ही सुनने को मिलता है ’ उन्होने हमारे लिए क्या किया ? जो कुछ उन्होने किया, वह तो उनका कर्तव्य था। सब करते है। हम भी अपने बच्चों के लिए करेंगे। उन्होने कोई एहसान नहीं किया ।’ यह भाव यह बताते है कि हम अपनों को उपकार मानते ही नहीं। जबकि अन्य लोगों के द्वारा छोटे से छोटा किया गया उपकार हमें याद रहता है। यहां तक कि रिश्वत खौर बाबू भी हमसे धन लेकर हमारा जो काम करता है हम उसका भी आभार मानते है पर पडौसी की निस्वार्थ सेवा पर धन्यवाद देना भूल जाते है। अपनों को भी धन्यवाद दे। उन्होने निस्वार्थ भाव से कर्तव्य पूर्ण किये यह क्या कम है। यदि वे अपने कर्तव्य न करंे तब क्या होगा ।

हम अपने निकट संबंधियों को ही नहीं भगवान तक को याद नहीं रखते। भगवान ने भी इस संसार की रचना में हमें अपार आनन्द की सामग्री दी है। ये सूरज, चांद और तारे, ये हवाएं, ये प्रकृति के सुन्दर दृश्य, मौसम, शानदार शरीर ये सब हमारे लिए है। यदि हम न हो तो इन सबका क्या उपयोग ? इसलिए नव विधान में कहा गया है ’ सब बातों के लिए परमात्मा को धन्यवाद दो। इसी तरह व्यक्तित्व विकास के लिए प्रसिद्ध चिन्तक श्री डेल कानगी कहते है ’ जिन बातों के लिए आप कृतज्ञ है उन्ही के विषय में सोचिए और उपलब्ध ऐश्वर्य तथा वैभव के लिए भगवान को धन्यवाद दीजिए ।

होता यह है कि सब कुछ हमारे अनुकूल होते है तो हम प्रसन्न होते है। मौन रहते है, धन्यवाद नहीं देते किन्तु जैसे ही हमारे प्रतिकूल कुछ घटित होता है हम क्रोध से उबल जाते है। दोषारोपण करते है, ध्यान रहे हम सब मानते है कि हमारी कोई भी असफलता, प्रतिकूलता का कारण हम नहीं है, कोई और है। हम हमेशा बहाने बनाकर दोषारोपण करते है और असफलता और अनुकूलता के समय हम दूसरों के उपकारों को भूल जाते है।

अतः अपने ऊपर किये गये छोटे से छोटे उपकार को स्मरण रखिये। धन्यवाद दीजिए और अवसर आने पर वैसी ही सेवा देकर आनन्द दीजिए। यह संसार एक दूसरे की सहायता से ही चलता है। इस संबंध में नीतिशास्त्र के रचियता तिरूवल्लुवर के इस कथन पर ध्यान दीजिए ’ तृणतुल्य भी उपकार क्यों न हो उसके फल को समझने वाले उसको ताड़ के समान मानेंगे। ’

भलाई करना हमारा धर्म है। इसी प्रकार प्रत्युत्तर में धन्यवाद देना, आभार मानना भी हमारा स्वभाव है, कर्तव्य है, यदि हम इस कर्तव्य को पूर्ण नहीं कर पायेंगे तो कल जब हम पुनः किसी से सहायता चाहेंगे तो हमें सहायता नहीं मिलेगी। यह ईशवरीय नियम है। हमें यह सोचना चाहिए कि जितना उपकार हमारा हुआ है उससे अधिक उपकार हमें करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। महाभारत में वेदव्यासजी कहते है ’ दूसरा मनुष्य जितना उपकार करें उससे कई गुना अधिक प्रत्युतर स्वयं उसके प्रति करना चाहिए ।

धन्यवाद की आशा मत कीजिए - भलाई करना हमारा स्वभाव है। धर्म है, अतः हमें जब भी अवसर मिले हम प्राणी मात्र के प्रति उपकार करें। यह हमारी आदत होना चाहिए क्योकि हमें आभार या धन्यवाद की आशा नहीं करना चाहिए क्योकि मानव स्वभाव आभार मानने को सदा तत्पर नहीं होता । धन्यवाद का इन्तजार मत कीजिए अन्यथा आपको, हमको निराश होना पडेगा। अमेरीकी लेखक और वक्ता डेल कार्निगी कहते है ’ उपकारों का भूलना मनुष्य का स्वभाव है। अतः यदि हम दूसरों से कृतज्ञता की आशा करेंगे तो व्यर्थ ही सरदर्द मोल लेना पडेगा ।’

इसलिए सबसे उत्तम मार्ग है कि हम तृण मात्र भलाई के लिए तत्काल धन्यवाद करें और जब भी अवसर मिलें सब भलाई करने को तत्पर रहें । विशेष बात यह है कि इसमें अपनों को भी याद रखें और उन्हे भी धन्यवाद दे।

4 comments:

  1. होता यह है कि सब कुछ हमारे अनुकूल होते है तो हम प्रसन्न होते है। मौन रहते है, धन्यवाद नहीं देते किन्तु जैसे ही हमारे प्रतिकूल कुछ घटित होता है हम क्रोध से उबल जाते है।
    sahi kaha insaani fitrat bahit ajeeb hai.
    magar hame hamesha dusron ko dhanyawad karna chahiye,ekdam sahi.bahut hi umda lekh.

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  2. बहुत सुन्dदर सार्थक परामर्श है। हमने तो याद कर लिया । धन्यवाद

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  3. Chote Lal ji jaise bade dil vale bade bhagya se milte hain ...Badhai

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  4. उत्तम सलाह..आभार!!

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