जीवन में सुख शान्ति और आनन्द के साथ सफलता का मार्ग दुनिया भर में खोजा गया है। हर धर्म में यह प्रयत्न हुआ है और मार्ग खोजने में प्रक्रियागत विविधता चाहे जितनी रही हो किन्तु हम गहराई से विचार करें तो पाते है कि अन्तिम मंजिल एक ही है। श्रीमद्भभगवद् गीता में इस मार्ग के लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग जैसे मार्ग सुझाए है किन्तु अन्त में वे सब पहुँचाते है ईश्वर के पास जहाँ सुख शान्ति और आनन्द है। इन मार्गो पर चलने वाले राही के लिए निष्काम भाव से कर्म करना एक अनिवार्य शर्त है। हमारे कर्म कामना रहित, स्वार्थरहित होना चाहिए। श्रीमद् भगवद् गीता यज्ञमय जीवन जिने का सन्देश देती है। यह संसार भगवान का ही रूप है। इसकी सेवा निस्वार्थ भाव से परोपकार के लिए करो, न नाम चाहो, न यश चाहो न धन चाहो और न पद चाहो। अपने कर्म ईश्वर अर्पण कर दो, यह सन्देश है गीता का।
आज के इस प्रतियोगिता के युग में क्या यह सन्देश व्यवहारिक है ? ऐसे सन्देश से सफलता कैसे प्राप्त होगी ? यह प्रश्न उठाया जाता रहा है। हमने कामनाओं और ईच्छाओं से भरे इस संसार में गला-काट प्रतियोगिता देखी है और अन्त में पाया है कि हम सुख शक्ति से कोसो दूर है। दुनिया के धर्म हमें भोगेच्छा से दूर ईश्वर सर्मपण का सन्देश देते है। तब यह विचार स्वभाविक ही उठता है कि ईश्वर कैसे हमें सुख शान्ति और सफलता दिला सकता है।
शायद यह प्रश्न गीता के अमर गायक भगवान कृष्ण जानते थे। इसलिए गीता में वे आश्वासन देते है कि यदि तुम अपने कर्म, कर्मफल मुझे समर्पित कर दोगे तो मैं तुम्हारा योग क्षैत्र का ध्यान रखूगा। देखिए कितना स्पष्ट आश्वासन है यह। भगवान कहते है ’ जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए, मेरी भली भांति उपासना करते है, मुझ में निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम ( अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्ति की रक्षा) मैं वहन करता हूँ ’ भगवान की उपासना जिसने अपने कर्मो द्वारा अनन्य भाव से की है उसे ही यह वचन है। दुनियावी लोभ, लालच और कामनाओं के मध्य आरती उतारते-गीत गाते, प्रसाद बाटते भक्त के लिए यह वचन नहीं है।
हिन्दू धर्म के साधु सन्त ही नहीं, इस्लाम और ईसाई धर्म के सन्तों ने भी समर्पण भाव से कर्म द्वारा ईश्वर की इस उपासना का ज्ञान वितरित किया है। इसे हम आस्था का स्वर कह सकते है। यह उपासना या आस्था कैसे काम करती है। इसे वैज्ञानिक तुला पर अभी तक तोला नहीं गया था किन्तु अब विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है कि ईश्वर की इस प्रकार उपासना व्यक्ति में बल पैदा कर देता है कि वह अपने मार्ग पर शिखर पर पहुँच जाता है।
इस समबन्ध में हम स्वामी विवेकानन्द का स्मरण कर सकते है जिन्होने निष्काम भाव से दुनिया में धर्म का डंका बजाकर सब धर्मालम्बियों में निष्काम भाव से सेवा करने की प्रेरणा उत्पन्न की। यह बहुत पूर्व का उदाहरण नहीं है।
हमारे अपने समय में मदर टेरेसा का उदाहरण भी हमारे सामने है जिन्होने निष्काम भाव से दीनो, दुखियों और असहायों के लिए सहायता का हाथ बढ़ाया, उनमें आशा की किरण जगाई, उन्हे प्रेम व सम्मान दिया और ऐसा करते हुए एक विराट आयोजन रच डाला। वे दुनिया के लिए एक उदाहरण बन गई। करोडो डालरों की सहायता के उपक्रम आज दुनिया में उनके नाम से उनके बताए मार्ग पर चल रहे है। उनका अपना व्यक्तिगत कुछ भी शेष नहीं रहा। आप इसे प्रभू ईसा का मार्ग कहें या कृष्ण का पर है वह एक मार्ग। भगवान कृष्ण ने जो गीता में वचन दिया है उसकी पूर्ति होती ही है। वह वचन पूर्ण होगा, शर्त केवल एक है कि हम अनन्य भाव से ईश्वर का चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से ईश्वर की उपासना करे।
इस सम्बन्ध में हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी याद करे। वे भगवद् गीता को माता कहते थे। जब भी उन्हे समस्या उत्पन्न हुई उन्होने गीता माता की गोद में सर रख दिया और उन्हे मार्ग मिल गया। वे मृत्यु पर्यन्त राम नाम का स्मरण करते रहे। ईश्वर के प्रति इस आस्था के सम्बन्ध में वे कहते है ’’आस्था तर्क से परे की चीज है जब चारों और अंधेरा ही दिखाई पड़ता है और मनुष्य की बुद्धि काम करना बन्द कर देती है उस समय आस्था की ज्योति प्रखर रूप से चमकती है और हमारे मदद में आती है’’
गांधीजी का अनुभव - पूज्य महात्मा गांधी ने जो कहा यह उनका अनुभव है। इसे वे कई बार आजमा चुके है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में उन्होने आस्था के इस चमत्कार को देखा है। उनका ईश्वर की शाक्ति पर पूर्ण विश्वास था। इसी ने उन्हे अन्तिम समय तक साथ दिया। भगवान अपना वचन निबाहते है इसे तर्क से तो सिद्ध नहीं किया जा सकता किन्तु इसका अनुभव लिया जा सकता है।
उदाहरण - गांधी ने छुआछुत के विरूद्ध युद्ध छेड दिया था। उन दिनों दलित जातियों के प्रति सवर्णो का भेदभाव प्रभावशाली था अतः कुछ उच्च वर्ग व व्यापारी वर्ग नाराज हो गया। साबरमती आश्रम को मिलने वाली आर्थिक सहायता बन्द हो गई। आश्रम संचालन में कठिनाईयों की आशंका हुई तब महादेव भाई ने गांधीजी को सुझाव दिया कि आश्रम की सहायता के लिए अपील निकाली जाए। गांधीजी ने इन्कार कर दिया कहा - इसकी आवश्यकता नहीं है। ईश्वर इसकी व्यवस्था करेगा। आश्चर्य उसी दिन एक सज्जन आश्रम आए और आश्रम के लिए दस हजार रूपए की सहायता दे गए। गांधीजी की ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा थी। एक बार गांधीजी मनु बहन के कन्धे पर हाथ रख चल रहे थे, कमजोरी के कारण वे लड़खडाए। मनु बहन को लगा कि गांधीजी गिर पडेंगे। सम्हलेंगे नहीं मनु बहन ने एक सहयोगी को आवाज दी, गांधीजी को सम्हाल लिया गया। बाद में गांधीजी ने मनु बहन से कहा- ’सहयोगी को आवाज लगाने के बजाय राम को पुकारा होता। संकट में राम ही मदद करता है’ गांधीजी की इतनी असीम आस्था थी ईश्वर के प्रति। गांधीजी की यह आस्था वे खुले में स्वीकार करते थे।
वैज्ञानिक सत्य है आस्था - अभी तक विज्ञान आस्था पर विश्वास नहीं करता था किन्तु अब विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है कि आस्था में शक्ति है इसलिए अपने लक्ष्यों को पा लेते है धर्म में विश्वास रखने वाले आस्थावान अपनी भावनाओं और व्यवहार पर काबू रख लेते है। वे अपने लक्ष्य को पाने के लिए लगातार प्रयास करते है और लक्ष्य को पा ही लेते है।
यूनिवर्सिटी आँफ मियामी के साइकोलाजी विभाग के प्रोफेसर मैककुलफ ने आठ दशकों तक धर्म पर अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला। वे कहते है कि जब लोग मानते है कि उनका लक्ष्य बहुत पवित्र है तो वे उसे प्राप्त करने में अधिक उर्जा लगाते है और उसके लिए कडे प्रयास करते है। धार्मिक गतिविधियां जैसे पूजा या प्रार्थना करने, ध्यान लगाने आदि का प्रभाव मानव मस्तिष्क के उस भाग पर पड़ता है जो स्वयं पर नियंत्रण के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है क्योकि वे मानते है कि भगवान उन्हे देख रहा है।
ईश्वर पर गहरी आस्था व्यक्ति को आत्मविश्वासी बना देती है। शक्ति प्रदान करती है और वह, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है जो वह पाना चाहता है। भगवान कृष्ण श्रीमद् भगवद् गीता के द्वारा यही सन्देश देते है। आस्था के स्वर हमें ईश भक्ति के लिए प्रेरणा देते है।
सही बात है। लेख ज्ञनवर्धक है।
ReplyDeleteभइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!
ईश्वर पर गहरी आस्था व्यक्ति को आत्मविश्वासी बना देती है .. बहुत अच्छा लगा आपका आलेख !!
ReplyDeleteबिलकुल सही बात है। आलेख बहुत ग्यानवर्द्धक और सार्थक है शुभकामनायें
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