मैं एक परिवार में मेहमान था । रात्रि के भोजन के बाद मैं बिस्तर पर विश्राम के लिए पहुँचा। थोड़ी देर बाद मुझे पास के कमरे से पति पत्नी के वाकयुद्ध के स्वर सुनाई दिए। ये स्वर बड़ी तीव्र गति से बढ़ रहे थे। थोड़ी देर बाद वे दोनो लड़ते हुए कमरे के बाहर आ गए। पत्नी ने पति को गाली दी। पति ने एक चांटा रसीद कर दिया। पत्नी ने पास में पड़ी झाडू उठा ली और झगड़ा बढ़ता जा रहा था। मैने पति को डांटा, वह चुपचाप चला गया। पत्नी सुबकते हुए मेरे पास बेठी। थोडी देर बाद वह उठी और वह भी चली गई फिर रात शान्ति से बीती।
इस जोडे को विवाहित हुए दस वर्ष हो गए है। दोनो उच्च शिक्षा प्राप्त है। दोनो अच्छा वेतन पाते है। सुख सुविधा के सब साधन है। एक पाँच वर्ष का बेटा है फिर भी यह ‘गृह युद्ध’ हुआ जो निश्चित ही अशोभनीय था। विशेषकर जब एक वृद्ध मेहमान ठहरा हुआ था किन्तु ऐसा पत्नी पति के बीच होता है। दूसरे दिन वे प्रसन्नचित्त काम पर गए। हमारे देश मे महिलाओं को घरेलु हिंसा के विरूद्ध एक अधिनियम बना हुआ है उस पत्नी ने उस अधिनियम का उपयोग नहीं किया।
घरेलु झगड़े स्वभाविक - हमारे देश में एक कहावत है कि जहाँ पाँच बरतन होगे वहाँ बरतनों की आवाज होगी। यह आवाज होना स्वभाविक ही है। इस पर चिन्ता का कारण नहीं है। इसे अपराध की कोटि में नहीं मानना चाहिए। देखिए क्रिकेट के मैदान में जहाँ हजारों दर्शक होते है खिलाडियों के बीच नोक झोंक होती ही है । अब उसकी शिकायते होने लगी है । इस सम्बन्ध में क्रेग मैकमिलन न्यूजीलैण्ड के पूर्व आलराउण्डर क्या कहते है ’’ क्रिकेट मैदान पर खिलाडियों के बीच थोडी कहासुनी और टिकाटिप्पणी पर प्रतिबन्ध लगाने से खेल का मजा ही खत्म हो जाएगा। खिलाडी रोबोट की तरह हो जाएगे और खेल मशीनी तंत्र का हिस्सा।’‘
पति-पत्नी के बीच भी ‘थोडी सी ’ कहासुनी ऐसी ही घटना है। उनकी कहासुनी प्रेम-अपनत्व की सूचक है। यदि यह न हो तो फिर परिवार का आनन्द ही समाप्त हो जाएगा। फिर तो पति-पत्नी मशीन की तरह मुस्कराते रहेगे। जिन्दादिल लोगो के बीच कुछ खटपट होना स्वभाविक है। एक शायर ने इसका क्या खूब वर्णन किया है।
‘बदजायका है शरबत, गर तुर्रषी न हो।
बिसाले यार में भी चाहिए तकरार थोडी सी।।
तुर्रषी कहते है खटाई को । यदि शरबत में खटाई न हो तो शरबत बेस्वाद होता है ऐसे ही प्रेम में यदि तकरार न हो तो वह प्रेम भी बेस्वाद हो जाएगा। सही है तब पति-पत्नी रोबोट की तरह मशीनी जिन्दगी जिएगे। लेकिन इसमें सब महत्व की बात है ‘थोडी सी ’।
बढ़ती हिंसा - यह ‘थोडी सी ’अब मर्यादा लांघ रही है। पति -पत्नी के झगडे अदालत तक जा रहे है। महिला एवं बाल कल्याण मंत्री रेणुका चैधरी ने लोक सभा में एक लिखित बयान में बताया कि सन् 2005 में घरेलु हिंसा के 102 मामले दर्ज हुए थे, वही 2007 में 364 मामले दर्ज हुए। ये मामले तीन गुना बढ़ गए। इन मामलों का अदालत तक जाना एक विचारणीय विषय है । वैसे इतने विशाल देश मे यह संख्या अधिक नहीं है पर इनकी संख्या में वृद्धि विचारणीय तो है ही। हमें यह निसंकोच स्वीकार करना चाहिए कि पश्चिम की सभ्यता के प्रभाव के कारण तथा उपभोक्तावाद के कारण ‘गृहस्थ आश्रम ’ अब नहीं रहा। संयुक्त परिवार बिखर गए और व्यक्तिवाद का विचार चल पड़ा है। इसी कारण भले ही घरेलु हिंसा के मामले विकराल रूप से सामने न आए हो किन्तु तलाक की प्रवृति बढ़ती जा रही है। पति-पत्नी में विष्वास के सम्बन्ध कमजोर हो गए है। एक दूसरे के प्रति संषय बढ़ता जा रहा है। पति-पत्नी आपस में हत्या तक करा रहे है। ये घटनाएं हमें चेतावनी देती है कि ये सम्बन्धों की कडी कमजोर हो रही है। इसके क्या कारण है उस पर विचार किया जाना समय की आवष्यकता है।
क्या है कारण - एक समय था जब स्त्री का पक्ष कमजोर माना जाता था। आज स्त्री पुरूष समानता को हम स्वीकार कर चुके है पर अभी भी हमारी मानसिकता नहीं बदली है स्त्री के प्रति जो सम्मान होना चाहिए वह उसे नहीं मिलता। ठीक ऐसा ही पुरूष अनुभव करते है। वे कहते है कि महिलाओं के पक्ष में कानून बन जाने के कारण इनका दुरूपयोग हो रहा है और महिलाएं और उनके परिजन इनके आधार पर हमेशा भयभीत करते रहते है।
विवाह का आधार प्रेम है। प्रेम हो तो सम्मान बना रहता है जब प्रेम का अभाव होता है और अहंकार का उदय होता है तो विवाद प्रारम्भ हो जाते है। दूसरे की कमजोरियों का पता चल जाता है और तब फिर वह प्रेम ठहर नहीं पाता और विवाद उजागर होने लगते है। इस दुनिया में कोई भी एकदम पूर्ण नहीं होता। हम सब कमजोरियों के पुतले है। अपने प्रेमी की समस्त कमजोरियों के साथ उसे चाहने का नाम ही तो प्रेम है इसलिए सब झगड़ों की जड़ प्रेम अभाव है। हम विवाद के लिए चाहे जितने कारण बताए पर मूल कारण एक ही है।
प्रेम के अभाव के कारण - विवाह के प्रारम्भ में प्रेम हो और बाद में अभाव पैदा हो तो उसके क्या कारण हो सकते है -विचार कीजिए।
- आज कल विवाह पूर्ण वयस्क होने की अवस्था में होता है। इस अवस्था तक परिवार में जो संस्कार मिलते है उसका वैवाहिक जीवन पर बड़ा प्रभाव रहता है। हम अधिकारों को जानते हुए वयस्क होते है। कर्तव्य तो विचारते ही नहीं। गृहस्थ आश्रम में कर्तव्य ही अधिक होते है। कर्तव्य पालन करने के बाद ही अधिकार आते है। अधिकारों की घोशणा और कर्तव्यों व दायित्वों पर आँख मुदना ही विवाद का कारण होता है। इसके बीच एक छिपा अहंकार रहता है कि मैं सर्वश्रेश्ठ हूँ। मैं क्यों दबू। इस चक्कर में एक दूसरे के दोष खोजे जाते हैं। उन्हें उजागर किया जाता है। एक दूसरे पर दोष लगाए जाते है। यदि कोई स्वंय को समझदार समझे तो कोई हर्ज नहीं लेकिन अधिकारों की द्योषणा के साथ दूसरे को मूर्ख समझना झगड़े की जड़ बन जाता है। आपका साथी जैसा भी है वह आदर का पात्र है पर समानता के नारे के साथ यह आदर देना हम भूल रहे है। मित्रता में भी समानता रहती है। मित्रता भी बिना आदर के नहीं रह सकती पर ये संस्कार अब परिवार में नहीं दिए जाते है अब ये संस्कार सीखती है टी.वी. चैनल्स से, मित्रों से, पत्र-पत्रिकाओं से और यहाँ सीखने के लिए बहुत कुछ नहीं होता। एक परिवार में भोजन खाने के बाद झूठे बर्तन टेबल पर पड़े रहते हैं। उन्हे उठाना ये सब परिवारों में नहीं चलता। परिवार होटल नहीं है। वहाँ प्रेम अपनत्व होना चाहिए। इन छोटी छोटी बातों पर भी युद्ध छिड़ जाता है।
- इस वातावरण में शान्ति स्थापना के लिए कोई नहीं होता। हाँ आग लगाने के लिए एक तृतीय पक्ष रहता है। जो मायका या ससुराल होता है। ये पक्ष अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए भड़काऊ क्रिया कलाप पैदा करता है। इस तृतीय पक्ष में पुलिस और अभिभाषक वर्ग का भी सहयोग मिल जाता है और तब आग में घी डालने के लिए कई धाराएं, तर्क, घटनाएं उपस्थित हो जाते है जिनका वास्तव में होना पाया ही नहीं जाता।
- इस समय तक युवा पति पत्नी को सही मार्गदर्शन देने के लिए परिवार का कोई बुजुर्ग नहीं होता जिसके प्रभाव से दोनो के मध्य प्रेम के बीज बोए जाए। हमने बुजुर्गो को तो दुश्मन मान परिवार संस्था से बाहर निकाल ही दिया है । तब वे कहाँ से उपस्थित हो। पति -पत्नी के झगडो के लिए किसी न्यायालय की आवश्यकता नहीं है। वे स्वयं अपनी समस्या हल करे। यदि वे समस्या हल न कर पाए तो परिवार के बुर्जग समस्या का हल खोजे। यदि उनसे भी हल न हो तो न्यायालय अन्तिम चरण हो सकता है लेकिन इस स्तर पर पर भी बीच मे अभिभाषकों की आवश्यकता नहीं है ये प्रेम का सौदा है इसमें कानूनी तर्क वितर्क नहीं, आपसी समझ ही काम आना चाहिए।
- आज परिवारों के टूटने में भोजन बनाने के प्रति अरूचि भी एक कारण है। भोजन बनाने का शिक्षण दिया ही नहीं जाता। दिया जाता है तो सतही तौर पर जब कि भोजन जीवन के लिए अनिवार्य है और उसकी विविधता और मर्म जानना स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। रसोई हमारे जीवन के केन्द्र में है। हम कामवाली महिलाओं के भरोसे नहीं चल सकते। उनका सहयोग लेना ठीक है लेकिन उन पर निर्भर होना परतंत्रता है। आज युवक युवतियों को केवल पढ़ना, अच्छे अंक लाना, उचे वेतन की नौकरी या व्यवसाय करना सिखाया जाता है। भोजन व रसोई घर के प्रति यह उदासीनता पति पत्नी के बीच विवाद पैदा कर देता है। अच्छे भोजन का हमारे स्वास्थ और मन से भी सम्बन्ध है।
- सच बात यह है कि परिवार चलता है सेवा, त्याग, प्रेम आपसी सम्मान से। यही गृहस्थ आश्रम की मूल आधार भूमि है। आश्रम के संबंध में संस्कृत विद्वान भोलानाथ शर्मा कहते है ‘जिस प्रकार अन्न की उत्पत्ति के लिए आर्दश बीज भंडारों की आवष्यकता होती है। उसी प्रकार मानव विकास के लिए श्रद्धालु संतोषी एवं दृढ़वती व्यक्तियों के आश्रमों की आवष्यकता होती है।’ इन गुणो के कारण ही दोनों पक्षों में प्रेम पनपता है। इसमें कोई भी एक पक्ष स्वंय को श्रेष्ठ माने और दूसरे को हीन तो यह अंहकार क्रोध उत्पन्न करेगा ही। गीता में क्रोध को नरक का द्वार बताया है। यदि एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव न होगा तो फिर विवाह का कोई अर्थ नहीं है।
परिवार में पति पत्नी के बीच विवाद, तनाव, डिप्रेशन तो लाता ही है, यह भी अविश्वास का वातावरण निर्मित करता है। इन्हीं क्षणों में पति पत्नी और ‘वो’ का उदगम होता है। आज यदि पति संशय में पत्नी की हत्या कर रहा है और पत्नी पति की हत्या कर रही है। तो इसका कारण यह संशय और ‘वो’ तत्व ही है। संशय की दवा लुकमान हकीम के पास भी नहीं है। संदेह क्या क्या कर सकता है इस संबंध मे सुनिए अंग्रेज निबंध लेखक फ्रांसिस बेकन क्या कहते है, ‘विचारों में संदेह पक्षियों में चिमगादड़ो के समान होते है। वे सदा धुन्धले प्रकाश में ही उड़ते है। निसंदेह उन्हें दमित किया जाना चाहिए या कम से कम उनसे बहुत सावधान रहना चाहिए क्योंकि वे मन पर आवरण डाल देते है। मित्रो को गंवा देते है। व्यापार रुद्ध कर देते है। राजाओं को अत्याचार की ओर प्रवृत्त कर देते हैं, पतियों को इश्र्यालु बना देते हैं और बुद्धिमानों को अनिश्चयशील तथा उदासीन बना देते है। वे हद्धय के नहीं, मस्तिष्क के दोष है।’
संशय से उपजे आपसी विवाद अवसाद के क्षणों में आत्महत्या की ओर भी प्रवृत्त करते है। इसका एक अन्य परिणाम भी प्राप्त होता है जिस पर हम ध्यान नहीं दे पाते। संशय, तनाव, अवसाद, के कारण हमारी कार्यक्षमता और उत्पादन क्षमता पर भारी प्रभाव पड़ता है। हम अपना कोई भी कार्य मन लगाकर नहीं कर पाते। हम मानसिक रुप से भयग्रस्त हो जाते है। इस मानसिक स्थिती का हमारे मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है और हम उच्च रक्तचाप, हद्धय रोग से भी प्रभावित हो जाते है। प्रसिद्ध अंग्रेज निबंधकार बेकन कहते है, ‘मन अपने ही सौन्दर्य से रोगग्रस्त रहता है।’ ये बीमारियाँ महज आपसी विवाद के कारण होती है।
तब क्या करें? - इस दुनिया मे कोई भी पूर्ण नहीं है। हम सबमे दोष तो है ही। इसलिए साथ रहते रहते जिन दोषो को हम अपने साथी में पाए उन्हे स्वीकार करे। दोष ढूंढने के बजाय गुणों की ओर ध्यान दें। हर व्यक्ति में गुण भी रहते हैं। समय समय पर उन गुणों की प्रशन्सा करें। अवगुण व दोषो को सुधारने के लिए प्रेम पूर्वक प्रयत्न करें।
यदि हमसे कभी भी जाने अनजाने गलती हुई है तो उसे तुरन्त स्वीकार करें। क्षमा माँगे। दुनिया में ऐसी कोई भी गलती नहीं है। जिसे क्षमा न किया जा सके।
अपने परिजनों का तो सम्मान सभी करते है। अपने साथी के परिजनों का भी हद्धय से सम्मान करे। जब भी समस्या उत्पन्न हो तब आपस में बैठकर धैर्य पूर्वक समाधान खोजे। अपनी समस्या के लिए किसी तीसरे पक्ष को मध्यस्त बनाने की भूल न करें। यदि समस्या का समाधान न मिले तो परिवार के बुजुर्गो से अवश्य सलाह लें।
समस्याएं हमेशा रहेगी। हम तलाक ले ले तब भी समस्याएं हमारा पीछा नहीं छोडे़गी। समस्याओं से भागना नहीं है, उनका साहसपूर्वक समाधान खोजना है। यदि आप ऐसा करेंगे तो समस्या में से समाधान निकल आएगा। इस संबंध में जिम डारमेन एक सूत्र बताते है। इस पर ध्यान दीजिए। यह सूत्र हमें याद दिलाता है कि लोगों के साथ व्यवहार करते समय हमारी प्राथमिकताएं क्या होना चाहिए।
सबसे महत्वहीन शब्द है ’मैं’। सबसे महत्वपूर्ण शब्द है ’हम’। सबसे महत्वपूर्ण दो शब्द ‘‘आपको धन्यवाद’’ सबसे महत्वपूर्ण तीन शब्द ‘‘सब माफ किया’’ सबसे महत्वपूर्ण चार शब्द ‘‘आपका क्या विचार है’’ सबसे महत्वपूर्ण पाँच शब्द ‘‘आपने बहुत अच्छा काम किया‘‘ सबसे महत्वपूर्ण छह शब्द ‘‘मैं आपको बेहतर समझना चाहता हूँ’’।
अपने नजरिए को बदलकर आत्मकेन्द्रीयता से समझने की स्थिती तक जाया जा सकता है। बस इसमें इच्छा और संकल्प की आवष्यकता होती है। जिससे हम स्थिती को दूसरे व्यक्ति के दृश्टिकोण से देखने की कोशिश करें।
यह है समस्या का हल। जब भी विवाद, झगड़ा संघर्ष होता है दोनों पक्षों की गलतियाँ होती है। एक हाथ से कभी ताली नहीं बजी। अतः उभय पक्षों को इस पर विचार करना चाहिए।
bahut badiya lekh
ReplyDeletebilkul sahi kaha
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