Satyanarayan Bhatnagar JI Ka Panna: Here you can find the writings of Hindi Sahitya Bhushan Shree Satyanarayan Bhatnagar's writings and thoughts.
Wednesday, August 26, 2009
मृत्यु का सन्देश क्या है हमारे लिए
मृत्यु का आगमन - मृत्यु निश्चित है किन्तु उसका आगमन का पता नहीं है वह कभी भी, कही भी कैसे भी आ सकती है । हमने शिशुओं को, बच्चों को, जवानों को मृत्यु के पाश में बॅधते देखा है । उनकी मृत्यु की कल्पना ही नहीं थी, वे क्षण भर में दुनिया छोड़कर चले गए । जो बीमार नहीं थे, वे भी मृत्यु को प्राप्त होते देखे गए है जो बीमार है वे तो इस शंका में ही मृतवत रहते है । वृद्धावस्था में तो मृत्यु का इन्तजार रहता ही है । आज नहीं तो कल उन्हे जाना ही है । उनकी मृत्यु तो आना ही है ।
मृत्यु का आश्चर्य - मृत्यु की इस सुनिश्चितता के बाद भी यह सचमुच आश्चर्यजनक तथ्य है कि हम मृत्यु को भुलाकर नित वे सब कर्म करते है जो हमें करना ही नहीं चाहिए । महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर और यक्ष का एक रोचक संवाद है । यक्ष एक प्रश्न करता है कि इस दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? जवाब में धर्मराज युधिष्ठिर कहते है कि मृत्यु के नित्य आगमन के निश्चित तथ्य के बाद भी हम उसे भूला कर कार्य करते रहते है । यह विचार कर कि वह मरा है, हम नहीं मरेगे । हम सदा मृत्यु को भूलाए रखते है । यही सबसे बडा आश्चर्य है ।
सब रोगो की एक दवा - मृत्यु सब रोगों की एक दवा है । मृत्यु के बाद फिर कोई रोग नहीं होता । मृत्यु हमारी सारी समस्याएं एक क्षण में समाप्त कर देती है । सारे दुःख दर्द मिटा देती है । मृत्यु के बाद हमारी उपस्थिति का कोई चिन्ह शेष नहीं बचता । केवल हमारी स्मृतियाँ की शेष बचती हैं। इसलिए कहा जाता है कि आप डूबे, जग डूबा । हमारी मृत्यु के बाद इस संसार की उपस्थिति का क्या अर्थ रह जाता है । हमारे देखते देखते ही हमारे अपने सभी एक एक कर चल दिए और जगत की स्लेट कोरी की कोरी है । उनका कोई चिन्ह आज नहीं है । इसलिए इस संसार को असार भी कहा जाता है ।
क्या कहती है मृत्यु - मृत्यु धीमे से आती है और एक जोरदार झटके के साथ जीवन की डोर समाप्त कर चुपचाप चली जाती है। हम इसे देहावसान कहते है, यह देहावसान की घटना भी हमें कुछ कुछ कहती है । हम उसे सुनते भी है पर भूला देते है । श्मशान यात्रा के समय एक वैराग्य आता है जो हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि यह संसार क्षण भंगुर है । यह अनित्य है और हमे इसके मायामोह से दूर रहना चाहिए । यह वैराग्य हम पर क्षणिक रहता है । श्मशान वापसी के बाद हम पुनः अपने कर्मक्षे़त्र में व्यस्त हो जाते है ।
इस श्मशान वैराग्य का भी जीवन में एक अर्थ है यदि हम उसे स्मरण रख सके। यदि हम इस वैराग्य को स्मरण रख सके तो फिर हम काम, क्रोध, लाभ, लालच, पाखण्ड, हिंसा, व्यर्थ निंदा, धोखा, मोह, ममता, परनिन्दा आदि आसुरी वृतियों से अपने को बचा सकते हैं। जब जीवन इतना क्षणिक है तब इसे त्यागने के बाद इन आसुरी वृतियों की स्मृतियाँ छोड़ जाने का क्या अर्थ है। यदि यह वैराग्य बना रहे तो जीवन की दिशा ही बदल जाए । मृत्यु हमें आकर चुपचाप ही सही , यह शिक्षा तो देती ही है।
क्या संदेश है मृत्यु का - जीवन के साथ मृत्यु का संबध अटूट है। अतः मृत्यु हमें वैराग्य का ही संदेश नहीं देती, वह जीवन को कर्मवीर बनाकर आनंदपूर्वक जीवन यापन का भी संदेश देती है। मृत्यु जब कभी भी आ सकती है, कहीं भी आ सकती है तब हमें यह सोचना चाहिये कि इस धरती पर हम जिस कार्य के लिये उपस्थित हुए हैं उसे बिना किसी विलंब के तत्काल आलस्य रहित होकर आज और अभी निपटाएं। कल का पता नहीं है। यह सूरज कल हमारे लिए उदय हो या न हो। इसलिए मृत्यु कहती है कि कर्मवीर बनो। वर्तमान में जिओ। कल के लिए कल्पना मत करो। जो आज और अभी करना है उसे कल पर मत टालो। वर्तमान का आनंद लो। जीवन के जो क्षण उपलब्ध हैं उनका आनंद लो।
वर्तमान के इस आनंद लेने का यह भी अर्थ है कि अतीत को भूल जाओ। अतीत भूत है वह मर चुका है। भविष्य का पता नहीं है वह आए या न आए । इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवदगीता में देहावसान की बेला का स्मरण करा अर्जुन को वर्तमान युद्ध में कामना, ममता और स्वार्थ त्यागकर युद्ध करने को प्ररित किया। गीता मृत्यु का स्मरण करा कर कर्मवीर बनाने का संदेश है। गीता ही मृत्यु के बहाने अभय का पाठ याद कराते हुए वर्तमान में जीवन जीने का पाठ पढ़ाती है। मृत्यु का यह संदेश हमें हमारे देश के विभिन्न ग्रन्थों में स्पष्टता से दिखाई पडता है।
महाभारत का संदेश - महाभारत में युद्ध के भयानक चित्र हैं किन्तु उसमें शान्ति पर्व भी है। शान्ति पर्व में महर्षि व्यास कहते हैं, ‘जो कल्याण कार्य हैं उसे आज ही कर डालिए। आपका यह समय हाथ से न निकल जाए क्योंकि कार्यो के अधूरे होने पर भी मृत्यु आपको खींच ले जायेगी ’ इसी पर्व में आगे कहते हैं ‘कल किया जाने वाला कार्य आज पूरा कर लेना चाहिए जिसे सायंकाल करना है उसे प्रातःकाल ही कर लेना चाहिए क्योंकि मृत्यु यह नहीं देखती कि इसका काम अभी पूरा हुआ या नहीं।’
एक कथा - इसका स्पष्ट अर्थ है वर्तमान में जिओ। कर्मवीर बनो। ‘ बिती ताही बिसार दे आगे की सुध लेव ’ इस संबध में एक कथा प्रचलित है। एक बार धर्मराज युधिष्ठिर राजकाज में व्यस्त थे तभी एक ब्राम्हण याचक बन कर आया। धर्मराज ने कहा ‘ ब्राम्हण श्रेष्ठ इस समय तो मैं राजकाज में व्यस्त हूँ। आप कल आना मैं आपका यथोचित सम्मान करुंगा ’। ब्राम्हण चला गया । महावीर भीम भी यह देख सुन रहा था। उसने कर्मचारियों से कहा ‘ तूरही नगाड़े बजाओ। उत्सव की घोषणा करो ’ कर्मचारी घोषणा करने लगे। धर्मराज युधिष्ठिर ने यह ध्वनि सुनी तो राजमहल के बाहर आए। पूछा ,‘ क्या कारण है? ’ महावीर भीम ने कहा ‘ आपने मृत्यु को जीत लिया है। आप अमर हो गए। अतः उत्सव मनाने की घोषणा की गई है। ’ धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा ‘ ऐसी तो कोई बात नहीं है।’ तब भीम ने कहा ‘ अभी आपने ब्राम्हण से कहा कि वह कल पधारे। अर्थात कल तक के लिए तो आप अमर है। हमें तो एक क्षण का पता नहीं है। ’
तब धर्मराज युधिष्ठिर ने गलती स्वीकारी। ब्राम्हण को तत्कान बुलवाया और यथोचित सम्मान किया। यह है मृत्यु का स्पष्ट संदेश - आज, अभी, तत्काल। सदा जागरुकता से कार्यरत रहना। धन, सम्पदा, यश, मान - सम्मान, यौवन, गुण आदि के मोह से मुक्त रहना क्योंकि यह अनित्य है। ये सदा रहने वाले नहीं है। अतः इस दुनिया में रहने की विधि का मार्गदर्शन करती है मृत्यु।
जातक ग्रन्थ का संदेश - बौद्ध धर्म ग्रन्थ ‘ जातक ’ में भगवान बुद्ध के उपदेश संग्रहीत है। यह खुद निकाय ’ में समाविष्ठ ग्रन्थ है। इसमें कहा गया है ‘ आज ही प्रयत्न करणीय है ’ कौन जानता है कल मरना हो। उस महान सेना वाली मृत्यु से हमारा कोई समझौता नहीं है।’
इस संदेश से स्पष्ट है कि यह जगत अनित्य है। परिवर्तनशील है इसलिए हमें वर्तमान में जिना ही नहीं है, अपने कार्यो को पूरी लगन निष्ठा से सर्वोत्तम ढंग से पूर्ण भी करना है ताकि हमारे संसार छोड़ने के बाद हमें हमारे कार्यो के माध्यम से सही ढंग से जाना जाए। यदि मृत्यु के इस संदेश का हम चिन्तन करेंगे तो स्पष्ट होगा कि इस जीवन में आपसी विवाद, इर्ष्या, द्वेष पर निन्दा आदि आसुरी वृतियां व्यर्थ है । लाभ , लालच , हिंसा के लिए भी कोई स्थान हमारे जीवन में होना ही नहीं चाहिए। ईरान के फारसी कवि अब्दुल मजीद मजदूद बिन अदम कहते हैं ‘ यदि तुझे उठना है तो इसी समय उठ और जो कुछ करना है , कर ले अन्यथा जिस समय यमदूत तेरे सिर पर मृत्यु की तलवार ले उपस्थित होगा, उस समय शोक के अतिरिक्त कुछ हाथ न आएगा। इसी लिए कहा गया है –
‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में परलय होत है. बहुरी करेगा कब?
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मृत्यु का संदेश स्पष्ट है कि हमें आज अभी अपना कार्य सर्वोत्तम ढंग से पूर्ण लगन व निष्ठा से करना है। जीवन में आलस्य और टालमटल के लिए कोई स्थान नहीं है। मृत्यु अनजाने में हमें यह भी कहती है कि वृद्धावस्था भी मृत्यु तुल्य है। उसका इन्तजार भी मत कीजिए क्योंकि तब हम चाहते हुए भी कुछ न कर पाएगे। मृत्यु का संदेश हमें निराश नहीं करता, कर्मवीर बनाता है। मृत्यु सन्यास का संदेश नहीं है, प्रसन्नतापूर्वक, उत्साह और उमंग का जीवन जिने का संदेश है। हमें घबराकर अपशुगुन समझ मृत्यु को विस्मृत नहीं करना है। वरन सदा याद रखना है।
सत्यनारायण भटनागर
Tuesday, August 25, 2009
खतरे का संकेत - हमारी हॅसी कहाँ गुम हो गई?
समय का अकाल - उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर है नहीं । आज विज्ञान की नई खोजो के उपरान्त हम बहुत अधिक व्यस्त हो गए है । लोग कहते है ‘उन्हे मरने की फुरसत नही है’ आदमी के पास विश्राम के लिए समय नहीं है । आदमी तनावग्रस्त है । मानसिक उलझने है । अवसाद ग्रस्त है हम सब । विज्ञान की तरक्की के बाद भी ऐसा क्यों है ? इसका कारण यह है कि सब सुख सुविधाओं के बाद भी हमारी जीवन शैली बदल गई है। हमारे पास इस पद्धति में जीवित रहने के लिए प्रतियोगिता अनिवार्य हो गई है । हम गलाकाट प्रतियोगिता में लग गए है। कैसे हम दूसरे से आगे निकल जाए ? यह दूसरा कौन है ? यह है सारी दुनिया, इस दुनिया में हम सबसे आगे हो, यह महत्वकांक्षा है हमारी । हम ही हम हो ।
इसका बडा सच्चा वर्णन किया है साहित्यकार विमल मित्र ने । वे कहते है, ‘मनुष्य का आज का धर्म हो गया है आगे बढ़ते चलों, सबको पीछे छोड़ते चलों, धक्का मारकर चोट पहुँचाकर किसी भी तरह बढ़ते चलों ( गवाह न. 3)
इस प्रतियोगिता में सारी दुनिया से हमारी टक्कर है । हमें हर हालत में आगे बढना है । दुनिया कहीं भी जाए । यह है हमारी महत्वकांक्षा। हम यही शिक्षा अपने बच्चों व युवाओं को दे रहे हैं. ऐसे में भाईचारा कहाँ शेष बचता है. कहाँ बचती है मानवता की उदान्त जीवन शैली जिसमें हम कहते हैं ‘जिओं और जीने दो’ । इस अन्धी आधुनिक जीवन शैली का परिणाम क्या हुआ? हमारी हॅंसी गायब हो गई, हम गंभीर हो गए और एक दूसरे से मिलते-जुलते केवल अपने काम तक सिमट गए। हास्य तो मनमौजीपन में उपजता है। उसके लिए चाहिए आनन्दपूर्ण विश्राम अब वह कहाँ रहा । इसलिए आज हम हास्य को खोज रहे हैं ।
हास्य की खोज- आज हास्य की खोज में हम क्या नहीं कर रहे हैं? हमारे सिनेमा हास्य विषयो को लेकर धडाधड़ बन रहे हैं । हास्य फिल्मों में इसीलिए मुन्नाभाई एम. बी. बी. एस., चुपके चुपके, हेराफेरी, पार्टनर, धुम मचा चुकी है । अभी हास्य फिल्म खूब बन रही है, चल रही है, हमारे टी.वी. कार्यक्रमों में हास्य रस प्रधान विषय बन रहा है ।
टी.वी. हास्य कार्यक्रमों में खिचडी़, आफिस आफिस धुम मचा चुके/रहे हैं। हम हॅंसिए और फॅंसिए का नारा लगा रहें हैं आज लाफ्टर चैलेंज और काँमेडी शो टी.वी. पर छाए हुए है. हास्य कवि सम्मेलन आयोजित हो रहे है । पत्र पत्रिकाओं मे चुटकुले प्रकाषित हो रहे है । हास्य को प्रधानता देते हमारे मोबाइल पर भी चुटकुले दिखाई दे सकते है । हमारे हॅसने के लिए सब तरह के प्रयत्न किए जा रहे है किन्तु दिक्कत यह है कि हमें हॅसी नहीं आती । सचमुच चुटकुले अपनी हॅसी खो चुके है ।
टी.वी.के हास्य कार्यक्रमों में पर्दे के पीछे से हॅसी के फव्वारे उड़ाए जातें है किन्तु दर्शको को हॅसी नहीं आती । हास्य कार्यक्रम के अभिनेता स्वयं हॅसते है । उन्हे हॅसने के लिए धन मिलता है । हॅसी का आनन्द तो तब है जब हास्य कलाकार की हरकत पर वह तो शांत गम्भीर बना रहे और दर्शक पेट पकड़ कर लोट पोट हो । मित्रों के बीच खुला अठ्ठास हो । प्रेमी-प्रेमिका के मध्य मधुर मुस्कान हो किन्तु यह सब तो कहीं दिखाई नहीं देता । केवल धन प्राप्त कर हॅसने वाले कलाकार ही इस दुनिया में सहज रूप से उपलब्ध है ।
ध्यान रहे हॅसी एक प्राकृतिक क्रिया है । हॅसना और रोना सहज रूप से आना चाहिए । मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हॅस सकता है । मुस्करा सकता है अन्य सब प्राणी यह नहीं कर सकते अतः हँसी का विलुप्त होना एक गम्भीर समस्या है ।
हॅसी सचमुच गायब हो गई है - लीजिए ध्यान से पढ़िए इस समाचार को । ‘एक वैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि साधनों समृद्धियों एवं विविध सुविधाओं भरे आज के आधुनिक युग में मनुष्य इतना दुःखी और निराश है जितना पहले कभी नहीं रहा । आर्थिक मन्दी के लिए जाने वाले 1950 के दशक में भी नहीं । उस दशक के दौरान एक औसत व्यक्ति हर दिन अठारह मिनट हॅंसता था जो सन् 1990 में घट कर मात्र छह मिनट रह गया जबकि औसत व्यक्ति के रहन सहन के स्तर में काफी सुधार आया है ।’
इस समाचार के आधार पर विचार कीजिए कि आज क्या स्थिति है । आज व्यक्ति के जीवन में हॅंसी गुम हो गई है । हम जानते हैं हमारी हॅंसी कहाँ गुम हो गई है पर आधुनिक जीवन शैली के दुश्चक्र में ऐसे फंसे हैं कि उससे निकल ही पाते और हॅंसी हमसे दूर बहुत दूर होती जा रही है। परिणाम - जर्मनी के मनोचिकित्सक डाँ. मिशल रित्जे और मनोवैज्ञानिक आलिवर जेम्स के अनुसार आज मनुष्य 1950 के मनुष्य की तुलना में दस गुना अधिक उदास और चिंतित है । उनके अनुसार मौजुदा समय में समाज में हिंसा की भयानक बढो़तरी हमारी उदासी की परिचायक है । हिंसक लोगो में तीन चैथाई लोग दुःखी और निराश हैं ।
आज हम अनुभव करते हैं कि छोटी छोटी बातो पर हिंसा हो रही है । गुस्सा सर पर चढ़कर बोल रहा है । यह सब हॅंसी के गुम हो जाने का परिणाम है । हम किसी को सहन ही नहीं कर पा रहे हैं । क्षमा करना तो दूर की बात है । कहाँ चली गई उदारता, इस पर विचार कीजिए । इसी हिंसा का दूसरा रुप है आत्महत्या । यदि हम किसी दूसरे से बदला लेने की स्थिति में नहीं हैं, परिस्थितियाँ हमारे अनुकुल नहीं है, हम उन्हें बदल नहीं सकते तो आत्म हत्या कर लेते हैं । आज किसान ही नहीं, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सभी आत्म हत्या के रास्ते जा रहें है. अब तो किशोर और बच्चे भी आत्म हत्या कर रहें हैं. यह हताशा की पराकाष्ठा है ।
बीमारियाँ- हिंसा और आत्म हत्या के साथ हॅंसी का गुम हो जाना नई नई बीमारियों का कारण भी है. विचार कीजिए कल तक जो बीमारियाँ वृद्धों को होती थी, वह अब किषोरों और जवानों को हो रही है । अवसाद ग्रस्त युवा नशे की गर्त में जा रहे हैं, तनाव के कारण उन्हें उच्च रक्त चाप और डायबिटीज जैसी बीमारी लग रही है, हृदय रोग से वे पीडित हो रहे है । टी.वी. और कम्प्यूटर पर निरन्तर कार्यरत युवाओं को पीठ व कमर दर्द होना आम बात है । दी हेल्थ केयर वेलफेयर सोसायटी के एक सर्वे के अनुसार 20 से 40 वर्ष के 67 प्रतिशत युवाओं को इस क्षेत्र में यह रोग है । दस प्रतिशत व्यक्ति तो इस से तंग आकर नौकरी तक छोड़ देते है ।
ज्यादा आधुनिक मत बनिए- अत्याधुनिक बनने के लिए सबकेा पछाड़कर शिखर पर पहुचने की अंधी दौड़ का दुष्परिणाम है हॅंसी का गुम होना । हम सब प्रगति करना चाहते हैं । अच्छी बात है । महत्वकांक्षा रखना मनुष्यता की निशानी है पर यह दूसरो को नुकसान पहुंचा कर आगे बढ़ने की प्रवृति खतरनाक है । जब हम इतने स्वार्थी हो जाते हैं कि केवल अपने संबन्ध में ही विचार करते है तब हॅंसने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
साहित्यकार कवि अज्ञेय ने आधुनिकता की इस प्रवृति पर क्या खूब व्यंग्य किया है, देखिए,
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं,
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया,
एक बात पूछूँ ( उत्तर दोगे)
तब कैसे सीखा डसना
विष कहाँ से पाया?
इसलिए मनुष्यता के गुण सहयोग, सहकार, प्रेम, त्याग, क्षमा, उदारता को याद रखिए । बीमारी का यही इलाज है । इस हॅंसी का आना आवश्यक है । तो हॅंसिए अपने आप पर, अपनी मूर्खताओं पर और तब आप पाएगे आपके साथ हॅसने गाने के लिए तैयार तत्पर बहुत से लोग है ।
प्रारम्भ तो हमें ही करना पड़ेगा । हॅसी को दवा के रूप में नहीं, वरन जीवन रस के रूप में स्वीकार कीजिए । वह बाग बगीचों में ही नहीं जीवन के हर क्षण में बनी रहना चाहिए, तभी प्रसन्नता, सौंदर्य और आनन्द हमारे चेहरे पर बना रहेगा । इस जीवन में तनाव का क्या काम । उसे हॅसी की लहर के साथ उड़ा दीजिए ।
सत्यनारायण भटनागर
Sunday, August 23, 2009
चींटी के नाम एक चिन्तन
इस पृथ्वी पर महत्वपूर्ण कौन है? इस प्रश्न पर यदि विचार किया जाए तो अलग अलग स्थान, समय और परिस्थिति के अनुसार अलग अलग उत्तर मिलेगे। हम पृथ्वी पर मनुष्य जाति को ही सर्वश्रेष्ठ मानते है क्योकि हममें विवेक और बुद्धि है और हमारे इस निर्णय को ही हम घोषित करते है किन्तु भगवान की दृष्टि में प्राणीमात्र समान है। गीता में भगवान कहते है कि प्राणी मात्र मेरे अंश है। इसमें छोटे बड़े का प्रश्न नहीं है। इस समता योग के सम्बन्ध में लगभग सभी धर्मशास्त्रों में यही स्वर गुंजायमान मिलता है इसलिए भले ही बुद्धि और विवेक के कारण हम अपने को सर्वश्रेष्ठ माने पर अनेक कोण है जिनमें पशु पक्षी भी हमसे आगे है उनकी सामाजिक व्यवस्था व अनुशासन हमसे श्रेष्ठ है।
मनुष्यों में समता योग पर सदा प्रश्न चिन्ह लगता रहा है यहाँ जाति, धर्म, रंग, क्षेत्र आदि के साथ पद-प्रतिष्ठा के अनुसार भी भेद पाया जाता है। एक श्रमिक और राष्ट्रपति के बीच भयानक अन्तर है। जबकि प्राण तत्व के अनुसार वे एक ही है। भगवान के राज्य में वे समान है। ऐसे ही चींटी और हाथी के बीच का अन्तर हम आँखों से देखते है और मानते है किन्तु भगवान का सन्देश स्पष्ट है कि चींटी होने में उसका कोई दोष नहीं है और हाथी होने में हाथी की कोई विषेशता नहीं है। इसलिए भगवान के राज्य में समता योग की दृष्टि होने से वे समान है और उनमें अन्तर देखना भगवान के दोष देखना है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द ने जो कहा उस पर विचार कीजिए । वे कहते है ’एक एक तरंग को नहीं, सारे समुद्र को देखो। चींटी और देवता में भेद दृष्टि मत रखो। प्रत्येक कीट-पतंग तक प्रभु ईसा का भाई है। फिर एक को बड़ा, एक को छोटा कैसे कहते हो। अपने अपने स्थान पर सभी बड़े है।‘
हम चींटी को महत्व नहीं देते। क्या कभी आपने चींटी के विषय में चिन्तन-मनन किया है? आप कहेगे हाँ, यह सच है। भारत में आपको अनेक व्यक्ति मिल जाएंगे जो खुले स्थानों में चींटी को शक्कर-खोपरे का चुर्ण डालते दिखाई देगे। वे चींटी के प्रति दयालु भाव प्रकट करते दिखाई देगे लेकिन यदि आप खोज करेगें तो आप पाएगे कि ये दयालुपन उनमें कारण विशेष से है। वे शनि देव के कोप से बचने के कारण ऐसा करते है। कहते है कि चीटियों के प्रति यह दया दृष्टि रखने से शनि का कोप कम होता है और कृपा दृष्टि होती है। ऐसा बिना कारण शायद ही कोई करता हो।
चीटीं हमारे घरों में बहुतायत से पाई जाती है। ये छोटा सा जीव आपको झुण्ड के झुण्ड में भी मिल जाएगा और एक दो की संख्या में भी भ्रमण करता दिखाई देगा। कई घरों में तो चींटियों का कोप झुण्ड के रूप में इतना अधिक होता है कि परिवार इनको मारने के लिए बाजार मे मिलने वाला रसायनिक द्रव्य उपयोग करते है। रेखाएं खींचते है कि चींटी आगे न बढ़ सके। चींटी उन परिवारों के लिए एक समस्या बन जाती है और वे फिर दयालु नहीं रह पाते। भूल जाते है कि इस छोटे से जीव की हत्या करना भी उतना ही बड़ा पाप है जितना आदमी की हत्या करना। हत्या-हत्या है चाहे छोटे जीव की हो या बडे़ की। इसका अधिकार हमको आपको भगवान ने नहीं दिया है। चींटियों में भी भगवान का अंश है। उन्हे मारना या मारने का सोचना भी भगवान पर अत्याचार है। विचारक मेतास्तासिया कहते है ’किसी की जान लेना पृथ्वी पर सबसे अधम कृत्य है। इसे तो प्रभू पर ही छोड़ देना चाहिए।‘
कवि कबीरदास जी कहते है।
जिव मति मारो बायरो, सबको एकै प्रान।
हत्या कबहू न छूटि है, कोटिन सुने पुरान।।
कवि मूलकदास इस दृष्टि को और स्पष्ट करते हुए कहते है।
कुजंर चींटी पसू नर, सबमें साहिब एक।
काटै गला खुदाय का, करे सूरमा लेख।।
चींटी है सामाजिक प्राणी - चींटी मनुष्यों से अधिक सामाजिक प्राणी है। वह कर्मयोगी है। वह निरन्तर कर्म करती रहती है उसके समाज में एक व्यवस्था है। उस समाज व्यवस्था के अन्तर्गत वह अपने भोजन की तलाश में निकलती है। खराब मौसम के लिए वह अन्न एकत्र करती है। वह स्वयं के लिए नहीं वरन सम्पूर्ण समाज के लिए यह कार्य सतत करती है - नीति वचन 6/ 6
पुराना धर्म नियम में कहा गया है, ’हे आलसी! चींटियो के पास जा। उनके काम पर ध्यान दे और बुद्धिमान हो। उनके न तो कोई न्यायी होता है, न प्रधान और न प्रभूता करने वाला तो भी वे अपना आहार धूपकाल में करती है और करनी के समय अपनी भोजन वस्तु बटोरती है‘ इन अर्थो में चींटी कर्मयोगी होती है। सामान्य व्यक्ति से उसकी तुलना नहीं हो सकती । ध्यान रहे चींटी निरन्तर श्रम करते हुए यह कार्य करती है। वे अपने वजन से पचास गुना अधिक वजन भी मिलजुल कर उठा लेती है । वे कर्मयोगी है उनसे हमें सीखना चाहिए। इसीलिए जैम्स हेलन कहते है "छोटे जीवों की रक्षा से हमारा जीवन सफल होता है, उनके नाश से नहीं।"
हम करते है नाश - सामान्य रूप से चींटी को कोई मारना नहीं चाहता। हम सब चाहते है कि जीव की हत्या हमारे हाथों न हो पर हमारी उदासीनता और गलत आदतों के कारण चींटी की हत्या हो जाती है और हम ध्यान नहीं देते।
मेरा अनुभव है कि हम रसोई घर की सफाई का ध्यान नहीं रखते और हमारी खाध्य वस्तुएं खुली रह जाती है जिनकी ओर ये छोटा जीव आकृष्ट हो जाता है। तब वह बिना कारण मारा जाता है। चींटी को मिष्ठान आकर्षित करता है। यदि शक्कर के डब्बे में चींटी प्रवेश के लिए स्थान है तो आप पावेगे कि कुछ ही समय में उसमें ढ़ेर सारी चींटियां प्रवेश कर गई है। तब आप लाख प्रयत्न करेगे तब भी वे निकल नहीं पाएगी। उनकी मृत्यु निश्चित है।
क्या करें - यदि हम शक्कर का डब्बा ऐसा रखे कि चींटी प्रवेश न कर सकें और ठीक से बन्द करें तो चींटी प्रवेश नहीं करेगी। इसके बाद भी यदि चीटियां प्रवेश कर जाएं तो शक्कर में चार पाँच लौंग डाल दे। उसकी गन्ध मात्र से चींटिया अपने आप उस डब्बे से चली जाएंगी। आपको कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होगी।
मिष्ठान मात्र के प्रति यदि यह सावधानी रखी जाए तो चीटियां अपनी हद पार नहीं करेगी। इसके अतिरिक्त तेल की बनी वस्तुए, बिस्कुट आदि के प्रति भी हमें अतिरिक्त सावधानी बरतना चाहिए।
झूठे बरतन - झूठे बरतनों में भी आपको चींटिया झुण्ड की झुण्ड मिलेगी। चाय का बरतन, कप बशी, दूध का गिलास आदि में आपकों ये चिपटी मिलेगी। उनका स्वभाव है यह। यहाँ उनकी हत्या बहुत अधिक होती है।
क्या करे - झूठे बरतनों से उनकी रक्षा करने के लिए बरतनों को धोकर बेसिन में रखिए। एक बार आपने बरतन धोकर रख दिए फिर उसमें न चींटी आएगी, न कीटाणु विषाणु पनपेगे। फलस्वरूप रसोई घर में जो दुर्गन्ध व्याप्त रहती है, वह नहीं रहेगी।
खाना खाने के स्थान को, बिस्तर को साफ सुधरा रखे, वहाँ गन्दगी, झूठन यदि गिर गई है तो तुरन्त साफ करें, आप देखगे फिर न वहाँ चींटी आएंगी व आप परेशान भी नहीं होगे। चींटी आपको काटेगी भी नहीं। चींटी जैसा छोटा जीव आपकी कृपा सावधानी चाहता है जो सफाई की आदतों के कारण आपको बनाता है स्वस्थ। आप चींटी की हत्या करने के पाप से बच जाते है। चींटी की हत्या होने पर यदि आप दुःखी नहीं होते तो हमारी मनुष्यता में कमी आती है। हममें हिंसा का भाव पनपता है। क्रूरता आती है व दयालुता का गुण कम होता है। इसलिए यह हमारा दायित्व है कि हम सचेत हो और ध्यान रखे कि प्रकृति के इस जीव के कार्य कलापों में हमारे आलस्य से व्यवधान न हो।
भगवान महावीर ने इसीलिए चींटी को बचाकर चलने के निर्देश दिए थे। चींटी के नाम का उल्लेख करने का एक मात्र कारण यही था कि वे छोटे से छोटे जीव के प्रति करूणा का भाव जगाना चाहते थे।
हम चींटी के जीवन से कुछ सीख, प्रेरणा ले। कर्मवीर बने तो शायद हमारा अधिक भला हो। बच्चों को भी इस छोटे से जीव के सम्बन्ध में जानकारी देंवे।
सत्यनारायण भटनागर
Friday, August 14, 2009
बापू ने मनाया था जेल में स्वतंत्रता दिवस
१५ अँगस्त के लिये विशेष
आज तो देश विदेश में भारत का स्वतंत्रता दिवस १५ अँगस्त को धुमधाम से मनाया जाता है पर क्या आपको पता है जब भारत गुलाम था तब स्वतंत्रता दिवस कब मनाया जाता था, आप नहीं जानते ना, तो हम बताते हैं यह दिवस तब २६ जनवरी को मनाया जाता था। बात है महात्मा गांधी की जेल यात्रा की । तब वे आगा खां महल में कैद थे और २६ जनवरी १९४३ का दिन आया। तब उन्होनें जेल में पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया।
कैसे मनाया गया यह स्वतंत्रता दिवस यह जानना रोचक होगा। महात्मा गाँन्धी ने इस दिन के लिये एक प्रतिज्ञा तैयार की थी। आइए देंखें, इस प्रतिज्ञा में गाँन्धीजी ने क्या लिखा था।
"हिन्दुस्तान हर माने में सत्य और अहिन्सा के जरिये पूरी तौर पर आजाद हो, यह मेरा तात्कालिक उद्देश्य है और बरसों से रहा है। इस उद्देश्य को हासिल करने के लिये मैं आज स्वतंत्रता - दिन की इस तेरहवी बरसी के दिन फिर से प्रण लेता हूँ कि जब तक हिन्दुस्तान अपने उद्देश्य को न पा ले तब तक न मैं खुद चैन लुंगा, न जिन पर मेरा कुछ भी असर है, उन्हें चैन लेने दूंगा। मेरी यह प्रतिज्ञा सफल हो इसके लिए मैं उस महान अदृष्य दिव्य शक्ति से जिसे हम गाँड, अल्लाह या परमात्मा रुपी परिचित नामों से पुकारते है, सहायता की प्रार्थना करता हूँ।"
बनाया तिरंगा झण्डा
कारावास में तिरंगा झण्डा कहाँ से आता। अतः उसे बनाया गया। झण्डा बनाने के लिए हल्दी और सोड़ा डाल कर नारंगी रंग तैयार किया गया। हरा पेस्टल लगाकर बनाया। सफेद रंग पर पेंसिल से मीरा बहन ने चर्खा बनाया और जेल के बगीचे में आम के पेड़ के नीचे छोटा सा स्तम्भ गाड़ा गया। इस स्तम्भ पर ही मीरा बहन ने झण्डा बांधा। झण्डा भी मीरा बहन ने ही तैयार किया था।
झण्डा वंदन महात्मा गाँन्धी ने किया। जेल के इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सरोजनी नायडू ने। जब अध्यक्षता के लिए गाँन्धीजी ने उनका नाम सुझाया तो सरोजनी नायडू ने कहा था "आपके रहते यह स्थान कौन ले सकता है" पर अन्ततः वे महात्मा गाँन्धी के समझाने पर मान गई।
इस कार्यक्रम का जो ब्योरा मिलता है उसके अनुसार इस अवसर पर "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा" गाया गया। इसके बाद बापू ने झण्डा फहराया। झंडा वंदन का गीत भी गाया गया। महात्मा गाँन्धी द्वारा तैयार की गई प्रतिज्ञा दोहराई गई। तब वंदे मातरम का गायन हुआ।
इस अवसर सरोजनी नायडू ने कहा, "लाखो लोग होते तब भी करना तो यही था न।" प्रार्थना में "वंदो श्री हरि पर सुखदाई" गाया गया। इस अवसर पर कताई करने का कार्यक्रम बना। बापू ने कहा "मैने जो कहा है न कि सूत के धागे में स्वराज्य बंधा है।"
२६ जनवरी १९४४ को भी जेल में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। इस दिन सबने चौबीस द्यन्टे उपवास किया। कैदियों के लिये पकौडे़ और चाय बनाई गई। शाम को सवा सात बजे झण्डावन्दन किया गया। प्रतिज्ञा की गई और तीन भजन गाए।
इस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्त होने के पूर्व २६ जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता था। जो प्रतिज्ञा महात्मा गाँन्धी ने लिखी थी, वह १५ अँगस्त १९४७ को पूर्ण हुई किन्तु गाँन्धीजी ने जिस सादगी से स्वतंत्रता दिवस मनाया वह आज के लिए एक उदाहरण है। क्या हम उन स्वतंत्रता सेनानियों के स्वप्नों के भारत को साकार करने के लिए कुछ योगदान दे रहे है? बापू के कारावास की कहानी पुस्तक में इसका उल्लेख मिलता है। बापू ने इक्कीस माह आगा खां महल में कारावास काटे थे। हमारी स्वतंत्रता के लिए उठाए इन दुःखद क्षणों में उन्होंने जेल में जो स्वतंत्रता दिवस मनाए वे हमारे लिए एक प्रेरक सन्देश है।
’बापू के कारावास की कहानी‘ डा. सुशीला नैयर, प्रकाशक सस्ता साहित्य मण्डल के आधार पर।
प्रस्तुति- सत्यनारायण भटनागर
Thursday, August 13, 2009
दुःख आते कहाँ से है? जाते कहाँ है?
जीवन में ऐसे बहुत से प्रश्न है जो हमसे उत्तर माँगते है पर हम उन पर विचार ही नहीं करते। अनन्तकाल से एक प्रश्न है,’ये जीवन में दुःख आते कहाँ से है? ’फिर हमें सोचना पडे़गा कि ये चले कहाँ जाते है? कौन बुलाता है इन दुःखो को। हर कोई कहेगा कि हम तो नहीं बुलाते। भला सोचिए दुःखों को भी क्या कोई आमत्रंण देगा कि आओ हमारे जीवन में। यदि हम दुःखों को निमंत्रण नहीं देते तो क्या वे अनचाहे मेहमान बन कर हमारे द्वार आते है और अतिथि की तरह हमें उनका उनका ’भार’ उठाना पड़ता है क्योकि हम उनका स्वागत तो नहीं करते। भगवत गीता कहती है कि यह संसार दुःखालय है।
किसने बनाया दुःखालय - इस दुनिया को किसने बना दिया है दुःखालय, यह एक गम्भीर प्रश्न है। विचार कीजिए कि कही सुख की लालसा में हम ही तो दुःखालय इसे नहीं बना रहे है। विचार कीजिए कि मेरी कमीज से उसकी कमीज सफेद कैसे? यह विज्ञापन क्या कहता है। एक टी.वी. का विज्ञापन था कि ’इस टी.वी.से पड़ोसी की जान जले’
विचार कीजिए कि ये विज्ञापन कही गहराई में जाकर हमारे मन की कहानी ही तो नहीं कह रहे। हम अपने पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदार के सुख सफलता, सम्पन्नता से जल रहे है, इर्ष्या कर रहे है तो यह आग किसने लगाई है? यह आग अगर हमने लगाई है तो इसे बुझायेगा कौन? ये एक ऐसा दुःख है जो बहुतायत में पाया जाता है। इस दुःख का उद्गम हमारा मन है। इस दुःख की दवा कहीं नहीं है। इस दुःख के निवारण के लिए हम इर्ष्या द्वेश से जलते हुए घृणा के रास्ते चल पडते है। लड़ाई, झगड़े, विवाद, तनाव, अवसाद सभी कुछ तो यहाँ एकत्र हो जाते है और इन दुःखो का अन्त नहीं है।
मजे की बात यह है कि इर्ष्या जो दुःखो को उपजाती है प्रारम्भ में सुख और आनन्द देती है किन्तु जब हम अपने सामने वाले पड़ोसी, मित्र,रिश्तेदार को दुःखी नहीं कर पाते तो हम खुद दुःखी हो जाते है। यह इर्ष्या-द्वेश व्यक्तिगत होता है।
यह प्रतियोगिता नहीं है - हम कहते है आज का युग प्रतियोगिता का है। इस इर्ष्या को हम प्रतियोगिता का नाम देते है। प्रतियोगिता स्वस्थ होती है उसमें जलन आने का प्रश्न नहीं है। उसमें हम सफलता, सम्पन्नता, सुख पाने वाले को बधाई देते है। उसकी टाँग नहीं खींचते। इसलिए इर्ष्या द्वेश को प्रतियोगिता का नाम देना अपने आपको धोखा देना है। यह इर्ष्या द्वेश खतरनाक जहर है। इसमें सुख है ही नहीं।
क्या है इसका इलाज - इसका एक ही उपाय है कि हम सादा जीवन उच्च विचार की और ध्यान दे। इस देश में ही नहीं दुनिया में आज तक सादा जीवन उच्च विचार आदर्श को ही मान्यता दी है। इस कारण आज हम महान ऋशि सुकरात, अरस्तु, महात्मा बुद्ध, महात्मा गाँधी आदि को ही याद करते है। इर्ष्या द्वेश वाले किसी व्यक्ति का नाम इतिहास में नहीं आ पाता।
हमारा जीवन इस पृथ्वी पर एक नियत समय के लिए आया है। हम इसे याद रखे और जीवन में व्यर्थ के मनोभावों से दूर रहे। लुक्रोटस ने जो कहा है उस पर ध्यान देवे ’जीवन किसी को स्थायी सम्पति के रूप में नहीं मिला है। वह एक निश्चित समय के लिए मिला है’ भारत के साहित्यकार, समीक्षक श्री रामचन्द्र शुक्ल इसका इलाज बताते हुए लिखते है ’इर्ष्या की सबसे अच्छी दवा है उघोग और आशा।’
इस बिन्दु पर हम पाते है कि दुःख, तनाव, अवसाद, हृदयरोग आदि ये अपने आप हमारे अन्दर उत्पन्न होते है। इस दुःख के कारण हम ही है इसके लिए किसी अन्य को दोष देना, अपने आपको धोखा देना है।
हमारे दुःखों का कारण हम ही है - हम अनेक बीमारियों, मनोभावों से दुःखी होते है। उसके कारण हम ही है हम ही अधिक भोजन कर, प्रकृति के विरूद्ध आचरण कर, लोभ लालच में पड़ कर नैतिक मूल्यों का उल्लंघन करते रहे हैं और अपराध की और प्रवृत होते है। हम सब जानते है कि शराब, माँस, फास्ट फुड आदि हमारे स्वास्थ के दुश्मन है। तम्बाखू किसी भी तरह स्वास्थप्रद नहीं है, फिर भी हम आधुनिकता के नाम पर दिखावा करते हुए उसे छोड़ नहीं पा रहे है। हम श्रम से दूर भाग रहे है विश्राम का आनन्द ले रहे है, व्यायाम छोड रहे है। इन दुःखों के लिए किसे दोष देंगे? ये दुःख हमारे बोए बीज है जिन्हे हम ही फसल के रूप में काट रहे है। चरक संहिता में कहा गया है ’शरीर और मन; रोगों तथा अस्वस्थता के आधार है। जब (शरीर, मन और इन्द्रिय विषय का) समान योग होता है। तब स्वस्थता होती है और इनका असमान योग होता है तब रोग होता है ’हम रोग के कारण दारूण दुःख भोगते है। मन के कारण अपराध की तरफ भी जाते है जो दुःखों में वृद्धि का कारण है। साहित्यकार इलाचन्द्र जोषी जहाज के पंछी में लिखते है ’समाज में प्रतिदिन जो अपराधों और दुश्कर्मों की संख्याएँ बढ़ती चली आ रही है, उसका प्रधान कारण आज के युग की यही सहानुभूति रहित, संवदेना शुन्य प्रवृतियो, विषम सामाजिक परिस्थितियाँ और सामूहिक भ्रष्टाचार ही है।’
इससे स्पष्ट है कि हमारे आधुनिक जीवन शैली और मन के कारण ही बीमारियां बढ़ रही है। अपराध बढ़ रहे है और इसके लिए हम ही व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार है। हमारे दुःखों के कारण हम ही है।
क्या हम भी लोगो को दुःखी कर रहे है?- यह भी एक प्रश्न है। हमें अन्य व्यक्तियों के कारण दुःख नहीं हो रहा है जितने सक्षम, बलवान और राज्य शक्ति प्राप्त व्यक्ति है वे अपने कारणों से दुःखी है, पर क्या हम भी अपने आसपास रहने वाले ,परिजनों ,वयोवृद्धों को दुःखी नहीं कर रहे है। हम अपने बच्चों, माता-पिता, पति-पत्नी, पडोसी को दिन रात दुःख दे रहे है। ऐसी घटनाओं का वर्णन समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रहे है। पुरूषवादी समाज के कारण महिलाएं दुःखी है तो पत्नी पीडित संघ भी अपना रोना गा रहे है।
इससे स्पष्ट है कि हम दुःखों का कारण खुद है किसी अन्य का इसमें महत्वपूर्ण योगदान नहीं है।
क्या भगवान हमें दुःख भेजता है? - एक प्रश्न यह भी है कि भगवान दुर्घटना, बीमारियां, मृत्यु, भूकम्प, बाढ़ आदि के द्वारा हमें दुःखी करता है। भगवान हमें बिना कारण भी दुःखी करता है। हम बिना किसी भूल के भी परेशान होते है। यह सब भगवान की माया है।
उपरोक्त सभी धारणाएं या मान्यताएं भ्रम है, भूल है। भगवान गीता में कहते है कि वे किसी से राग द्वेश नहीं करते। प्रत्येक प्राणी उन्ही का अन्श है। वे अपने अन्श को जानबूझकर क्यों कष्ट पहुँचाएगे। हम सब अपने कर्मों का फल भोगते है। हमने देखा कि हमारी इर्षा द्वेश हमें दुःख पहुँचाते है। बीमारियों के कारण है। हमारी प्रकृति के विरूद्ध जीवन शैली हमारी बीमारियों के कारण है। हमारी श्रम व व्यायाम के प्रति उपेक्षा हमें दुःख में पड़ने का कारण है। भगवान कृष्ण गीता के पाँचवे अध्याय के पन्द्रहवे श्लोक में कहते है ’परमेष्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किन्तु सारे देहधारी जीव अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते है। जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किए रहता है।’
हमारे सुख दुःखों से भगवान का कोई लेना देना नहीं है। हमारे कर्म ही हमारे सुख दुःख के कारण है। भूकम्प, बाढ़ के दुःख बहुत कम आते है। बहुत थोडे क्षेत्र में में आते है, उसके आने के प्राकृतिक कारण है। इसलिए उसका दुःख दुःख नहीं है। उसे तो सहज स्वीकार करना चाहिए।
देह धरन को दण्ड है - यह दुःख जो मृत्यु के कारण हमें सताता है। यह देह धारण करने का अनिवार्य परिणाम है। हमारे देश में भगवान ने भी अवतार लेकर देह धारण की तो उन्हे भी दुःख उठाना पडा। देह धारण के साथ ये दुःख अनिवार्य है इसे स्वीकार करना पडेगा। तुलसीदासजी लिखते है -
देह धरन का दोष है सब काहू को होय,
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मुरख भुगते रोय।।
अगर हम ज्ञान की दृष्टि से देखेगे तो फिर दुःखी होने का कारण नहीं है।
महात्मा बुद्ध के समय की घटना है। एक माँ का एकलौता पुत्र मर गया। वह रोई, चिल्लाई। उसके दारूण दुःख को देख लोगों ने उसे महात्मा बुद्ध के पास भेज दिया। महात्मा बुद्ध ने कहा ’तुम एक मुट्ठी अन्न ऐसे घर से ले आओ जहाँ आज तक किसी की मृत्यु न हुई हो।’ वह माँ दिन भर घर घर भटकी पर उसे ऐसा घर नहीं मिला जहाँ किसी की मृत्यु न हुई तो वह जीवन की वास्तविकता समझ गई। उसे ज्ञान प्राप्त हो गया। उसका दुःख जाता रहा। हमारे दुःख जो वास्तविक नहीं है वे हमारे अज्ञान के कारण है। शेष के बीज हमने बोए है।
दुःखों को स्वीकार करो - दुःख यदि हमारे कारण नहीं आए, बिना अपराध के आ गए है तो उन्हे स्वीकार करो। चुनौती मान स्वीकार करो। फिर वे दुःख आपकी आन्तरिक शक्ति का अभ्युदय करने आए है। विचार कीजिए भगवान श्रीराम के वनवास में उनका व्यक्तिगत क्या दोष था। वह तो मन्थरा के राग द्वेश का कारण था। भगवान श्रीराम ने उस वनवास को सहर्ष स्वीकार किया। कोई दुःख कहीं दिखाई नहीं दिया। विद्रोह का विचार ही नहीं। उन्होने उस दुःख को स्वीकार किया। चुनौती माना, वे चल दिए वनवास, उन्हे हम आज कहते है मर्यादा पुरूषोत्तम।
यदि वे राज्य के लिए विद्रोह करते। सफल भी होते तो क्या होते? वे एक राजा होकर याद किए जा सकते थे। संघर्षो में चुनोती स्वीकार कर उनका चरित्र निखरा, वे पुरूषोत्तम हो गए। हम सब श्रद्धा से उन्हे स्मरण करते है। महाभारत में यदि पांच पाण्डवों को अज्ञातवास सहन न करना पडता तो क्या होता उनका चरित्र। चरित्र पर चमक संघर्षो में ही आती है। चुनोती आ ही गई है तो स्वीकार करो। दुःखी और निराष होने का कारण नहीं है। भगवान कृष्ण ने तो मृत्यु तक के आगमन के सन्देश को हॅसते हॅसते स्वीकारा।
कहाँ से आते है दुःख - दुःख सुख हमारी ही उपज है। हमारे मन का व कर्मो का खेल है। वे बाहर की दुनिया से नहीं आते। हम ही अपने स्वार्थ, अभिमान, लोभ, लालच, रागद्वेश के कारण उन्हे निमंत्रण देकर बुलाते है। अपने अंदर झांकिए। एकान्त में चिन्तन कीजिए, पता चलेगा हमारे दुःखों की खेती हमने ही की है।
ये दुःख जैसे आते है, वैसे ही चले भी जाते है। दुःखों के आने जाने का खेल सुखों की तरह चलता रहता है। अच्छा है सुख और दुःख समय के अन्तराल में विस्मृति के गड्डे में दफन हो जाते है। केवल हमारे किए पाप कभी कभी एकान्त क्षणों में हमारे मानस पटल पर छा हमें मजबूर कर देते है कि हम भविष्य में अपने कर्तव्य-कर्मो के प्रति सावधान रहे।
दुःख हमारी ही उपज है। वे हमारे अन्दर ही दफन है। विस्मृति की गर्त में है। भगवान कृष्ण भगवद्गीता (2/14) में कहते है ’हे कुन्ती पुत्र! सुख तथा दुःख का क्षणिक उदय और कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है’ इसलिए जब बच्चे ने कहा ’यह ज्योति कहाँ चली गई?’ तब एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा हुआ था। यह ज्योति हमारी चेतना की प्रतीक है। यह कहीं आती जाती नहीं। यह हमारे अन्तर आत्मा का ही प्रकाश है।
सत्यनारायण भटनागर
Wednesday, August 12, 2009
हर सैनिक के लिए जीत सुरक्षित है
लेकिन इन सबसे अलग कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन को एक युद्ध कहते हैं- एक समर, एक संग्राम। उनका मत है कि जीवन रूपी युद्ध में हम सब अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर विजेता बनते हैं। जीवन एक अवसर है जिसमें हम सफलता पाते हैं।
जीवन के इस युद्ध में जीवन-मरण दोनों हैं। शुभ है तो अशुभ भी है। एक ही जीवन में सारे गुण-अवगुण समाहित हैं। हां, संघर्ष सबका अलग-अलग है। किसी के जीवन में आज खुशी है, कल गम है। किसी और के जीवन में आज गम है, कल खुशी है। इन सब के बीच जो एक सैनिक की तरह जिया, वही सफल जीवन जी पाया।
इस युद्ध में धर्म को भी साथ-साथ साधना पड़ता है। इसे धर्मयुद्ध बनाना एक कला है। इसीलिए भारतीय शास्त्रों में इस संग्राम का मुक्त कण्ठ से गौरवगान किया गया है। कहा जाता है कि इस संग्राम में मारे जाने पर स्वर्ग प्राप्त होता है और जीतने पर यश मिलता है। लोक में दोनों ही सम्माननीय है।
गीता हमें जीवन में निष्काम कर्म करने का सन्देश देती है। संसार में आसक्ति ही हमारे दुख और कष्ट का कारण है। लेकिन क्या कर्म योग संसार में व्यावहारिक रूप में प्रयोग किया जा सकता है? यहां तो हम अनेक प्रकार के राग, द्वेष, घृणा और लोभ आदि से घिरे हुए हैं। यह दर्शन और सिद्घांत के स्तर पर तो यह ठीक लगता है, लेकिन रोजमर्रा के जीवन में, व्यवहार में हम उसका कैसे प्रयोग करें, यह समझ में नहीं आता। युद्ध का सैनिक ब्रह्मज्ञानी कैसे बने? यह समझ नहीं आता।
इसके लिए हम गांधी की वाणी सुनते हैं। वे अहिंसा के प्रबल पक्षधर थे। वे कहते थे कि एक सैनिक यह चिन्ता कब करता है कि उसके बाद उसके काम का क्या होगा? वह तो अपने वर्तमान कर्तव्य की ही चिन्ता करता है। एक सैनिक की तरह यदि हम अपने वर्तमान कर्त्तव्य को ही चिन्ता रहित होकर करते रहें तो हमारा कृत्य निष्काम कर्म होगा।
लेकिन होता यह है कि हम अपना कर्म किसी न किसी स्वार्थ, लोभ या अहंकार के वश में होकर करते हैं। मृत्यु की तो हम सोच ही नहीं सकते। यदि किसी कर्म में मृत्यु की आशंका हो तो हम भाग खड़े होंगे। पर युद्ध क्षेत्र में खड़ा सैनिक तो मृत्यु को पहली शर्त के रूप में स्वीकार करता है। मृत्यु से मित्रता के बिना तो कोई सैनिक हो ही नहीं सकता।
सैनिक युद्ध करते हैं, उनका अपना कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं होता। वे देश के लिए लड़ते हैं। वे जानते हैं कि युद्ध में हार या जीत कुछ भी हो सकती है। वे मृत्यु के लिए तैयार होकर लड़ते हैं। वे सदा अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं।
ऐसे ही यदि जीवन संग्राम में हम अपने स्वार्थ को अलग रख कर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने को तत्पर रहें तो कहा जाएगा कि हमने निष्काम कर्म योग को धारण कर लिया है। फल तो हमें जो मिलना होगा, मिलेगा। कोई सैनिक इसकी चिंता कहां करता है।
सुकरात एथेंस के नगर राज्य में विष का प्याला पी गए, किन्तु सत्य पर डटे रहे। चाहते तो समझौता कर सकते थे, पर संग्राम में समझौते कहां होते हैं। हमारे जीवन संग्राम में हर व्यक्ति का अपना एक लक्ष्य होता है। जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसे ही तुम्हारे कर्म होंगे। जैसे तुम्हारे कर्म होंगे, वैसा ही तुम्हारा जीवन होगा।
लेकिन एक सैनिक की तरह निष्काम भाव से सदा अपना सर्वश्रेष्ठ करने वाले हर व्यक्ति के लिए जीत हमेशा सुरक्षित है!
सत्यनारायण भटनागर
जानिए अपने आपको
लेकिन इस सच्चाई के साथ एक दूसरी सच्चाई भी है। जिस पर हम ध्यान नही दे रहे है। हम दुनिया को तो जान रहे है पर अपने आस पास से बेबखर है। हम अमेरिका, इंग्लैण्ड, चीन, जापान की तो सब जानकारी रखते है पर अपने पडोसी की जानकारी नही रखते। मैं जब मुम्बई में अपने पुत्र के यहाँ निवास कर रहा था तो मुझे पता चला कि चौथे माले में किसी की मृत्यु हो गई। पूछा कौन है - करता क्या था - परिवार की क्या स्थिति है - तो बताया कोई नही जानता। उसका निकटतम पडोसी भी नही जानता। इस भागदौड की गला काट प्रतियोगिता के युग में किसके पास समय है कि अपने पडोसी के सम्बन्ध में ये सब जानकारी रखें, फिर आजकल यह बुरा माना जाता है कि पडोसी के सम्बन्ध में गहरी रुचि ली जाए। सब अपनी-अपनी जिन्दगी जिए और मस्त रहे, यही सभ्यता है।
ऐसा नही है कि यह मुम्बई महानगर का सत्य हो। इन्दौर, उज्जैन, रतलाम जैसे नगरों में फ्लेट व्यवस्था में यही स्थिति है। अब कालोनी बस गई है। कालोनी में कौन रहता है, क्या करता है - कोई नहीं जानता, न जानने का वक्त है और न यह आधुनिक सभ्यता है कि ऐसी पूछताछ की जावे। छोडिए पडोसी की बात। क्या हम अपने परिवार के बारे में सब जानते हैं - एक छत के नीचे रहने वाले हम क्या एक दूसरे के सम्बन्ध में जानकारी रखते है। अभी मैंने इन्दौर का एक समाचार पढा। एक युवा शराब के नशे में वाहन चलाते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उसकी मृत्यु हो गई। उसको माता-पिता, परिजन दुःखी हुए। वे आर्श्चर्य चकित थे कि उनका बेटा शराब पीए हुआ था। वे जानते ही नही थे कि वह शराब पीता है। एक अन्य समाचार था कि कुछ ऐसे ही पढे लिखे सम्पन्न परिवार के युवा रात को शराब के नशे में एक चौराहे पर लूटपाट करते पकडे गए। उनके माता-पिता से पूछताछ हुइ। उन्होंने बताया कि उन्हें पता ही नही है कि उनका पुत्र कब घर आता है - जाता है - वे तो समझते थे कि वह कालेज में पढ रहा है। उन्होंने पुत्र को सब सुविधाएँ उपलब्ध करा दी थी। आर्थिक व्यवस्था कर दी थी। वे दोनों माता-पिता अपने काम धन्धे में इतने व्यस्त थे कि उनके पास अपने जवान बेटे के लिए समय ही नही था।
क्या यह स्थिति हमारी नही है। मैने अनुभव से जाना कि अब माता-पिता यह नही जानते है उनके पुत्र-पुत्री के मित्र कौन है - वे क्या करते है, उनके माता-पिता क्या करते है - आदि। अब किसी के पास समय ही नही है और ये प्रश्न र्व्यर्थ समझे जाते है। कहा जाता है कि जवान बेटे बेटी स्वयं समझदार है। वे सोच समझकर निर्णय करेगें। वे अपने मालिक है। हम इसकी चिंता क्यों करें - पर जब कोई दुर्घटना हो जाती है तो चिन्ता परेशानी तो होती ही है। आज जितना तनाव, डिप्रेशन युवाओं में है, उतना कभी नही रहा। युवा वर्ग आत्महत्या करने में सबसे आगे है। अपराध की दुनिया हो, या तेज गाडी चलाते दुर्घटना युवा वर्ग के नाम का उल्लेख अवश्य होगा। क्या कभी हमारे मन में प्रश्न उठा कि इसके लिए कौन दोषी है, केवल परिजन। अब हम जब एक दूसरे की परवाह नही करते तो फिर प्रेम कैसे और कहाँ होगा। बेटे-बेटी की बात तो अलग है। अब तो पति-पत्नी की दुनिया अलग-अलग है। वे भी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त रहते है। उनके पास भी एक दूसरे को समझने के लिए समय कहाँ है। इसलिए परिवारों में तनाव है। तलाक है, न्यायालय के द्वार खुले है। महिला और पुरुष घरेलु हिंसा के शिकार हो रहे है। हम सारी दुनिया को जानते है। अपने परिवार के सदस्यों को नही जानते। कैसा अच्छा मजाक है।
परिवार के सम्बन्ध में जानने का समय हमारे पास नही है तो क्या हम अपने आपके सम्बन्ध में कुछ भी जानते है । भारतीय ऋषि-मुनियों और शास्त्रों का स्पष्ट अभिमत है कि व्यक्ति जब स्वयं को जान लेता है तब वह शेष सबको जान लेता है । फिर जानने के लिए कुछ भी शेष नही रहता । जब हम मिट्टी या स्वर्ण को जान लेते है तब इनसे बनी प्रत्येक वस्तु को जान लेते है। भारतीय जीवन दर्शन ही नही दुनिया भर के दार्शनिक कहते है, "अपने को जानो" मैं कौन हूँ यह प्रश्न है। मैं वह नही हूँ जो कार्य मैं करता हूँ। वह तो मेरा व्यवसाय है। वास्तव में स्वयं की खोज ही सबसे महत्वपुर्ण खोज है।
अपने आपको जानने के इस प्रश्न के निराकरण के लिए ही भारतीय दार्शनिक ने प्राणायाम, ध्यान, योग आदि की व्यवस्था की क्योंकि अपने आपको जान लेना सामान्य ढंग नही है। हमारी प्रकृति उसके गुण और मन-इन्द्रिया और बुद्धि इन सबको समझना, नियंत्रण में रखना और अपने कल्याण के लिए विवेक का उपयोग करना ही अपने आपको जानना है। श्रीमद् भागवत गीता में कहा गया है "जिस काल में साधक मन में आई सम्पुर्ण कामनाओं का भली भाँति त्याग कर देता है और अपने आप में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थिर बुद्धि कहा जाता है।" यह स्थिर बुद्धि क्या है - कृष्ण यह समझा रहे है। इसके परिणाम के संबंध में वे कहते है "जो मनुष्य अपने आप में ही रमण करने वाला और अपने आप में ही तृप्त तथा अपने आप में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नही है।"
ऐसा क्यों है - क्योंकि भारतीय दर्शन में आप ही सबसे महत्वपुर्ण है। यह संसार हम सबसे मिलकर बना है। हमारा ही विस्तार यह सृष्टि है। ये सूरज और चाँद, तारे सीतारे हमारे लिए ही है। ये हवा और वर्षा, यह सर्दी और गर्मी सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए ही है। यदि हम न हो तो इसके होने का क्या अर्थ है। हम इस प्रकृति के ही अंग है। हमारा यह क्षण भंगुर शरीर जो प्रतिक्षण बदल रहा है, हमारी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसी प्रकृति के अंग है लेकिन यह सब भी हम नही है। हम इन सबसे अलग है। अपने आपको खोजना इसलिए महत्वपुर्ण है। महर्षि सुकरात इसीलिए जोर देकर कहते हैं 'अपने आपको जान' अपने आपको जानने का प्रयत्न ही प्राणायाम, ध्यान और योग है जो हम दुनिया भर को जानने के चक्कर में नही कर पाते।
योग, प्राणायाम और ध्यान हम नही कर पाते किन्तु हम अपने आप से एक व्यक्ति की तरह कभी एकान्त में यह प्रश्न भी करते हैं कि हम इतने मोटे क्यों है - इसके लिए क्या करना चाहिए। हमारी कमजोरियाँ या गलत आदतें क्या है - हम शराब, सिगरेट, जुँआ कैसे छोड सकते हैं। हम क्या अपने शरीर के प्रति, परिवार के प्रति, समाज और देश के प्रति अपना कर्तव्य निर्वाह कर रहे है। अपने नियत कर्तव्य कर्मों को बिना किसी आसक्ति के करना ही तो योग है। हम वास्तव में अपने आप को जानने का प्रयत्न नही करते। विज्ञान चाहे आसमान छूने की प्रगति कर ले और दुनिया चाहे हमारी मुठ्ठी में बंद होने लायक हो जाए किन्तु हम जब तक अपने आपको न जानेगे, परिवार और समाज के प्रति हमारे कर्तव्यों और दायित्वों का निर्वाह नही करेंगे तब तक हमें इन वैज्ञानिक उपलब्धियों का क्या लाभ होगा। भारतीय विचार दर्शन के अनुसार अपने मूल स्वरुप को जानने का अर्थ सब कुछ जान लेना। हम खुद के स्वार्थ के लिए बने ही नही है हम है ही सम्पुर्ण ब्रहृमाण्ड के लिए। इसे जानने के बाद फिर कुछ भी जानना कहाँ शेष रहता है।
सत्यनारायण भटनागर
सदा सजग रहने का विज्ञान है अहिंसा
अहिंसा को लेकर प्राय: यह विचार किया जाता है कि हिंसा का विलोम अहिंसा है किन्तु ऐसा है नहीं। अहिंसा अपने आप में पूर्ण विचार है। यह जीवन जिने का ढंग है। केवल हिंसा न करना ही अहिंसा नहीं है। अहिंसा सजग होकर प्रतिक्षण जिने का एक ढंग है। हम अपने प्रत्येक कृत्य को जब सजग होकर ध्यानपूर्वक करते है तब अहिंसा का जन्म होता है।
हम अपने मकान में प्रवेश करते है तब दरवाजे को जोर से धक्का देते है या दरवाजे को जोर से बन्द करते है। दरवाजे से आवाज होती है। क्या आपने विचार किया कि हम क्या कर रहे है? क्या हम दरवाजे के प्रति हिंसा तो नहीं कर रहे। हम अपने कार्य से वापस निवास पर आते है। हमारे जूते चाहे जैसे पटक देते है, कपडे उतार कर चाहे जैसे बिस्तर पर पटक देते है। हमें आशा होती है कि पत्नी या नौकर कोई इसे व्यवस्थित जमा देगा। हम थके हुए है। बिस्तर पर पड जाते है। क्या हम कपडे व जूतों के साथ हिंसा नहीं करते? क्या हम अपने द्वार, जूते, कपडों से कभी क्षमा मॉगते है? अहिंसा इसी का नाम है कि हमारे मन में निर्जीव वस्तुओं के प्रति भी अपनत्व का भाव हो। प्रेम का भाव हो। वे भले ही शिकायत न करे किन्तु हम उनके प्रति आदर का भाव रखे। हम जितना उनके प्रति आदर का भाव रखेगे, उतना ही उनके कारण हमारा सम्मान बढेगा। यदि हम उनके साथ चाहे जैसा व्यवहार करेगे तो हम हिंसा को अपने अन्तरतम् की गहराई में स्थान देकर रखेगे और अहिंसा के बाहरी रूप के प्रति भले ही सचेत हो पर हदय की पवित्रता से उसका सम्बन्ध न हो सकेगा।
मालिक मत बनिए - हमारे चलने में धमक हो तो पृथ्वी को कष्ट होगा - कभी सोचा है। धमक कर चलने का अर्थ है एक व्यर्थ की अकड जिसका सम्बंध अंहकार से है। किसी के मालिक होकर जिना अंहकार है, शोषण है। अत: न तो नौकर के मालिक बनिए, न पत्नी बच्चों के। सहज होकर मधुर वाणी में बोलिए। यह सहजता आपका मूल चरित्र होना चाहिए। सादा जीवन उच्च विचार से अहिंसा का प्रारम्भ होता है। बोलचाल में अकड कर बोलना, गाली गलोच, निन्दा करना, चुगली करना, अफवाह फैलाना भी हिंसा है। प्रसिद्ध साहित्यकार बर्नाडशा कहते है "जिसकी आवाज में माधुर्य नहीं वह मानव व पशुओ से निर्मित कोई पिशाच है।" इन आदतों से समाज का वातावरण बिगडता है। हॉं हमारा इससे कोई फायदा नहीं होता। हम इन आदतो के साथ अपने आपको अहिंसक नहीं कह सकते।
क्षमा मॉगिए - यदि कभी भूले भटके हमसे ऐसी कोई गलती हो ही जाए जो आदतों के कारण होना स्वाभाविक ही है तो हमें तत्काल सचेत होना चाहिए। आप दरवाजे से, जूते से, कपडे से भी क्षमा मांग कर देखिए। एक विचित्र सन्तोष प्राप्त होगा। आप अगली बार ध्यानपूर्वक प्रेम से दरवाजा खोलेगे, जूते उतारेगे और आप पाएगे, कि एक व्यवस्था आपके जीवन में स्थान पा रही है। केवल जीव हिंसा ही हिंसा नहीं है। अंहकार, स्वार्थ और प्राणीमात्र के प्रति विषमता भी हिंसा है।
सदा सजग रहने का विज्ञान - अहिंसा एक वैज्ञानिक विषय है। यह जीवन की कला है जो हमें प्रेम पूर्वक जीवन निर्वाह का मार्ग प्रशस्त करती है। अहिंसा से यदि किसी दुराचारी का हदय परिवर्तन होता है तो उसका कारण यही है कि अहिंसा जीवन में गहराई तक उतर गई है। जीवन में यदि अहिंसा आभूषण की तरह दिखावटी है तो वह उपरी है और उससे किसी दुट दुराचारी का हदय परिवर्तित नहीं होता। यदि अहिंसा जीवन में ध्यान के रूप में उतरी है और प्रतिक्षण हम सजग होकर जीवन जी रहे है तो वह अहिंसा चरित्र का अंग बनकर उभरती है। बुद्ध, महावीर ने इसी अहिंसा का उपदेश दिया था और महात्मा गॉंधी ने इसी को सत्य के प्रयोग के रूप में सार्वजनिक जीवन में स्थापित किया। करूणा, प्रेम, सत्य अहिंसा परिवार के सदस्य है। जहॉं अहिंसा है वहॉं यह सब बिना बुलाए मेहमान की तरह उपस्थित रहेगे। सदा सजग रहने का विज्ञान है अहिंसा।
हिंसा की व्यर्थता - हमारे देश में महाभारत का भीषण युद्ध लडा गया। क्या वह हिंसा की गौरव गाथा है। उसके परिणाम यह सिद्ध करते है कि युद्ध व्यर्थ है। उसमें ईर्ष्या, द्वेष और आंसु ही शेष बचते है। अशोक महान ने युद्ध में विजय प्राप्त कर क्या पाया। खून खराबे के बाद उन्होने गाया अहिंसा का अमर गान। आज तक जितने भी युद्ध हुए है उसके अन्तिम परिणाम में हाहाकार ही शेष बचा है। मानवता का कोई विचार किसी युद्ध से आज तक उभर कर नहीं आया।
बडे बडे युद्धों की बात छोडिए। हमारे जीवन में स्वार्थ और अंहकार के वश जो छोटे छोटे विवाद, झगडे होते है, उनके क्या परिणाम निकलते है। उन पर विचार कीजिए। वर्षो न्यायालय के चक्कर, धन हानि, समय का अपव्यय, जग हॅसाई के अतिरिक्त किसी को कुछ मिला हो ऐसी जानकारी किसी को नही है। महाभारत और गीता में अहिंसा का गुणगान देवी सम्पति के गुणों के रूप में की गई है।
अहिंसा सब से बडा धर्म - महाभारत के आदिपर्व 11/13 में कहा गया है "अहिंसा परमोधर्म" अर्थात् अहिंसा उत्तम धर्म है। अनुशासन पर्व 116/28-29 में कहा गया है "अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है तथा अहिंसा परम तप है। अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है तथा अहिंसा परम सुख है।"
अहिंसा को केवल जीव हिंसा तक सीमित मत मानिए उसे जीवन जिने के विज्ञान के रूप में जीवन में उतारिए। ध्यानपूर्वक जीवन को अहिंसा मय बनाइए। अहिंसा हमारे जीवन में चरित्र के रूप में उभरना चाहिए तभी परिवर्तन की बयार चलेगी और उसका प्रभाव दूर दूर तक दिखाई देगा।
सत्यनारायण भटनागर
Monday, August 10, 2009
परिंदे जब गुनगुनाते हैं जीवन का गीत
हिन्दी में एक सन्त कवि हो गए हैं मलूकदास। उनकी ये पंक्तिया बहुत सुनाई जाती है, दोहराई जाती है।
अजगर करें न चाकरी, पंछी करे न काज।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
व्यवहारिक अनुभव में मलूकदास के इन विचारों से सहमत होने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। दुनिया में कर्मवाद का सिद्धांत प्राणी मात्र पर दिखाई देता है। पंछी पर तो विशेष रूप से कर्म का सिद्धांत प्रभावी दिखाई देता है। पंछी बिना काम किए दाना पानी प्राप्त कर ही नहीं सकता। हम अक्सर देखते है कि पंछी प्रात: काल की पहली किरण के साथ पंख फडफ़ड़ाकर आकाश में उड़ान भरते है। वे खोजते है दाना-पानी। कैसी ही आंधी चले, वर्षा हो, तूफान आए, आसमान से सूरज अंगारे बरसाए या बर्फ गिरे पंछी समस्त परिस्थियों में संघर्षरत रहता है। वह बिना काम के एक क्षण भी नहीं रहता। पंछी कर्मयोगी होता है। वह अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक कर्मयोगी बना रहता है। सन्त कवि मलूकदास ने अध्यात्म की दृष्टि से जो कुछ कहा, वह वास्तविक जीवन का सच नहीं है। इस दोहे ने आलसियों को भले ही सन्तोष दिया हो किन्तु यह व्यवहारिक जीवन का सच नहीं है। पंछी अनेक जातियों के है। अधिकतर पक्षियों के पंख होते है और ये हवा में उड़ते हैं। ये अत्यंत सुंदर होते हैं, भोले होते हैं और स्वतंत्र होते हैं। कोई पक्षी गुलाम मानसिकता का हो ही नहीं सकता। जो पींजरे में बंद हैं, वे मजबूर है। पींजरे में रहना उनका आनन्द नहीं है। सब सुख सुविधा पाने के बाद भी उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने लिखा है-
ए तायरे-लाहूती उस रिज्क से मौत अच्छी
जिस रिज्क से आती हो परवाज में कोताही ..
अर्थात ओ आसमान में उडऩे वाले पंछी उस जीविका से मौत अच्छी जिस जीविका में उडऩे में बाधा पड़ती हो। कोई पंछी घोसला बना कर भी नहीं रहना चाहता, सब खुले आसमान के नीचे किसी वृक्ष की छाया में अपना बसेरा रखते है। पक्षी प्रकृति की सन्तान है, वे प्रकृति के साथ जीवन प्रारम्भ करते है और प्रकृति के साथ खेलते कुदते अठखेलिया करते अन्तिम सांस लेते है। प्रकृति कर्मयोग सीखती है। प्रकृति के साथ आलस्य रह नहीं सकता। पक्षी केवल प्रसव काल में अपने बच्चें पर आत्मनिर्भर होने तक घोसलों में रहते है। अपनी सन्तान के पंखों की ताकत आते ही वे खुले आकाश में उड़ कर गाना गाते है, नाचते है। गाते-खाते है इठलाते है। दुनिया भर के बवण्डरों के बाद भी पंछी अपने पंखों पर ही विश्वास करते है। चिडिय़ा पंछी आसमान में उड़ते हुए गाना गाती है। उसका गाना बिना साज के आनन्द देता है। वातावरण को मनोरम बनाता है। आसमान में उड़ते हुए क्या आपने किसी चिडिय़ा का बिना कारण चहचहाना सुना है। यह क्षण आनन्द का क्षण है, प्रसिद्ध विद्वान जोअन एग्लाड कहते है- चिडिय़ा इसलिए नहीं गाती कि उसके पास गाने के कारण है, वह गाती है क्योंकि उसके पास गीत है ..। प्रकृतिविद् कहते है कि चिडिय़ा अपने साथी को आकर्षित करने के लिए गाती है। चिडिय़ा न केवल गाती है, वह नाचती भी है। क्या आपने मयूर का नृत्य नहीं देखा। उस नृत्य को देखकर तो हमारा भी मनमयूर नाचने लगता है। नृत्य करना सामान्य क्रिया नहीं है। जब तक हमारा मन आनन्द से परिपूर्ण न हो हम नाच ही नहीं सकते।
हम तो अपनी पद-प्रतिष्ठा और वातावरण के कारण संकोच धारण कर लेते है। सार्वजनिक रूप से नाचना ही नहीं चाहते किन्तु वास्तव में जब आनन्द के क्षण हमारे अन्दर हिलोरे लेने लगते है, तब हम बिना नाचे रह ही नहीं सकते। हमारे पैर तब अनायास थिरकने लगते है। इसलिए पक्षी हमें नृत्य का भरपूर आनन्द लेने का सन्देश देते है। अंग्रेजी के लेखक मार्क ट्वेन लिखते है- नृत्य का आरम्भ किया जाए, आनन्द को बेशुमार बनने दिया जाये.. पक्षी हमें सन्देश देते है आनन्द से नृत्य करने के लिए, मुक्त रूप से गीत गाने के लिए, निरन्तर कर्मरत रहने के लिए। पक्षी वर्ग हमारे पर्यावरण को स्वच्छ रखने में भी हमारे सहयोगी होते है। वे कीट, पतंगों का भक्षण कर अनायास ही हमारे वातावरण को शुद्ध करते है। आज हमारे प्राकृतिक परिवेश में गिद्ध अत्यन्त कम पड़ गए है अत: मृत पशु, पक्षियों की लाश दुर्गन्ध छोड़ती है एक विकराल समस्या खड़ी कर रहीं है। ये प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। जलचर पक्षी जल में किल्लोल करते जहां आनन्द मनाते है, वहां जल की शुद्धि भी करते है। पक्षी पर्यावरण की शुद्धता-स्वच्छता बनाए रखने के लिए अनथक प्रयत्नशील अधिकारी है।
पक्षी निहारने का आनन्द- पक्षी निहारने के क्षण जहां हमें आनन्द देते हैं, वहां वे हमारे लिए शिक्षालय का काम भी करते है। उनकी प्रत्येक गतिविधि का अर्थ होता है, उनका बोलना, चहचहाना, गाना अपने आप में मगन रहना आदि हमें जीवन में प्रेरणा देता है। स्मरण रहे पक्षी कभी अवसाद में नहीं जाते। कितने ही तूफान हो, वर्षा हो, वे संघर्ष करते है। संघर्ष करते हुए मृत्यु को भले ही प्राप्त हो पर वे तनावग्रस्त हो आत्म हत्या नहीं करते। अब पक्षी निहारने के कार्य में लगे वैज्ञानिक भी मानने लगे है कि पक्षी भी अनुभव से हमारी तरह ही सीखते है उनमें तर्क की समझ होती है। वे समय के साथ अपने आप में परिवर्तन कर लेते है। पक्षी निहारना जहां हमें शिक्षा देता है, वहीं तनाव से मुक्त भी करता है। परिंदे निहारते समय उनकी प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान दिया जाता है। वे कैसे रहते है? उनका आकार और रंग कैसा है। वे क्या खाते है वे प्रवास करते है तो किस मौसम में करते है। प्रजनन के लिए घोंसला कहां बनाते हैं आदि। पक्षी के प्रति प्रेम-प्रकृति के प्रति प्रेम है।
हमारी प्राचीन कथाओं में इसलिए पक्षियों का वर्णन है। लोक कलाओं में भी विभिन्न पक्षियों को कलाकृति के रूप में उकेरा गया है। भारतीय ऋषियों को हजारों वर्ष पूर्व यह ज्ञान हो गया था कि मानव इस प्रकृति श्रॄन्खला की एक कड़ी है। मानव में योग्यता, क्षमता है कि वे इस वर्ग की रक्षा कर सके। मानव परिन्दों को सहजीवी बनाए। अध्यात्म में पक्षी- भारतीय ऋषियों ने आत्मा को अणु के रूप में माना है और प्रतीक रूप में आत्मा व परमात्मा को दो मित्र पक्षियों की उपमा दी है। मुण्डक और श्वेताश्वसर उपनिषदों में इन्हें दो ऐसे मित्र पक्षी बताए है जो एक ही वृक्ष पर बैठे है। इसमें एक पक्षी संसार रूपी वृक्ष के फलों को खा रहा है और दूसरा परमात्मा रूपी पक्षी अपने मित्र को देख रहा है। परमात्मा की ही अंश रूप आत्मा है। इनमें समान गुण है किन्तु हम संसार रूपी वृक्ष के भौतिक फलों पर मोहित हो परमात्मा को विस्मृत कर देते है। परमात्मा साक्षी रूप हमें निहारता रहता है। इन उपनिषदों में कहा गया है-
सामने वृक्षे परूषों निमगोन्डनीशया शोचति मुहयमान।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यभीशमस्य महिमानमिति वीत शोक:।।
अर्थात यद्यपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे है किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिन्ता और विषाद में निमग्न है। यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान की ओर उन्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरन्त सब चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है ऋषियों का यह प्रकृति प्रेम ही आत्मा के प्रतीक रूप में उजागर हुआ है। पक्षी के इस अणु रूप की महत्ता बताने के लिए एक छोटी चिडिया गौरय्या की संकल्प कथा प्रचलित है जिसमें गौरय्या के बार-बार निवेदन करने पर भी समुद्र अण्डे वापस नहीं करता, तब गौरय्या ने अपनी छोटी-सी चोंच से समुद्र के पानी को उलेचने का यत्न प्रारम्भ किया। यह प्रयत्न हंसी का कारण हो सकता था किन्तु कथा कहती है कि भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरूड़ को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने समुद्र को चेतावनी दी और तब समुद्र को अण्डे लौटाने पड़े। पक्षी राज गरूड़ की तो अनेक कथाएं महाभारत में वर्णित है। पक्षी केवल प्रतीक नहीं है। वे वास्तव में प्रकृति में सन्तुलन बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण कारक भी है। वे अनायास अध्यात्मिक जीवन का सन्देश भी देते है।
संकट में है पक्षी - आज पक्षी जगत संकट में है। हम पक्षियों की ओर ध्यान नहीं दे रहे। अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए अंधाधुंद रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे है। प्रकृतिविदों के अनुमान के अनुसार भारत में पाई जाने वाली 1700 प्रजातियों में से अनेक खतरे के बिन्दु पर पहुंच रही है। अस्सी प्रजातियां तो विलोपित हो गई है। घटते जंगल और बढ़ती आबादी प्रतिदिन परिन्दों के जीवन को दुश्वार बना रहे है। पक्षीविद् विश्वमोहन तिवारी कहते है- इसमें किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए कि पंछी नहीं तो मनुष्य भी नहीं बचेगा। भारतीय ऋषियों की हजारों वर्ष पूर्व की इस समझ का हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति के सन्तुलन को बचाए रखने में हमारा भी सक्रिय योगदान होना चाहिए।
सत्यनारायण भटनागर
जीने की कला का नाम हैं समता योग
हम जब सुख समृद्धि के मार्ग पर आगे बढते हैं तो आनन्द सागर में डूब जाते हैं पर जब दु:खों के पहाड टूटते हैं तो लगता हैं कि अब कुछ भी शेष नही रहना हैं। यह स्थिति तनाव पैदा करती हैं। इससे मनोबल टूटता हैं, हम डिप्रेशन में आ जाते हैं। हमारे लिए कोई ऐसा सहारा नही दिखता जिसके सहारे से हम स्थिति से उबर सके। ऐसी स्थिति में व्यक्ति निराषा और तनाव की तरफ बढता हैं जिसका अन्त आत्म हत्या तक के रूप में सामने आता हैं ।
आज क्या आधुनिक छात्र, प्रशासक, समृद्ध धनी, कृषक, मजदूर, गृहणी सब भयभीत हैं और प्रतिदिन आत्म हत्या के प्रकरणो में भारी वृद्धि हो रही हैं। इन आत्म हत्याओं से सब परेशान हैं और इसके कारणो और समाधान के लिए व्यापक चिन्तन मनन हो रहा है। इन दु:खों के अन्तरतम की गहराई पर जाने पर हमें यह पता चलता हैं कि इसके लिए जिम्मेदार हमारा मन हैं। हमारा मन इतना चंचल हैं कि वह एक क्षण भी शान्त नही रहता। वह भटकता रहता हैं। उसका यह स्वभाव है कि वह जिस विषय पर अटक जाता हैं उसी पर बार बार केन्द्रित होता हैं। दु:खों के कारणों के आसपास जब यह मन अटक जाता है तो भविष्य भयावह दिखाई देने लगता हैं। इससे छुटकारे का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। इस अंधकारपूर्ण वातावरण में हम कितना ही प्रयत्न करे ,मन को प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं देती। ऐसी स्थिति में मृत्यु ही समस्त समस्याओं का समाधान करता है और ऐसी स्थिति में आत्म हत्या हीं एकमात्र मार्ग व्यक्ति के सामने दिखाई देता है ।
प्रकाश की किरण कहॉं हैं? - इस स्थिति से बाहर आने के लिए ध्यान और प्राणायाम किए जाने का मार्ग प्रस्तुत किया गया है। डिप्रेशन से छुटकारा पाने के लिए कुछ औषधिया भी उपलब्ध हैं। मनौवैज्ञानिक सलाह, परार्मष भी दिए जाते है पर दु:खों के पहाड के नीचे दबे आदमी को इन सहारो पर भी विवास नही रहता। अपनों को भी वह अपनी मनोव्यथा व्यक्त नहीं कर पाता। वह गुमसुम हो जाता हैं, उसकी निद्रा उचट जाती है, भूख मर जाती हैं और चिन्ता उसके शरीर को खाती चली जाती है। वह असहाय सा हो जाता हैं।
इतने विशाल देश में कहॉ उपलब्ध हैं इतने मनौवैज्ञानिक, की वे सहज भाव से निराश, हताश व्यक्ति को उपलब्ध हो जाए । कहॉं है अपनों में इतनी समझ कि वे व्यक्ति के बिना बोले उसकी आन्तरिक व्यथा को समझ सहानुभूति का हाथ बढा पाए और हताशा के इन क्षणों में सहयोगी हो सके। इसके ठीक विपरीत किसके पास समय हैं कि वह इस गला काट प्रतियोगिता के युग में आपके दु:ख दर्द को सुने समझे। इसलिए प्रकाश की किरणों की खोज इस अंधकार पूर्ण वातावरण में नाकाफी है।
कहॉ से आते है दु:ख - सारे दु:ख आते हैं हमारे अन्दर से। कोई बाहर से आकर हमें दु:खी नहीं कर सकता। हम दु:खी होते है इसलिए कि हमारे अनुकूल परिस्थितियॉ हमेशा बनी नहीं रहती। परिवर्तन प्रति का नियम है। हम जिस संसार को स्थाई मान रहे हैं, उसमें हर क्षण बदलाव हो रहा है। हमारा शरीर जिसे हम ठोस मान कर चल रहे है, वह भी प्रतिक्षण बदल रहा है। इसी का परिणाम हैं, बालक से युवावस्था और वृद्धावस्था का सफर। हम प्रकृति और संसार के इस परिवर्तन को रोक नहीं सकते। इसलिए जो कुछ घटता है उसे हम सदा अनुकूल नहीं पाते, पर हम चाहते हैं कि वह हमेशा हमारे मन माफिक होता रहे। ऐसा न कभी हुआ है, न आगे होगा। हम चाहे आत्म हत्या करे या पागल हो जाए, यह हमारी मर्जी पर परिवर्तन का नियम अटल है, हमें उसे स्वीकार करना होगा। जैसे ही हम परिवर्तित स्थिति को स्वीकार करते हैं, हमें समस्यां के निराकरण के लिए समय मिलता हैं। हम चिन्ता से छूटकारा पाकर चिन्तन के मार्ग पर चल पडते हैं।
समय सदा एक सा नही होता - हमे यह स्मरण रखना चाहिए कि परिवर्तन का जो चक्र चला है, वह स्थाई नही है, वह सदा चलता रहेगा। इसलिए जो परिस्थिति उत्पन्न हो गई है, वह भी सदा नहीं रहेगी। वह बदलेगी और उसे बदला जा सकता है। सुख और दु:खों के बीच रिश्तेदारी है। जहॉ जहॉ भी सुख समृद्धि है। वहॉं दु:खों के बादल छिपे हुए हैं। जहॉ जहॉ शुभ के कदम हैं, वहॉ आसपास ही अशुभ भी हैं। जहॉं जहॉ लाभ दिखाई देता हैं, वहॉ हानि निश्चित रूप से उपस्थित हैं। भारतीय धर्माशास्त्रो के अनुसार यह हमारे कर्मो के फल हैं। यह भाग्य कहलाते हैं। हमारे देश के महान साहित्यकार कालिदास, मेघदूत के उत्तर मेघ में कहते हैं-"दु:ख या सुख किसी पर सदा नही रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे कभी उपर यो ही होते रहते हैं" महाभारत के शान्ति पर्व में वेदव्यासजी कहते है "सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख आता है। कोई भी सदा दु:ख नहीं पाता और न ही निरन्तर सुख ही प्राप्त करता है।" इसलिए सुख दु:ख, लाभ हानि, अनुकूल प्रतिकूलता में यह समझ बनाए रखना ही समत्व योग कहा गया है।
अटल है यह नियम - यह नियम सदा से है और सुनिश्चित है। यह नियम अटल भी है, किसी को इससे छूटकारा नहीं मिला है। हमारे शास्त्रों में भगवान राम को राज्य मिलते मिलते बारह वर्ष का वनवास मिलने की गाथा हैं। धर्मराज युधिष्ठिर सहित पाण्डव तेरह वर्षिय अज्ञातवास में कितने भटके और उन्होने क्या क्या नहीं किया, क्या क्या नहीं सहा, यह सब जानते हैं। हमारे ही देश में स्वतंत्रता के बाद राजाओं का राज्य समाप्त होते हमने देखा हैं। भारतीय राजनीति की अत्यन्त प्रभावाशाली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गॉधी का निर्वाचन में परास्त होना और फिर आपतकाल लगाने की गाथा हम सब जानते है । कोई कितना ही शक्तिशाली हो या प्रभावाशाली हो समय का चक्र चलते हुए अपने पहिए को सदा चलायमान रखता है । गालिब ने क्या खूब कहॉ है - "रात दिन गर्दिश में हैं सातो आसमां, होकर रहेगा कुछ न कुछ घबराए क्या" अर्थात रात दिन गतिशिल है जो होना है होगा ही, अत: क्यों घबराए।
तब क्या करे? - समय के चक्र को तो हम रोक नहीं सकते किन्तु उसे स्वीकार ही कर सकते है,इन्तजार कर सकते है कि यह पहिया घुमते हुए फिर हमारे पक्ष में आएगा । इसके लिए चाहिए साहस, मनोबल । यदि इन क्षणों में हम साहस और मनोबल को बनाए रखे तो वह धैर्य हमें सफलता के महान प्रशस्त मार्ग पर ले जाएगा । गीता में भगवान कृष्ण ने महावीर अर्जुन के डिप्रेशन मे आने पर समत्व योग का उपदेश दिया । महावीर अर्जुन युद्ध स्थल पर धनुष फेंक कर युद्ध न करने की घोषणा कर चुके थे । तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि दु:ख का हेतू युद्ध नही कामना है । मन का आग्रह छोडे बिना कल्याण नही है । गीता के अघ्याय 2 लोक 38 में भगवान कहते है - "तुम सुख या दु:ख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किए बिना युद्ध के लिए युद्ध करो, ऐसा करने पर तुम्हे कोई पाप नही लगेगा" वास्तव में हमारा जीवन भी एक युद्ध है । इसमें दु:ख आते ही इसलिए है कि हम स्वार्थ, कामना, अंहकार और विषमता के कारण चाहते है कि आपके चाहे अनुसार ही परिस्थितिया, घटनाए घटित हो । जब कि क्षण क्षण परिवर्तित होती प्रकृति में यह सम्भव ही नहीं है । ध्यान रहे आपका शरीर, इन्द्रिया, मन सभी क्षण क्षण परिवर्तनशिल है। ये भी आपकी आज्ञा में नहीं है इसलिए आपके मन से मन को ही ये तथ्य समझाना पडेगा। यह मन ही आपका मित्र व शत्रु भी है।
भगवान श्री कृष्ण गीता के अध्याय 2 लोक संख्या 48 में कहते है - "हे अर्जुन ! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो, ऐसी समता योग कहलाती है" सम्पूर्ण गीता अर्जुन के बहाने जीवन के युद्ध में समत्व योग द्वारा विजय प्राप्त करने की कला का वर्णन करते है। यह कला सुख दु:ख, जीत पराजय में अपने मन को समत्व भाव में टिकाए रखने के लिए मार्ग बताती है लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि हम प्राणी मात्र में समता की दृष्टि रख सके । सब में वासुदेव के दर्शन करे और कामना, स्वार्थ, अहंकार का त्याग कर सके । यदि जीवन के युद्ध में समता के स्वर हम दे सके तो दु:ख, असन्तोष, तनाव विवाद आ ही नहीं सकते । इस पर विचार कर देखिए ।
सत्यनारायण भटनागर