Wednesday, August 12, 2009

हर सैनिक के लिए जीत सुरक्षित है

जीवन क्या है? अलग-अलग विद्वानों ने इसकी अपने-अपने ढंग से व्याख्या की है। कुछ कहते हैं यह एक कभी न खत्म होने वाली यात्रा है। दूसरे इसे बाजार बताते हैं, जहां हमारे गुण-अवगुणों का मूल्यांकन होता है। कुछ लोग जीवन को एक नाटक कहते हैं। उनका मत है कि हम सब संसार में एक विशेष प्रकार का अभिनय करने आते हैं। जो अपने कामों से सर्वश्रेष्ठ अभिनय करता है, उसे याद किया जाता है।

लेकिन इन सबसे अलग कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन को एक युद्ध कहते हैं- एक समर, एक संग्राम। उनका मत है कि जीवन रूपी युद्ध में हम सब अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर विजेता बनते हैं। जीवन एक अवसर है जिसमें हम सफलता पाते हैं।

जीवन के इस युद्ध में जीवन-मरण दोनों हैं। शुभ है तो अशुभ भी है। एक ही जीवन में सारे गुण-अवगुण समाहित हैं। हां, संघर्ष सबका अलग-अलग है। किसी के जीवन में आज खुशी है, कल गम है। किसी और के जीवन में आज गम है, कल खुशी है। इन सब के बीच जो एक सैनिक की तरह जिया, वही सफल जीवन जी पाया।

इस युद्ध में धर्म को भी साथ-साथ साधना पड़ता है। इसे धर्मयुद्ध बनाना एक कला है। इसीलिए भारतीय शास्त्रों में इस संग्राम का मुक्त कण्ठ से गौरवगान किया गया है। कहा जाता है कि इस संग्राम में मारे जाने पर स्वर्ग प्राप्त होता है और जीतने पर यश मिलता है। लोक में दोनों ही सम्माननीय है।

गीता हमें जीवन में निष्काम कर्म करने का सन्देश देती है। संसार में आसक्ति ही हमारे दुख और कष्ट का कारण है। लेकिन क्या कर्म योग संसार में व्यावहारिक रूप में प्रयोग किया जा सकता है? यहां तो हम अनेक प्रकार के राग, द्वेष, घृणा और लोभ आदि से घिरे हुए हैं। यह दर्शन और सिद्घांत के स्तर पर तो यह ठीक लगता है, लेकिन रोजमर्रा के जीवन में, व्यवहार में हम उसका कैसे प्रयोग करें, यह समझ में नहीं आता। युद्ध का सैनिक ब्रह्मज्ञानी कैसे बने? यह समझ नहीं आता।

इसके लिए हम गांधी की वाणी सुनते हैं। वे अहिंसा के प्रबल पक्षधर थे। वे कहते थे कि एक सैनिक यह चिन्ता कब करता है कि उसके बाद उसके काम का क्या होगा? वह तो अपने वर्तमान कर्तव्य की ही चिन्ता करता है। एक सैनिक की तरह यदि हम अपने वर्तमान कर्त्तव्य को ही चिन्ता रहित होकर करते रहें तो हमारा कृत्य निष्काम कर्म होगा।

लेकिन होता यह है कि हम अपना कर्म किसी न किसी स्वार्थ, लोभ या अहंकार के वश में होकर करते हैं। मृत्यु की तो हम सोच ही नहीं सकते। यदि किसी कर्म में मृत्यु की आशंका हो तो हम भाग खड़े होंगे। पर युद्ध क्षेत्र में खड़ा सैनिक तो मृत्यु को पहली शर्त के रूप में स्वीकार करता है। मृत्यु से मित्रता के बिना तो कोई सैनिक हो ही नहीं सकता।

सैनिक युद्ध करते हैं, उनका अपना कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं होता। वे देश के लिए लड़ते हैं। वे जानते हैं कि युद्ध में हार या जीत कुछ भी हो सकती है। वे मृत्यु के लिए तैयार होकर लड़ते हैं। वे सदा अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं।

ऐसे ही यदि जीवन संग्राम में हम अपने स्वार्थ को अलग रख कर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने को तत्पर रहें तो कहा जाएगा कि हमने निष्काम कर्म योग को धारण कर लिया है। फल तो हमें जो मिलना होगा, मिलेगा। कोई सैनिक इसकी चिंता कहां करता है।

सुकरात एथेंस के नगर राज्य में विष का प्याला पी गए, किन्तु सत्य पर डटे रहे। चाहते तो समझौता कर सकते थे, पर संग्राम में समझौते कहां होते हैं। हमारे जीवन संग्राम में हर व्यक्ति का अपना एक लक्ष्य होता है। जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसे ही तुम्हारे कर्म होंगे। जैसे तुम्हारे कर्म होंगे, वैसा ही तुम्हारा जीवन होगा।

लेकिन एक सैनिक की तरह निष्काम भाव से सदा अपना सर्वश्रेष्ठ करने वाले हर व्यक्ति के लिए जीत हमेशा सुरक्षित है!

सत्यनारायण भटनागर

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