हम आज सारी दुनिया की जानकारी रखते है। विज्ञान ने ऐसी सुविधा दे दी है कि एक बटन दबाओ और जो जानकारी जहाँ से चाहो प्राप्त करो । सूचना क्रांति आई हुइ है। सूचना ज्ञान है, शक्ति है। आज जिसके पास यह आधुनिक साधन नही है या इसका ज्ञान नही है। उसे निरक्षर ही समझा जाएगा। इन्टरनेट, टी.वी. हमें प्रतिदिन नई नई जानकारी उपलब्ध करा रहे है। इसलिए कहा जाता है कि विश्व एक छोटा सा ग्राम हो गया है। जिसमें सब कुछ किया जा सकता है। ज्ञान के साथ व्यापार, उद्योग और व्यवसाय के लिए भी ये द्वार खुले हुए है। यह एक सच्चाई है।
लेकिन इस सच्चाई के साथ एक दूसरी सच्चाई भी है। जिस पर हम ध्यान नही दे रहे है। हम दुनिया को तो जान रहे है पर अपने आस पास से बेबखर है। हम अमेरिका, इंग्लैण्ड, चीन, जापान की तो सब जानकारी रखते है पर अपने पडोसी की जानकारी नही रखते। मैं जब मुम्बई में अपने पुत्र के यहाँ निवास कर रहा था तो मुझे पता चला कि चौथे माले में किसी की मृत्यु हो गई। पूछा कौन है - करता क्या था - परिवार की क्या स्थिति है - तो बताया कोई नही जानता। उसका निकटतम पडोसी भी नही जानता। इस भागदौड की गला काट प्रतियोगिता के युग में किसके पास समय है कि अपने पडोसी के सम्बन्ध में ये सब जानकारी रखें, फिर आजकल यह बुरा माना जाता है कि पडोसी के सम्बन्ध में गहरी रुचि ली जाए। सब अपनी-अपनी जिन्दगी जिए और मस्त रहे, यही सभ्यता है।
ऐसा नही है कि यह मुम्बई महानगर का सत्य हो। इन्दौर, उज्जैन, रतलाम जैसे नगरों में फ्लेट व्यवस्था में यही स्थिति है। अब कालोनी बस गई है। कालोनी में कौन रहता है, क्या करता है - कोई नहीं जानता, न जानने का वक्त है और न यह आधुनिक सभ्यता है कि ऐसी पूछताछ की जावे। छोडिए पडोसी की बात। क्या हम अपने परिवार के बारे में सब जानते हैं - एक छत के नीचे रहने वाले हम क्या एक दूसरे के सम्बन्ध में जानकारी रखते है। अभी मैंने इन्दौर का एक समाचार पढा। एक युवा शराब के नशे में वाहन चलाते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उसकी मृत्यु हो गई। उसको माता-पिता, परिजन दुःखी हुए। वे आर्श्चर्य चकित थे कि उनका बेटा शराब पीए हुआ था। वे जानते ही नही थे कि वह शराब पीता है। एक अन्य समाचार था कि कुछ ऐसे ही पढे लिखे सम्पन्न परिवार के युवा रात को शराब के नशे में एक चौराहे पर लूटपाट करते पकडे गए। उनके माता-पिता से पूछताछ हुइ। उन्होंने बताया कि उन्हें पता ही नही है कि उनका पुत्र कब घर आता है - जाता है - वे तो समझते थे कि वह कालेज में पढ रहा है। उन्होंने पुत्र को सब सुविधाएँ उपलब्ध करा दी थी। आर्थिक व्यवस्था कर दी थी। वे दोनों माता-पिता अपने काम धन्धे में इतने व्यस्त थे कि उनके पास अपने जवान बेटे के लिए समय ही नही था।
क्या यह स्थिति हमारी नही है। मैने अनुभव से जाना कि अब माता-पिता यह नही जानते है उनके पुत्र-पुत्री के मित्र कौन है - वे क्या करते है, उनके माता-पिता क्या करते है - आदि। अब किसी के पास समय ही नही है और ये प्रश्न र्व्यर्थ समझे जाते है। कहा जाता है कि जवान बेटे बेटी स्वयं समझदार है। वे सोच समझकर निर्णय करेगें। वे अपने मालिक है। हम इसकी चिंता क्यों करें - पर जब कोई दुर्घटना हो जाती है तो चिन्ता परेशानी तो होती ही है। आज जितना तनाव, डिप्रेशन युवाओं में है, उतना कभी नही रहा। युवा वर्ग आत्महत्या करने में सबसे आगे है। अपराध की दुनिया हो, या तेज गाडी चलाते दुर्घटना युवा वर्ग के नाम का उल्लेख अवश्य होगा। क्या कभी हमारे मन में प्रश्न उठा कि इसके लिए कौन दोषी है, केवल परिजन। अब हम जब एक दूसरे की परवाह नही करते तो फिर प्रेम कैसे और कहाँ होगा। बेटे-बेटी की बात तो अलग है। अब तो पति-पत्नी की दुनिया अलग-अलग है। वे भी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त रहते है। उनके पास भी एक दूसरे को समझने के लिए समय कहाँ है। इसलिए परिवारों में तनाव है। तलाक है, न्यायालय के द्वार खुले है। महिला और पुरुष घरेलु हिंसा के शिकार हो रहे है। हम सारी दुनिया को जानते है। अपने परिवार के सदस्यों को नही जानते। कैसा अच्छा मजाक है।
परिवार के सम्बन्ध में जानने का समय हमारे पास नही है तो क्या हम अपने आपके सम्बन्ध में कुछ भी जानते है । भारतीय ऋषि-मुनियों और शास्त्रों का स्पष्ट अभिमत है कि व्यक्ति जब स्वयं को जान लेता है तब वह शेष सबको जान लेता है । फिर जानने के लिए कुछ भी शेष नही रहता । जब हम मिट्टी या स्वर्ण को जान लेते है तब इनसे बनी प्रत्येक वस्तु को जान लेते है। भारतीय जीवन दर्शन ही नही दुनिया भर के दार्शनिक कहते है, "अपने को जानो" मैं कौन हूँ यह प्रश्न है। मैं वह नही हूँ जो कार्य मैं करता हूँ। वह तो मेरा व्यवसाय है। वास्तव में स्वयं की खोज ही सबसे महत्वपुर्ण खोज है।
अपने आपको जानने के इस प्रश्न के निराकरण के लिए ही भारतीय दार्शनिक ने प्राणायाम, ध्यान, योग आदि की व्यवस्था की क्योंकि अपने आपको जान लेना सामान्य ढंग नही है। हमारी प्रकृति उसके गुण और मन-इन्द्रिया और बुद्धि इन सबको समझना, नियंत्रण में रखना और अपने कल्याण के लिए विवेक का उपयोग करना ही अपने आपको जानना है। श्रीमद् भागवत गीता में कहा गया है "जिस काल में साधक मन में आई सम्पुर्ण कामनाओं का भली भाँति त्याग कर देता है और अपने आप में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थिर बुद्धि कहा जाता है।" यह स्थिर बुद्धि क्या है - कृष्ण यह समझा रहे है। इसके परिणाम के संबंध में वे कहते है "जो मनुष्य अपने आप में ही रमण करने वाला और अपने आप में ही तृप्त तथा अपने आप में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नही है।"
ऐसा क्यों है - क्योंकि भारतीय दर्शन में आप ही सबसे महत्वपुर्ण है। यह संसार हम सबसे मिलकर बना है। हमारा ही विस्तार यह सृष्टि है। ये सूरज और चाँद, तारे सीतारे हमारे लिए ही है। ये हवा और वर्षा, यह सर्दी और गर्मी सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए ही है। यदि हम न हो तो इसके होने का क्या अर्थ है। हम इस प्रकृति के ही अंग है। हमारा यह क्षण भंगुर शरीर जो प्रतिक्षण बदल रहा है, हमारी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसी प्रकृति के अंग है लेकिन यह सब भी हम नही है। हम इन सबसे अलग है। अपने आपको खोजना इसलिए महत्वपुर्ण है। महर्षि सुकरात इसीलिए जोर देकर कहते हैं 'अपने आपको जान' अपने आपको जानने का प्रयत्न ही प्राणायाम, ध्यान और योग है जो हम दुनिया भर को जानने के चक्कर में नही कर पाते।
योग, प्राणायाम और ध्यान हम नही कर पाते किन्तु हम अपने आप से एक व्यक्ति की तरह कभी एकान्त में यह प्रश्न भी करते हैं कि हम इतने मोटे क्यों है - इसके लिए क्या करना चाहिए। हमारी कमजोरियाँ या गलत आदतें क्या है - हम शराब, सिगरेट, जुँआ कैसे छोड सकते हैं। हम क्या अपने शरीर के प्रति, परिवार के प्रति, समाज और देश के प्रति अपना कर्तव्य निर्वाह कर रहे है। अपने नियत कर्तव्य कर्मों को बिना किसी आसक्ति के करना ही तो योग है। हम वास्तव में अपने आप को जानने का प्रयत्न नही करते। विज्ञान चाहे आसमान छूने की प्रगति कर ले और दुनिया चाहे हमारी मुठ्ठी में बंद होने लायक हो जाए किन्तु हम जब तक अपने आपको न जानेगे, परिवार और समाज के प्रति हमारे कर्तव्यों और दायित्वों का निर्वाह नही करेंगे तब तक हमें इन वैज्ञानिक उपलब्धियों का क्या लाभ होगा। भारतीय विचार दर्शन के अनुसार अपने मूल स्वरुप को जानने का अर्थ सब कुछ जान लेना। हम खुद के स्वार्थ के लिए बने ही नही है हम है ही सम्पुर्ण ब्रहृमाण्ड के लिए। इसे जानने के बाद फिर कुछ भी जानना कहाँ शेष रहता है।
सत्यनारायण भटनागर
बहुत अच्छा लगा आपका लेख .. सांसारिक सफलताओं को पाने की अंधी दौड में हम भागते जा रहे हैं .. और बहुत पीछे छूटता जा रहा है हमारा संस्कार .. हमारे मानवीय मूल्य .. जिनके बिना तो दुनिया चल ही नहीं सकती .. आज नहीं तो कल हमें यह स्वीकार करना ही होगा !!
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