Tuesday, August 25, 2009

खतरे का संकेत - हमारी हॅसी कहाँ गुम हो गई?

आज का युग विज्ञान का युग है । विज्ञान ने मानव-जाति के कल्याण के लिए अनेक नए साधन उपलब्ध कराए है । इन साधनों से मनुष्य का जीवन अधिक सुगम हो गया है । अल्प परिश्रम से घन्टों का काम अब मिनटों में होने लगा है । विज्ञान ने अनेक सुविधाएँ भी हमें दी है जिससे ज्ञान-विज्ञान के नए नए मार्ग खुल गए है । दुनिया बहुत छोटी हो गई और मानव जाति का चिन्तन क्षेत्र विस्तृत हो गया है। विज्ञान की इस प्रगति का यह परिणाम होना चाहिए था कि हमारे पास सोचने विचारने के लिए अधिक समय होता । विश्राम के लिए समय होता, हम अधिक सुख सुविधाओं का उपभोग कर आनन्द मनाते, लेकिन आज प्रश्न यह है कि क्या आज हमारे पास आनन्द के लिए समय है ? क्या हम विज्ञान के साधनों और सुविधाओं को प्राप्त कर सुखी हुए है ?

समय का अकाल - उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर है नहीं । आज विज्ञान की नई खोजो के उपरान्त हम बहुत अधिक व्यस्त हो गए है । लोग कहते है ‘उन्हे मरने की फुरसत नही है’ आदमी के पास विश्राम के लिए समय नहीं है । आदमी तनावग्रस्त है । मानसिक उलझने है । अवसाद ग्रस्त है हम सब । विज्ञान की तरक्की के बाद भी ऐसा क्यों है ? इसका कारण यह है कि सब सुख सुविधाओं के बाद भी हमारी जीवन शैली बदल गई है। हमारे पास इस पद्धति में जीवित रहने के लिए प्रतियोगिता अनिवार्य हो गई है । हम गलाकाट प्रतियोगिता में लग गए है। कैसे हम दूसरे से आगे निकल जाए ? यह दूसरा कौन है ? यह है सारी दुनिया, इस दुनिया में हम सबसे आगे हो, यह महत्वकांक्षा है हमारी । हम ही हम हो ।

इसका बडा सच्चा वर्णन किया है साहित्यकार विमल मित्र ने । वे कहते है, ‘मनुष्य का आज का धर्म हो गया है आगे बढ़ते चलों, सबको पीछे छोड़ते चलों, धक्का मारकर चोट पहुँचाकर किसी भी तरह बढ़ते चलों ( गवाह न. 3)

इस प्रतियोगिता में सारी दुनिया से हमारी टक्कर है । हमें हर हालत में आगे बढना है । दुनिया कहीं भी जाए । यह है हमारी महत्वकांक्षा। हम यही शिक्षा अपने बच्चों व युवाओं को दे रहे हैं. ऐसे में भाईचारा कहाँ शेष बचता है. कहाँ बचती है मानवता की उदान्त जीवन शैली जिसमें हम कहते हैं ‘जिओं और जीने दो’ । इस अन्धी आधुनिक जीवन शैली का परिणाम क्या हुआ? हमारी हॅंसी गायब हो गई, हम गंभीर हो गए और एक दूसरे से मिलते-जुलते केवल अपने काम तक सिमट गए। हास्य तो मनमौजीपन में उपजता है। उसके लिए चाहिए आनन्दपूर्ण विश्राम अब वह कहाँ रहा । इसलिए आज हम हास्य को खोज रहे हैं ।

हास्य की खोज- आज हास्य की खोज में हम क्या नहीं कर रहे हैं? हमारे सिनेमा हास्य विषयो को लेकर धडाधड़ बन रहे हैं । हास्य फिल्मों में इसीलिए मुन्नाभाई एम. बी. बी. एस., चुपके चुपके, हेराफेरी, पार्टनर, धुम मचा चुकी है । अभी हास्य फिल्म खूब बन रही है, चल रही है, हमारे टी.वी. कार्यक्रमों में हास्य रस प्रधान विषय बन रहा है ।

टी.वी. हास्य कार्यक्रमों में खिचडी़, आफिस आफिस धुम मचा चुके/रहे हैं। हम हॅंसिए और फॅंसिए का नारा लगा रहें हैं आज लाफ्टर चैलेंज और काँमेडी शो टी.वी. पर छाए हुए है. हास्य कवि सम्मेलन आयोजित हो रहे है । पत्र पत्रिकाओं मे चुटकुले प्रकाषित हो रहे है । हास्य को प्रधानता देते हमारे मोबाइल पर भी चुटकुले दिखाई दे सकते है । हमारे हॅसने के लिए सब तरह के प्रयत्न किए जा रहे है किन्तु दिक्कत यह है कि हमें हॅसी नहीं आती । सचमुच चुटकुले अपनी हॅसी खो चुके है ।

टी.वी.के हास्य कार्यक्रमों में पर्दे के पीछे से हॅसी के फव्वारे उड़ाए जातें है किन्तु दर्शको को हॅसी नहीं आती । हास्य कार्यक्रम के अभिनेता स्वयं हॅसते है । उन्हे हॅसने के लिए धन मिलता है । हॅसी का आनन्द तो तब है जब हास्य कलाकार की हरकत पर वह तो शांत गम्भीर बना रहे और दर्शक पेट पकड़ कर लोट पोट हो । मित्रों के बीच खुला अठ्ठास हो । प्रेमी-प्रेमिका के मध्य मधुर मुस्कान हो किन्तु यह सब तो कहीं दिखाई नहीं देता । केवल धन प्राप्त कर हॅसने वाले कलाकार ही इस दुनिया में सहज रूप से उपलब्ध है ।

ध्यान रहे हॅसी एक प्राकृतिक क्रिया है । हॅसना और रोना सहज रूप से आना चाहिए । मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हॅस सकता है । मुस्करा सकता है अन्य सब प्राणी यह नहीं कर सकते अतः हँसी का विलुप्त होना एक गम्भीर समस्या है ।

हॅसी सचमुच गायब हो गई है - लीजिए ध्यान से पढ़िए इस समाचार को । ‘एक वैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि साधनों समृद्धियों एवं विविध सुविधाओं भरे आज के आधुनिक युग में मनुष्य इतना दुःखी और निराश है जितना पहले कभी नहीं रहा । आर्थिक मन्दी के लिए जाने वाले 1950 के दशक में भी नहीं । उस दशक के दौरान एक औसत व्यक्ति हर दिन अठारह मिनट हॅंसता था जो सन् 1990 में घट कर मात्र छह मिनट रह गया जबकि औसत व्यक्ति के रहन सहन के स्तर में काफी सुधार आया है ।’

इस समाचार के आधार पर विचार कीजिए कि आज क्या स्थिति है । आज व्यक्ति के जीवन में हॅंसी गुम हो गई है । हम जानते हैं हमारी हॅंसी कहाँ गुम हो गई है पर आधुनिक जीवन शैली के दुश्चक्र में ऐसे फंसे हैं कि उससे निकल ही पाते और हॅंसी हमसे दूर बहुत दूर होती जा रही है। परिणाम - जर्मनी के मनोचिकित्सक डाँ. मिशल रित्जे और मनोवैज्ञानिक आलिवर जेम्स के अनुसार आज मनुष्य 1950 के मनुष्य की तुलना में दस गुना अधिक उदास और चिंतित है । उनके अनुसार मौजुदा समय में समाज में हिंसा की भयानक बढो़तरी हमारी उदासी की परिचायक है । हिंसक लोगो में तीन चैथाई लोग दुःखी और निराश हैं ।

आज हम अनुभव करते हैं कि छोटी छोटी बातो पर हिंसा हो रही है । गुस्सा सर पर चढ़कर बोल रहा है । यह सब हॅंसी के गुम हो जाने का परिणाम है । हम किसी को सहन ही नहीं कर पा रहे हैं । क्षमा करना तो दूर की बात है । कहाँ चली गई उदारता, इस पर विचार कीजिए । इसी हिंसा का दूसरा रुप है आत्महत्या । यदि हम किसी दूसरे से बदला लेने की स्थिति में नहीं हैं, परिस्थितियाँ हमारे अनुकुल नहीं है, हम उन्हें बदल नहीं सकते तो आत्म हत्या कर लेते हैं । आज किसान ही नहीं, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सभी आत्म हत्या के रास्ते जा रहें है. अब तो किशोर और बच्चे भी आत्म हत्या कर रहें हैं. यह हताशा की पराकाष्ठा है ।

बीमारियाँ- हिंसा और आत्म हत्या के साथ हॅंसी का गुम हो जाना नई नई बीमारियों का कारण भी है. विचार कीजिए कल तक जो बीमारियाँ वृद्धों को होती थी, वह अब किषोरों और जवानों को हो रही है । अवसाद ग्रस्त युवा नशे की गर्त में जा रहे हैं, तनाव के कारण उन्हें उच्च रक्त चाप और डायबिटीज जैसी बीमारी लग रही है, हृदय रोग से वे पीडित हो रहे है । टी.वी. और कम्प्यूटर पर निरन्तर कार्यरत युवाओं को पीठ व कमर दर्द होना आम बात है । दी हेल्थ केयर वेलफेयर सोसायटी के एक सर्वे के अनुसार 20 से 40 वर्ष के 67 प्रतिशत युवाओं को इस क्षेत्र में यह रोग है । दस प्रतिशत व्यक्ति तो इस से तंग आकर नौकरी तक छोड़ देते है ।

ज्यादा आधुनिक मत बनिए- अत्याधुनिक बनने के लिए सबकेा पछाड़कर शिखर पर पहुचने की अंधी दौड़ का दुष्परिणाम है हॅंसी का गुम होना । हम सब प्रगति करना चाहते हैं । अच्छी बात है । महत्वकांक्षा रखना मनुष्यता की निशानी है पर यह दूसरो को नुकसान पहुंचा कर आगे बढ़ने की प्रवृति खतरनाक है । जब हम इतने स्वार्थी हो जाते हैं कि केवल अपने संबन्ध में ही विचार करते है तब हॅंसने का प्रश्न ही नहीं उठता ।

साहित्यकार कवि अज्ञेय ने आधुनिकता की इस प्रवृति पर क्या खूब व्यंग्य किया है, देखिए,

साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं,
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया,
एक बात पूछूँ ( उत्तर दोगे)
तब कैसे सीखा डसना
विष कहाँ से पाया?

इसलिए मनुष्यता के गुण सहयोग, सहकार, प्रेम, त्याग, क्षमा, उदारता को याद रखिए । बीमारी का यही इलाज है । इस हॅंसी का आना आवश्यक है । तो हॅंसिए अपने आप पर, अपनी मूर्खताओं पर और तब आप पाएगे आपके साथ हॅसने गाने के लिए तैयार तत्पर बहुत से लोग है ।

प्रारम्भ तो हमें ही करना पड़ेगा । हॅसी को दवा के रूप में नहीं, वरन जीवन रस के रूप में स्वीकार कीजिए । वह बाग बगीचों में ही नहीं जीवन के हर क्षण में बनी रहना चाहिए, तभी प्रसन्नता, सौंदर्य और आनन्द हमारे चेहरे पर बना रहेगा । इस जीवन में तनाव का क्या काम । उसे हॅसी की लहर के साथ उड़ा दीजिए ।

सत्यनारायण भटनागर

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