Wednesday, August 12, 2009

सदा सजग रहने का विज्ञान है अहिंसा

महात्मा गॉधी एक बार रविन्द्रनाथ टैगोर से मिलने उनके निवास पर गए। उन्हे आदरपूर्वक बैठक में बैठाया गया पर रविन्द्रनाथ टैगोर थोडे समय बाद ही उपस्थित हुए। वे सजेधजे से आए और महात्मा गॉंधी को प्रणाम कर बैठ गए। महात्मा गॉंधी ने कहा "आने में बहुत देर लगा दी आपने" रविन्द्र बाबू बोले "आपके सामने आने से पूर्व तैयारी तो करना पडती हैं। चाहे जैसे वेशभुषा में तो आपके सामने नही आया जा सकता" गॉंधीजी हंसे। बोले "आप आ जाते तो भी कोई अन्तर नही पडता।" रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा "आप अहिंसा के महान पुजारी है। आपके सामने विकृत रूप से आना हिंसा होती।" किसी के भी सामने सुन्दर वेशभुषा, प्रसन्न मुद्रा और मुस्क्रराहट के साथ उपस्थित होना ही अहिंसा है।

अहिंसा को लेकर प्राय: यह विचार किया जाता है कि हिंसा का विलोम अहिंसा है किन्तु ऐसा है नहीं। अहिंसा अपने आप में पूर्ण विचार है। यह जीवन जिने का ढंग है। केवल हिंसा न करना ही अहिंसा नहीं है। अहिंसा सजग होकर प्रतिक्षण जिने का एक ढंग है। हम अपने प्रत्येक कृत्य को जब सजग होकर ध्यानपूर्वक करते है तब अहिंसा का जन्म होता है।

हम अपने मकान में प्रवेश करते है तब दरवाजे को जोर से धक्का देते है या दरवाजे को जोर से बन्द करते है। दरवाजे से आवाज होती है। क्या आपने विचार किया कि हम क्या कर रहे है? क्या हम दरवाजे के प्रति हिंसा तो नहीं कर रहे। हम अपने कार्य से वापस निवास पर आते है। हमारे जूते चाहे जैसे पटक देते है, कपडे उतार कर चाहे जैसे बिस्तर पर पटक देते है। हमें आशा होती है कि पत्नी या नौकर कोई इसे व्यवस्थित जमा देगा। हम थके हुए है। बिस्तर पर पड जाते है। क्या हम कपडे व जूतों के साथ हिंसा नहीं करते? क्या हम अपने द्वार, जूते, कपडों से कभी क्षमा मॉगते है? अहिंसा इसी का नाम है कि हमारे मन में निर्जीव वस्तुओं के प्रति भी अपनत्व का भाव हो। प्रेम का भाव हो। वे भले ही शिकायत न करे किन्तु हम उनके प्रति आदर का भाव रखे। हम जितना उनके प्रति आदर का भाव रखेगे, उतना ही उनके कारण हमारा सम्मान बढेगा। यदि हम उनके साथ चाहे जैसा व्यवहार करेगे तो हम हिंसा को अपने अन्तरतम् की गहराई में स्थान देकर रखेगे और अहिंसा के बाहरी रूप के प्रति भले ही सचेत हो पर हदय की पवित्रता से उसका सम्बन्ध न हो सकेगा।

मालिक मत बनिए - हमारे चलने में धमक हो तो पृथ्वी को कष्ट होगा - कभी सोचा है। धमक कर चलने का अर्थ है एक व्यर्थ की अकड जिसका सम्बंध अंहकार से है। किसी के मालिक होकर जिना अंहकार है, शोषण है। अत: न तो नौकर के मालिक बनिए, न पत्नी बच्चों के। सहज होकर मधुर वाणी में बोलिए। यह सहजता आपका मूल चरित्र होना चाहिए। सादा जीवन उच्च विचार से अहिंसा का प्रारम्भ होता है। बोलचाल में अकड कर बोलना, गाली गलोच, निन्दा करना, चुगली करना, अफवाह फैलाना भी हिंसा है। प्रसिद्ध साहित्यकार बर्नाडशा कहते है "जिसकी आवाज में माधुर्य नहीं वह मानव व पशुओ से निर्मित कोई पिशाच है।" इन आदतों से समाज का वातावरण बिगडता है। हॉं हमारा इससे कोई फायदा नहीं होता। हम इन आदतो के साथ अपने आपको अहिंसक नहीं कह सकते।

क्षमा मॉगिए - यदि कभी भूले भटके हमसे ऐसी कोई गलती हो ही जाए जो आदतों के कारण होना स्वाभाविक ही है तो हमें तत्काल सचेत होना चाहिए। आप दरवाजे से, जूते से, कपडे से भी क्षमा मांग कर देखिए। एक विचित्र सन्तोष प्राप्त होगा। आप अगली बार ध्यानपूर्वक प्रेम से दरवाजा खोलेगे, जूते उतारेगे और आप पाएगे, कि एक व्यवस्था आपके जीवन में स्थान पा रही है। केवल जीव हिंसा ही हिंसा नहीं है। अंहकार, स्वार्थ और प्राणीमात्र के प्रति विषमता भी हिंसा है।

सदा सजग रहने का विज्ञान - अहिंसा एक वैज्ञानिक विषय है। यह जीवन की कला है जो हमें प्रेम पूर्वक जीवन निर्वाह का मार्ग प्रशस्त करती है। अहिंसा से यदि किसी दुराचारी का हदय परिवर्तन होता है तो उसका कारण यही है कि अहिंसा जीवन में गहराई तक उतर गई है। जीवन में यदि अहिंसा आभूषण की तरह दिखावटी है तो वह उपरी है और उससे किसी दुट दुराचारी का हदय परिवर्तित नहीं होता। यदि अहिंसा जीवन में ध्यान के रूप में उतरी है और प्रतिक्षण हम सजग होकर जीवन जी रहे है तो वह अहिंसा चरित्र का अंग बनकर उभरती है। बुद्ध, महावीर ने इसी अहिंसा का उपदेश दिया था और महात्मा गॉंधी ने इसी को सत्य के प्रयोग के रूप में सार्वजनिक जीवन में स्थापित किया। करूणा, प्रेम, सत्य अहिंसा परिवार के सदस्य है। जहॉं अहिंसा है वहॉं यह सब बिना बुलाए मेहमान की तरह उपस्थित रहेगे। सदा सजग रहने का विज्ञान है अहिंसा।

हिंसा की व्यर्थता - हमारे देश में महाभारत का भीषण युद्ध लडा गया। क्या वह हिंसा की गौरव गाथा है। उसके परिणाम यह सिद्ध करते है कि युद्ध व्यर्थ है। उसमें ईर्ष्या, द्वेष और आंसु ही शेष बचते है। अशोक महान ने युद्ध में विजय प्राप्त कर क्या पाया। खून खराबे के बाद उन्होने गाया अहिंसा का अमर गान। आज तक जितने भी युद्ध हुए है उसके अन्तिम परिणाम में हाहाकार ही शेष बचा है। मानवता का कोई विचार किसी युद्ध से आज तक उभर कर नहीं आया।

बडे बडे युद्धों की बात छोडिए। हमारे जीवन में स्वार्थ और अंहकार के वश जो छोटे छोटे विवाद, झगडे होते है, उनके क्या परिणाम निकलते है। उन पर विचार कीजिए। वर्षो न्यायालय के चक्कर, धन हानि, समय का अपव्यय, जग हॅसाई के अतिरिक्त किसी को कुछ मिला हो ऐसी जानकारी किसी को नही है। महाभारत और गीता में अहिंसा का गुणगान देवी सम्पति के गुणों के रूप में की गई है।

अहिंसा सब से बडा धर्म - महाभारत के आदिपर्व 11/13 में कहा गया है "अहिंसा परमोधर्म" अर्थात् अहिंसा उत्तम धर्म है। अनुशासन पर्व 116/28-29 में कहा गया है "अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है तथा अहिंसा परम तप है। अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है तथा अहिंसा परम सुख है।"

अहिंसा को केवल जीव हिंसा तक सीमित मत मानिए उसे जीवन जिने के विज्ञान के रूप में जीवन में उतारिए। ध्यानपूर्वक जीवन को अहिंसा मय बनाइए। अहिंसा हमारे जीवन में चरित्र के रूप में उभरना चाहिए तभी परिवर्तन की बयार चलेगी और उसका प्रभाव दूर दूर तक दिखाई देगा।

सत्यनारायण भटनागर

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