Thursday, August 13, 2009

दुःख आते कहाँ से है? जाते कहाँ है?

एक छोटी सी घटना है। एक बच्चा दीपक लेकर मन्दिर जा रहा था, रास्ते में उसे रोक कर किसी ने पूछा, ’दीपक की यह ज्योति आई कहाँ से है? बच्चा क्या जवाब देता। पूछने वाला भी शायद ही बता पाता, पर बच्चे ने एक फूंक मारी। दीपक बुझ गया। बच्चे ने प्रतिप्रश्न किया, पहले आप बताओ, ’यह ज्योति गई कहाँ है? तब मैं उत्तर दे दूंगा’ प्रश्नकर्ता मुँह ताकने लगा।

जीवन में ऐसे बहुत से प्रश्न है जो हमसे उत्तर माँगते है पर हम उन पर विचार ही नहीं करते। अनन्तकाल से एक प्रश्न है,’ये जीवन में दुःख आते कहाँ से है? ’फिर हमें सोचना पडे़गा कि ये चले कहाँ जाते है? कौन बुलाता है इन दुःखो को। हर कोई कहेगा कि हम तो नहीं बुलाते। भला सोचिए दुःखों को भी क्या कोई आमत्रंण देगा कि आओ हमारे जीवन में। यदि हम दुःखों को निमंत्रण नहीं देते तो क्या वे अनचाहे मेहमान बन कर हमारे द्वार आते है और अतिथि की तरह हमें उनका उनका ’भार’ उठाना पड़ता है क्योकि हम उनका स्वागत तो नहीं करते। भगवत गीता कहती है कि यह संसार दुःखालय है।

किसने बनाया दुःखालय - इस दुनिया को किसने बना दिया है दुःखालय, यह एक गम्भीर प्रश्न है। विचार कीजिए कि कही सुख की लालसा में हम ही तो दुःखालय इसे नहीं बना रहे है। विचार कीजिए कि मेरी कमीज से उसकी कमीज सफेद कैसे? यह विज्ञापन क्या कहता है। एक टी.वी. का विज्ञापन था कि ’इस टी.वी.से पड़ोसी की जान जले’

विचार कीजिए कि ये विज्ञापन कही गहराई में जाकर हमारे मन की कहानी ही तो नहीं कह रहे। हम अपने पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदार के सुख सफलता, सम्पन्नता से जल रहे है, इर्ष्या कर रहे है तो यह आग किसने लगाई है? यह आग अगर हमने लगाई है तो इसे बुझायेगा कौन? ये एक ऐसा दुःख है जो बहुतायत में पाया जाता है। इस दुःख का उद्गम हमारा मन है। इस दुःख की दवा कहीं नहीं है। इस दुःख के निवारण के लिए हम इर्ष्या द्वेश से जलते हुए घृणा के रास्ते चल पडते है। लड़ाई, झगड़े, विवाद, तनाव, अवसाद सभी कुछ तो यहाँ एकत्र हो जाते है और इन दुःखो का अन्त नहीं है।

मजे की बात यह है कि इर्ष्या जो दुःखो को उपजाती है प्रारम्भ में सुख और आनन्द देती है किन्तु जब हम अपने सामने वाले पड़ोसी, मित्र,रिश्तेदार को दुःखी नहीं कर पाते तो हम खुद दुःखी हो जाते है। यह इर्ष्या-द्वेश व्यक्तिगत होता है।

यह प्रतियोगिता नहीं है - हम कहते है आज का युग प्रतियोगिता का है। इस इर्ष्या को हम प्रतियोगिता का नाम देते है। प्रतियोगिता स्वस्थ होती है उसमें जलन आने का प्रश्न नहीं है। उसमें हम सफलता, सम्पन्नता, सुख पाने वाले को बधाई देते है। उसकी टाँग नहीं खींचते। इसलिए इर्ष्या द्वेश को प्रतियोगिता का नाम देना अपने आपको धोखा देना है। यह इर्ष्या द्वेश खतरनाक जहर है। इसमें सुख है ही नहीं।

क्या है इसका इलाज - इसका एक ही उपाय है कि हम सादा जीवन उच्च विचार की और ध्यान दे। इस देश में ही नहीं दुनिया में आज तक सादा जीवन उच्च विचार आदर्श को ही मान्यता दी है। इस कारण आज हम महान ऋशि सुकरात, अरस्तु, महात्मा बुद्ध, महात्मा गाँधी आदि को ही याद करते है। इर्ष्या द्वेश वाले किसी व्यक्ति का नाम इतिहास में नहीं आ पाता।

हमारा जीवन इस पृथ्वी पर एक नियत समय के लिए आया है। हम इसे याद रखे और जीवन में व्यर्थ के मनोभावों से दूर रहे। लुक्रोटस ने जो कहा है उस पर ध्यान देवे ’जीवन किसी को स्थायी सम्पति के रूप में नहीं मिला है। वह एक निश्चित समय के लिए मिला है’ भारत के साहित्यकार, समीक्षक श्री रामचन्द्र शुक्ल इसका इलाज बताते हुए लिखते है ’इर्ष्या की सबसे अच्छी दवा है उघोग और आशा।’

इस बिन्दु पर हम पाते है कि दुःख, तनाव, अवसाद, हृदयरोग आदि ये अपने आप हमारे अन्दर उत्पन्न होते है। इस दुःख के कारण हम ही है इसके लिए किसी अन्य को दोष देना, अपने आपको धोखा देना है।

हमारे दुःखों का कारण हम ही है - हम अनेक बीमारियों, मनोभावों से दुःखी होते है। उसके कारण हम ही है हम ही अधिक भोजन कर, प्रकृति के विरूद्ध आचरण कर, लोभ लालच में पड़ कर नैतिक मूल्यों का उल्लंघन करते रहे हैं और अपराध की और प्रवृत होते है। हम सब जानते है कि शराब, माँस, फास्ट फुड आदि हमारे स्वास्थ के दुश्मन है। तम्बाखू किसी भी तरह स्वास्थप्रद नहीं है, फिर भी हम आधुनिकता के नाम पर दिखावा करते हुए उसे छोड़ नहीं पा रहे है। हम श्रम से दूर भाग रहे है विश्राम का आनन्द ले रहे है, व्यायाम छोड रहे है। इन दुःखों के लिए किसे दोष देंगे? ये दुःख हमारे बोए बीज है जिन्हे हम ही फसल के रूप में काट रहे है। चरक संहिता में कहा गया है ’शरीर और मन; रोगों तथा अस्वस्थता के आधार है। जब (शरीर, मन और इन्द्रिय विषय का) समान योग होता है। तब स्वस्थता होती है और इनका असमान योग होता है तब रोग होता है ’हम रोग के कारण दारूण दुःख भोगते है। मन के कारण अपराध की तरफ भी जाते है जो दुःखों में वृद्धि का कारण है। साहित्यकार इलाचन्द्र जोषी जहाज के पंछी में लिखते है ’समाज में प्रतिदिन जो अपराधों और दुश्कर्मों की संख्याएँ बढ़ती चली आ रही है, उसका प्रधान कारण आज के युग की यही सहानुभूति रहित, संवदेना शुन्य प्रवृतियो, विषम सामाजिक परिस्थितियाँ और सामूहिक भ्रष्टाचार ही है।’

इससे स्पष्ट है कि हमारे आधुनिक जीवन शैली और मन के कारण ही बीमारियां बढ़ रही है। अपराध बढ़ रहे है और इसके लिए हम ही व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार है। हमारे दुःखों के कारण हम ही है।

क्या हम भी लोगो को दुःखी कर रहे है?- यह भी एक प्रश्न है। हमें अन्य व्यक्तियों के कारण दुःख नहीं हो रहा है जितने सक्षम, बलवान और राज्य शक्ति प्राप्त व्यक्ति है वे अपने कारणों से दुःखी है, पर क्या हम भी अपने आसपास रहने वाले ,परिजनों ,वयोवृद्धों को दुःखी नहीं कर रहे है। हम अपने बच्चों, माता-पिता, पति-पत्नी, पडोसी को दिन रात दुःख दे रहे है। ऐसी घटनाओं का वर्णन समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रहे है। पुरूषवादी समाज के कारण महिलाएं दुःखी है तो पत्नी पीडित संघ भी अपना रोना गा रहे है।

इससे स्पष्ट है कि हम दुःखों का कारण खुद है किसी अन्य का इसमें महत्वपूर्ण योगदान नहीं है।

क्या भगवान हमें दुःख भेजता है? - एक प्रश्न यह भी है कि भगवान दुर्घटना, बीमारियां, मृत्यु, भूकम्प, बाढ़ आदि के द्वारा हमें दुःखी करता है। भगवान हमें बिना कारण भी दुःखी करता है। हम बिना किसी भूल के भी परेशान होते है। यह सब भगवान की माया है।

उपरोक्त सभी धारणाएं या मान्यताएं भ्रम है, भूल है। भगवान गीता में कहते है कि वे किसी से राग द्वेश नहीं करते। प्रत्येक प्राणी उन्ही का अन्श है। वे अपने अन्श को जानबूझकर क्यों कष्ट पहुँचाएगे। हम सब अपने कर्मों का फल भोगते है। हमने देखा कि हमारी इर्षा द्वेश हमें दुःख पहुँचाते है। बीमारियों के कारण है। हमारी प्रकृति के विरूद्ध जीवन शैली हमारी बीमारियों के कारण है। हमारी श्रम व व्यायाम के प्रति उपेक्षा हमें दुःख में पड़ने का कारण है। भगवान कृष्ण गीता के पाँचवे अध्याय के पन्द्रहवे श्लोक में कहते है ’परमेष्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किन्तु सारे देहधारी जीव अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते है। जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किए रहता है।’

हमारे सुख दुःखों से भगवान का कोई लेना देना नहीं है। हमारे कर्म ही हमारे सुख दुःख के कारण है। भूकम्प, बाढ़ के दुःख बहुत कम आते है। बहुत थोडे क्षेत्र में में आते है, उसके आने के प्राकृतिक कारण है। इसलिए उसका दुःख दुःख नहीं है। उसे तो सहज स्वीकार करना चाहिए।

देह धरन को दण्ड है - यह दुःख जो मृत्यु के कारण हमें सताता है। यह देह धारण करने का अनिवार्य परिणाम है। हमारे देश में भगवान ने भी अवतार लेकर देह धारण की तो उन्हे भी दुःख उठाना पडा। देह धारण के साथ ये दुःख अनिवार्य है इसे स्वीकार करना पडेगा। तुलसीदासजी लिखते है -

देह धरन का दोष है सब काहू को होय,
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मुरख भुगते रोय।।


अगर हम ज्ञान की दृष्टि से देखेगे तो फिर दुःखी होने का कारण नहीं है।

महात्मा बुद्ध के समय की घटना है। एक माँ का एकलौता पुत्र मर गया। वह रोई, चिल्लाई। उसके दारूण दुःख को देख लोगों ने उसे महात्मा बुद्ध के पास भेज दिया। महात्मा बुद्ध ने कहा ’तुम एक मुट्ठी अन्न ऐसे घर से ले आओ जहाँ आज तक किसी की मृत्यु न हुई हो।’ वह माँ दिन भर घर घर भटकी पर उसे ऐसा घर नहीं मिला जहाँ किसी की मृत्यु न हुई तो वह जीवन की वास्तविकता समझ गई। उसे ज्ञान प्राप्त हो गया। उसका दुःख जाता रहा। हमारे दुःख जो वास्तविक नहीं है वे हमारे अज्ञान के कारण है। शेष के बीज हमने बोए है।

दुःखों को स्वीकार करो - दुःख यदि हमारे कारण नहीं आए, बिना अपराध के आ गए है तो उन्हे स्वीकार करो। चुनौती मान स्वीकार करो। फिर वे दुःख आपकी आन्तरिक शक्ति का अभ्युदय करने आए है। विचार कीजिए भगवान श्रीराम के वनवास में उनका व्यक्तिगत क्या दोष था। वह तो मन्थरा के राग द्वेश का कारण था। भगवान श्रीराम ने उस वनवास को सहर्ष स्वीकार किया। कोई दुःख कहीं दिखाई नहीं दिया। विद्रोह का विचार ही नहीं। उन्होने उस दुःख को स्वीकार किया। चुनौती माना, वे चल दिए वनवास, उन्हे हम आज कहते है मर्यादा पुरूषोत्तम।

यदि वे राज्य के लिए विद्रोह करते। सफल भी होते तो क्या होते? वे एक राजा होकर याद किए जा सकते थे। संघर्षो में चुनोती स्वीकार कर उनका चरित्र निखरा, वे पुरूषोत्तम हो गए। हम सब श्रद्धा से उन्हे स्मरण करते है। महाभारत में यदि पांच पाण्डवों को अज्ञातवास सहन न करना पडता तो क्या होता उनका चरित्र। चरित्र पर चमक संघर्षो में ही आती है। चुनोती आ ही गई है तो स्वीकार करो। दुःखी और निराष होने का कारण नहीं है। भगवान कृष्ण ने तो मृत्यु तक के आगमन के सन्देश को हॅसते हॅसते स्वीकारा।

कहाँ से आते है दुःख - दुःख सुख हमारी ही उपज है। हमारे मन का व कर्मो का खेल है। वे बाहर की दुनिया से नहीं आते। हम ही अपने स्वार्थ, अभिमान, लोभ, लालच, रागद्वेश के कारण उन्हे निमंत्रण देकर बुलाते है। अपने अंदर झांकिए। एकान्त में चिन्तन कीजिए, पता चलेगा हमारे दुःखों की खेती हमने ही की है।

ये दुःख जैसे आते है, वैसे ही चले भी जाते है। दुःखों के आने जाने का खेल सुखों की तरह चलता रहता है। अच्छा है सुख और दुःख समय के अन्तराल में विस्मृति के गड्डे में दफन हो जाते है। केवल हमारे किए पाप कभी कभी एकान्त क्षणों में हमारे मानस पटल पर छा हमें मजबूर कर देते है कि हम भविष्य में अपने कर्तव्य-कर्मो के प्रति सावधान रहे।

दुःख हमारी ही उपज है। वे हमारे अन्दर ही दफन है। विस्मृति की गर्त में है। भगवान कृष्ण भगवद्गीता (2/14) में कहते है ’हे कुन्ती पुत्र! सुख तथा दुःख का क्षणिक उदय और कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है’ इसलिए जब बच्चे ने कहा ’यह ज्योति कहाँ चली गई?’ तब एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा हुआ था। यह ज्योति हमारी चेतना की प्रतीक है। यह कहीं आती जाती नहीं। यह हमारे अन्तर आत्मा का ही प्रकाश है।

सत्यनारायण भटनागर

5 comments:

  1. बहुत अच्‍छा लिखते हैं आप !!

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  2. जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई.
    ( Treasurer-S. T. )

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  3. जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई.
    ( Treasurer-S. T. )

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  4. good job done

    amit ji
    papa se kah kah ke thak gaye hain ki ek laptop le le taki apke har lekh pahle aapki post par aa jaaya karen
    aap dilwakar bhejanaa aur sikha kar bhi

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  5. post par comments bhejne par aapka blog word verification dekar comment ki ijaajat deta hai
    ise hataa de

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