Monday, August 10, 2009

जीने की कला का नाम हैं समता योग

हम जिस दुनिया में रहते हैं उसे दु:खालय कहा जाता हैं। इस दुनिया में विवाद हैं, तनाव हैं, बीमारिया हैं, दुघर्टनाएं हैं, मृत्यु हैं। दु:ख प्राप्त होने के लिए दो हजार कारण गिनाए जा सकते हैं। इन दु:खो से कोई बचा नहीं हैं। जो सत्ता में हैं - उन्हे हमेशा खतरे बने रहते हैं। वे अपने सत्ता सुख को बनाए रखने के लिए सदा सावधान रहते हैं। उन्हे डर बना रहता हैं कि पता नही कब यह सत्ता सुख जाता रहे। जो समृद्ध हैं, उन्हे डर रहता हैं कि वे कहीं गरीबी रेखा के नीचे न आ जाए। मृत्यु व बीमारी का डर तो सदा ही हमारे सिर पर मॅंडराते रहते हैं। हम चाहते हैं कि हम जिन सुख समृद्धि के साधनो के स्वामी हैं, वह स्थिति सदा बनी रहे लेकिन ऐसा कभी होता नही हैं।

हम जब सुख समृद्धि के मार्ग पर आगे बढते हैं तो आनन्द सागर में डूब जाते हैं पर जब दु:खों के पहाड टूटते हैं तो लगता हैं कि अब कुछ भी शेष नही रहना हैं। यह स्थिति तनाव पैदा करती हैं। इससे मनोबल टूटता हैं, हम डिप्रेशन में आ जाते हैं। हमारे लिए कोई ऐसा सहारा नही दिखता जिसके सहारे से हम स्थिति से उबर सके। ऐसी स्थिति में व्यक्ति निराषा और तनाव की तरफ बढता हैं जिसका अन्त आत्म हत्या तक के रूप में सामने आता हैं ।

आज क्या आधुनिक छात्र, प्रशासक, समृद्ध धनी, कृषक, मजदूर, गृहणी सब भयभीत हैं और प्रतिदिन आत्म हत्या के प्रकरणो में भारी वृद्धि हो रही हैं। इन आत्म हत्याओं से सब परेशान हैं और इसके कारणो और समाधान के लिए व्यापक चिन्तन मनन हो रहा है। इन दु:खों के अन्तरतम की गहराई पर जाने पर हमें यह पता चलता हैं कि इसके लिए जिम्मेदार हमारा मन हैं। हमारा मन इतना चंचल हैं कि वह एक क्षण भी शान्त नही रहता। वह भटकता रहता हैं। उसका यह स्वभाव है कि वह जिस विषय पर अटक जाता हैं उसी पर बार बार केन्द्रित होता हैं। दु:खों के कारणों के आसपास जब यह मन अटक जाता है तो भविष्य भयावह दिखाई देने लगता हैं। इससे छुटकारे का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। इस अंधकारपूर्ण वातावरण में हम कितना ही प्रयत्न करे ,मन को प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं देती। ऐसी स्थिति में मृत्यु ही समस्त समस्याओं का समाधान करता है और ऐसी स्थिति में आत्म हत्या हीं एकमात्र मार्ग व्यक्ति के सामने दिखाई देता है ।

प्रकाश की किरण कहॉं हैं? - इस स्थिति से बाहर आने के लिए ध्यान और प्राणायाम किए जाने का मार्ग प्रस्तुत किया गया है। डिप्रेशन से छुटकारा पाने के लिए कुछ औषधिया भी उपलब्ध हैं। मनौवैज्ञानिक सलाह, परार्मष भी दिए जाते है पर दु:खों के पहाड के नीचे दबे आदमी को इन सहारो पर भी विवास नही रहता। अपनों को भी वह अपनी मनोव्यथा व्यक्त नहीं कर पाता। वह गुमसुम हो जाता हैं, उसकी निद्रा उचट जाती है, भूख मर जाती हैं और चिन्ता उसके शरीर को खाती चली जाती है। वह असहाय सा हो जाता हैं।

इतने विशाल देश में कहॉ उपलब्ध हैं इतने मनौवैज्ञानिक, की वे सहज भाव से निराश, हताश व्यक्ति को उपलब्ध हो जाए । कहॉं है अपनों में इतनी समझ कि वे व्यक्ति के बिना बोले उसकी आन्तरिक व्यथा को समझ सहानुभूति का हाथ बढा पाए और हताशा के इन क्षणों में सहयोगी हो सके। इसके ठीक विपरीत किसके पास समय हैं कि वह इस गला काट प्रतियोगिता के युग में आपके दु:ख दर्द को सुने समझे। इसलिए प्रकाश की किरणों की खोज इस अंधकार पूर्ण वातावरण में नाकाफी है।

कहॉ से आते है दु:ख - सारे दु:ख आते हैं हमारे अन्दर से। कोई बाहर से आकर हमें दु:खी नहीं कर सकता। हम दु:खी होते है इसलिए कि हमारे अनुकूल परिस्थितियॉ हमेशा बनी नहीं रहती। परिवर्तन प्रति का नियम है। हम जिस संसार को स्थाई मान रहे हैं, उसमें हर क्षण बदलाव हो रहा है। हमारा शरीर जिसे हम ठोस मान कर चल रहे है, वह भी प्रतिक्षण बदल रहा है। इसी का परिणाम हैं, बालक से युवावस्था और वृद्धावस्था का सफर। हम प्रकृति और संसार के इस परिवर्तन को रोक नहीं सकते। इसलिए जो कुछ घटता है उसे हम सदा अनुकूल नहीं पाते, पर हम चाहते हैं कि वह हमेशा हमारे मन माफिक होता रहे। ऐसा न कभी हुआ है, न आगे होगा। हम चाहे आत्म हत्या करे या पागल हो जाए, यह हमारी मर्जी पर परिवर्तन का नियम अटल है, हमें उसे स्वीकार करना होगा। जैसे ही हम परिवर्तित स्थिति को स्वीकार करते हैं, हमें समस्यां के निराकरण के लिए समय मिलता हैं। हम चिन्ता से छूटकारा पाकर चिन्तन के मार्ग पर चल पडते हैं।

समय सदा एक सा नही होता - हमे यह स्मरण रखना चाहिए कि परिवर्तन का जो चक्र चला है, वह स्थाई नही है, वह सदा चलता रहेगा। इसलिए जो परिस्थिति उत्पन्न हो गई है, वह भी सदा नहीं रहेगी। वह बदलेगी और उसे बदला जा सकता है। सुख और दु:खों के बीच रिश्तेदारी है। जहॉ जहॉ भी सुख समृद्धि है। वहॉं दु:खों के बादल छिपे हुए हैं। जहॉ जहॉ शुभ के कदम हैं, वहॉ आसपास ही अशुभ भी हैं। जहॉं जहॉ लाभ दिखाई देता हैं, वहॉ हानि निश्चित रूप से उपस्थित हैं। भारतीय धर्माशास्त्रो के अनुसार यह हमारे कर्मो के फल हैं। यह भाग्य कहलाते हैं। हमारे देश के महान साहित्यकार कालिदास, मेघदूत के उत्तर मेघ में कहते हैं-"दु:ख या सुख किसी पर सदा नही रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे कभी उपर यो ही होते रहते हैं" महाभारत के शान्ति पर्व में वेदव्यासजी कहते है "सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख आता है। कोई भी सदा दु:ख नहीं पाता और न ही निरन्तर सुख ही प्राप्त करता है।" इसलिए सुख दु:ख, लाभ हानि, अनुकूल प्रतिकूलता में यह समझ बनाए रखना ही समत्व योग कहा गया है।

अटल है यह नियम - यह नियम सदा से है और सुनिश्चित है। यह नियम अटल भी है, किसी को इससे छूटकारा नहीं मिला है। हमारे शास्त्रों में भगवान राम को राज्य मिलते मिलते बारह वर्ष का वनवास मिलने की गाथा हैं। धर्मराज युधिष्ठिर सहित पाण्डव तेरह वर्षिय अज्ञातवास में कितने भटके और उन्होने क्या क्या नहीं किया, क्या क्या नहीं सहा, यह सब जानते हैं। हमारे ही देश में स्वतंत्रता के बाद राजाओं का राज्य समाप्त होते हमने देखा हैं। भारतीय राजनीति की अत्यन्त प्रभावाशाली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गॉधी का निर्वाचन में परास्त होना और फिर आपतकाल लगाने की गाथा हम सब जानते है । कोई कितना ही शक्तिशाली हो या प्रभावाशाली हो समय का चक्र चलते हुए अपने पहिए को सदा चलायमान रखता है । गालिब ने क्या खूब कहॉ है - "रात दिन गर्दिश में हैं सातो आसमां, होकर रहेगा कुछ न कुछ घबराए क्या" अर्थात रात दिन गतिशिल है जो होना है होगा ही, अत: क्यों घबराए।

तब क्या करे? - समय के चक्र को तो हम रोक नहीं सकते किन्तु उसे स्वीकार ही कर सकते है,इन्तजार कर सकते है कि यह पहिया घुमते हुए फिर हमारे पक्ष में आएगा । इसके लिए चाहिए साहस, मनोबल । यदि इन क्षणों में हम साहस और मनोबल को बनाए रखे तो वह धैर्य हमें सफलता के महान प्रशस्त मार्ग पर ले जाएगा । गीता में भगवान कृष्ण ने महावीर अर्जुन के डिप्रेशन मे आने पर समत्व योग का उपदेश दिया । महावीर अर्जुन युद्ध स्थल पर धनुष फेंक कर युद्ध न करने की घोषणा कर चुके थे । तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि दु:ख का हेतू युद्ध नही कामना है । मन का आग्रह छोडे बिना कल्याण नही है । गीता के अघ्याय 2 लोक 38 में भगवान कहते है - "तुम सुख या दु:ख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किए बिना युद्ध के लिए युद्ध करो, ऐसा करने पर तुम्हे कोई पाप नही लगेगा" वास्तव में हमारा जीवन भी एक युद्ध है । इसमें दु:ख आते ही इसलिए है कि हम स्वार्थ, कामना, अंहकार और विषमता के कारण चाहते है कि आपके चाहे अनुसार ही परिस्थितिया, घटनाए घटित हो । जब कि क्षण क्षण परिवर्तित होती प्रकृति में यह सम्भव ही नहीं है । ध्यान रहे आपका शरीर, इन्द्रिया, मन सभी क्षण क्षण परिवर्तनशिल है। ये भी आपकी आज्ञा में नहीं है इसलिए आपके मन से मन को ही ये तथ्य समझाना पडेगा। यह मन ही आपका मित्र व शत्रु भी है।

भगवान श्री कृष्ण गीता के अध्याय 2 लोक संख्या 48 में कहते है - "हे अर्जुन ! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो, ऐसी समता योग कहलाती है" सम्पूर्ण गीता अर्जुन के बहाने जीवन के युद्ध में समत्व योग द्वारा विजय प्राप्त करने की कला का वर्णन करते है। यह कला सुख दु:ख, जीत पराजय में अपने मन को समत्व भाव में टिकाए रखने के लिए मार्ग बताती है लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि हम प्राणी मात्र में समता की दृष्टि रख सके । सब में वासुदेव के दर्शन करे और कामना, स्वार्थ, अहंकार का त्याग कर सके । यदि जीवन के युद्ध में समता के स्वर हम दे सके तो दु:ख, असन्तोष, तनाव विवाद आ ही नहीं सकते । इस पर विचार कर देखिए ।

सत्यनारायण भटनागर

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