Friday, October 30, 2009

जीत आपकी ही है



हमारा जीवन क्या है? इसकी अलग-अलग विद्वानों ने अपने ढंग से व्याख्या की है। कुछ कहते है यह एक कभी न खत्म होने वाली यात्रा है और दूसरे इसे बाजार बताते है जहाँ हमारे गुण अवगुणों का मूल्यांकन होता है। ऐसे भी विद्वान है जो जीवन को नाटक कहते है। उनका मत है कि हम सब संसार में एक विशेष प्रकार का अभिनय करने आते है जो अपने कार्यो से सर्वश्रेष्ठ अभिनय करता है, उसे याद किया जाता है। लेकिन इन सबसे अलग हट कर ऐसे भी विद्वान है जो इसे एक युद्ध कहते है। उनका मत है कि जीवन रूपी युद्ध में हम सब अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर विजेता बन सकते है। जीवन एक अवसर है जिसमें हम सफलता पाते है।

क्या जीवन एक युद्ध है - सच पूछो तो सफल जीवन एक युद्ध है। इसमें जीवन मरण दोनो है। शुभ है तो अशुभ भी है। यहाँ कर्म ही कर्म है। जीवन में सब गुण अवगुण समाहित हो जाते है। एक सैनिक की तरह जो जिया, उसका जीवन एक सफल जीवन माना जा सकता है। इसलिए साहित्यकार जयशंकर प्रसाद कहते है ’ जागरण का अर्थ है कर्म क्षेत्र में अवतीर्ण होना और कर्मक्षेत्र क्या है जीवन संग्राम ।’ साहित्यकार जैनेन्द्र का मत है ’जीवन कुरूक्षेत्र है। वह इसलिए युद्ध क्षेत्र है भी है। यह जीवन की विचित्रता और जटिलता है कि युद्ध को और धर्म को उसमें साथ साथ साधना पड़ता है। इस साधना में जीवन का रूप आप ही आप धर्म युद्ध हो जाता है।

क्यों है संग्राम - वास्तव में हमारा जीवन एक संग्राम है। इस संग्राम को धर्मयुद्ध बनाना ही एक कला है। भारतीय शास्त्रों में इसलिए इस संग्राम का गौरवगान मुक्त कण्ठ से किया गया है। इसलिए कहा जाता है कि संग्राम में मारे जाने पर स्वर्ग प्राप्त होता है और जीतने पर यश मिलता हैं । लोक में दोनो ही सम्मानीय है। इसलिए युद्ध सार्थक होते है। भगवत् गीता जैसा दार्शनिक ग्रन्थ यही कहता है । गीता का गान युद्ध क्षेत्र में ही हुआ और इसी में भगवान कृष्ण ने जीवन जीने की कला का ज्ञान कराया है। महात्मा गाँधी तो कहते है कि गीता माता है और जब भी कोई समस्या आती है वे इस माता के चरणों में अपना सर रख कर समाधान पूछते है। युद्ध के समय गाए गए गीत का यह अद्भूत महत्व है। पृथ्वीराज रासों में कवि चन्द बरदाई कहते है, ’ सभी सामन्त युद्ध में रस में लीन होने के कारण ब्रम्ह ज्ञानी से प्रतीत होते थे क्योकि उनके पास सुख दुःख की लौकिक भावना नहीं दिखाई पड़ती थी ।

गीता हमें जीवन में निष्काम कर्म करने का सन्देश देती है। संसार की आसक्ति ही हमारे दुःख और कष्ट का कारण है लेकिन क्या निष्काम कर्म योग संसार में व्यवहारिक रूप में प्रयोग किया जा सकता है जहाॅ हम राग, द्वेष, घृणा लालच में दिन रात पड़े हुए है। इसलिए दार्शनिक सिद्धांत तक तो यह ठीक लगता है लेकिन जीवन संग्राम के व्यहारिक क्षेत्र में हम उसका कैसे प्रयोग करें? यह समझ में नहीं आता। यदि युद्ध क्षेत्र का सैनिक ब्रम्हज्ञानी है तो कैसे? यह समझ नहीं आता तो इसके लिए हम पुनः महात्मा गाँधी की वाणी सुनते है वे अहिंसा के प्रबल पक्षधर है। वे कहते है,   ’’एक सैनिक यह चिन्ता कब करता है कि उसके बाद उसके काम का क्या होगा? वह तो अपने वर्तमान कर्तव्य की ही चिन्ता करता है।’’ अतः यह स्पष्ट है कि एक सैनिक की तरह यदि हम अपने वर्तमान कर्तव्य कर्म को ही चिन्ता रहित होकर करते रहे तो हमारा कृत्य निष्काम कर्म होगा। होता यह है कि हम कर्म की प्रेरणा स्पष्ट रूप से अपने स्वार्थ, प्रलोभन और अहंकार के वश करते है। कर्म करते हुए हमारे मन में राग, द्वेष , घृणा, शत्रुता, लोभ, लालच के भाव हमें प्रेरित करते रहते है। मृत्यु की तो हम सोच ही नहीं सकते। यदि मृत्यु की आशंका मात्र हो तो हम भाग खड़े हो जब कि एक सैनिक जो युद्ध क्षेत्र में खड़ा है वह पहली शर्त के रूप में मृत्यु को स्वीकार करता है। मृत्यु से मित्रता के बिना तो कोई सैनिक हो ही नहीं सकता। हर सैनिक युद्ध शान्ति के लिए लड़ता है और अन्य कोई उसका उद्देश्य नहीं होता ।

जीवन का संग्राम युद्ध की तरह हमारे अन्तरतम की गहराई में सुलगता रहता है। जीवन की कला इसमें में है कि इस युद्ध को हम धर्म युद्ध की तरह लड़े।

युद्ध में कोई द्वितीय पुरूस्कार नहीं होता - हमारा जीवन एक युद्ध है। यहाँ हर व्यक्ति एक दूसरे से प्रतियोगिता करता है। अपने आपको सर्वश्रेष्ठ घोषित करता है। सबमें अपने अपने गुण है। यह जीवन संग्राम युद्ध की तरह ही है। लेकिन युद्ध में सैनिकों की एक संस्कृति होती है। नियम होते है कानून होता है उनका अनुशासन होता है। इस संस्कृति में, नियम एवं विधि का पालन करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य होता है। यदि इनका पालन न हो तो दण्ड दिया जाता है।

क्या है युद्ध की संस्कृति ? सेना में जो भी सैनिक युद्धरत होते है, उनका अपना कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं होता। वे देश के लिए लड़ते है। सबसे पहले देश सेवा उनका मतव्य होता है। उसके लिए प्राणों की बाजी वे लगा देते है। वे जानते युद्ध में हार जीत कुछ भी हो सकती है। वे मृत्यु के लिए तैयार होकर देश के लिए लड़ते है। अपन सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते है। इस युद्ध में या तो आप जितेंगे या आप खत्म हो जाएंगे। यहाँ द्वितीय पुरूस्कार नहीं होता।

ऐसे ही यदि जीवन संग्राम में हम अपने स्वार्थ को अलग रख कर सेवा भावना से सर्वश्रेष्ठ कार्य कर देश समाज के लिए अपने प्राणों की आहूति देने को तत्पर हो तो कहा जाएगा कि हम निष्काम कर्म योग को धारण कर लिए है। फल तो हमें जो मिलना होगा मिलेगा। सैनिक उसकी चिन्ता कहाँ करता है। आज हम स्वतंत्रता संग्राम के सैनिको की इसलिए चर्चा करते है, क्यो करते है उन्हे याद । इसलिए ना कि उन्होने अपने लिए कुछ न चाहा , देश की स्वतंत्रता के लिए वे प्राणों को त्यागने के लिए तत्पर हो गए। निस्वार्थ कर्म ही जीवन के संग्राम में सफलता की पहली और अन्तिम शर्त है।

विकल्प का सवाल ही नहीं - युद्ध में आपको अपना सर्वश्रेष्ठ कार्य प्रदर्शित करना है। जीतों या मरों । स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विनोबा भावे ने इसलिए स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित होने के पूर्व अपनी समस्त उपाधियों को जला दिया ताकि संग्राम के बीच में उन्हे कभी कोई स्वार्थ प्रलोभित न कर सके। जीवन संग्राम में सफलता की वही शर्त है जो युद्ध में सफलता की है। स्वतंत्रता संग्राम भी एक जीवन संग्राम था।

महात्मा सुकरात ऐन्थेस नगर राज्य में विष का प्याला पी गए किन्तु सत्य की उद्घोषणा पर डटे रहे। वे चाहते तो समझौता कर सकते थे पर संग्राम में समझौते कहाँ होते है। फिर सत्य का संग्राम तो अनूठा होता है। महात्मा सुकरात इसलिए सत्य के संग्राम में विजय हो सके क्योकि उन्होने अपने जीवन में स्पाटी राज्य से हुए तीन युद्धों में सक्रिय भाग लिया था और वे महात्मा के साथ शूरवीर भी थे ।

जीवन संग्राम का अर्थ - जीवन संग्राम में हर व्यक्ति का एक लक्ष्य होता है। बिना लक्ष्य का भी कोई जीवन है। फ्रान्स की अध्यात्मिक सन्त श्री माॅ कहते है, जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा तुम्हारा जीवन होगा। ’ इसलिए हमारा जो भी लक्ष्य हो, उसके लिए निरन्तर सर्वश्रेष्ठ कार्य करना और ’ करो या मरों ’ के भाव से लगे रहना जीवन के संग्राम में सफलता का सूत्र है। संग्राम में सर्वश्रेष्ठ वीरता भी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं होती । सामुहिक हित ही हमारा हित होता है। इसलिए इस भावना से जो कार्य किया जाएगा वह हर हालत में निष्काम होगा। फिर उसमें हार भी जीत है। जीत तो जीत है ही। हताश और कर्महीन अर्जुन को यही तो गीत सुनाया है भगवान कृष्ण ने।

अतः जीवन को संग्राम माने या नाटक सर्वश्रेष्ठ वीरता दिखाए या अभिनय भाव एक ही है, इसलिए जीवन का कोई लक्ष्य बनाइए । उँचा लक्ष्य चुनिए और संग्राम में करो या मरो के भाव से सम्मिलित हो जाइए जीत आपकी ही है।

Tuesday, October 27, 2009

व्यर्थ की दौड़ से बचिए, आराम से चलिए


जीवन में कर्म का बहुत महत्व है। हम एक क्षण भी बिना कर्म किए रह ही नहीं सकते। बिना कर्म किए रहना ही एक सजा है। कर्म जीवन का यज्ञ है। कर्म के बिना हम जीवन यापन नहीं कर सकते। इसलिए गीता में कर्म योग को प्रमुख स्थान दिया गया है। कर्म का सिद्धांत बड़ा गहन है। हम सब कर्म के अधीन है। हमारे सारे पाप पुण्य कर्म से तय किए जाते है। कर्म जिस भाव से किए जाते है। उसका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। कर्म हमारे स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते है। हमारी आयु सौ वर्ष हो। हम सक्रिय रूप से जीवन व्यतीत करें। यह हमारी कामना होती है।

क्या हमारा जीवन सतत् कर्मो पर निर्भर करता है। क्या हम कर्मो के अधीन स्वास्थ और आयु पाते है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर विचार की आवश्यकता है। कर्म के साथ विश्राम का भी अपना महत्व है। हमारा जीवन केवल कर्म करने पर प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह नहीं हो सकता। विश्राम भी आवश्यक है। दौड़ जरूरी है किन्तु हम कहाँ जाना चाहते है? दौड़ का परिणाम क्या होगा, यह भी विचार जरूरी है अतः कर्म के साथ विचार भी आवश्यक है। विश्राम कितना आवश्यक है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। आइए देखे, पढे़ इस समाचार को।

आराम करें उम्र बढ़ाए - फुन्दा(जर्मनी) क्या आप शतायु होना चाहते है? अगर हाँ तो काम करना छोडिये और आराम कीजिए। जर्मनी के एक वैज्ञानिक पीटर एकस्ट का कहना है कि लम्बी दूरी तक दौड़ने की बजाय घर में बैठकर आराम करने वाले या स्कवैश खेलने के बजाय दोपहर की नींद लेने वाले व्यक्तियों के अधिक समय तक जीवित रहने की संभावना रहती है। उनका कहना है कि खाली समय में धीरे-धीरे घुमना, भूख से ज्यादा न खाना ही अच्छे स्वास्थ की निशानी है। लेकिन बहुत जल्दी-जल्दी चलना स्वास्थ खराब करता है। प्रो. एक्सट का कहना है कि पचास वर्ष की उम्र पार कर चुके व्यक्ति अन्य कार्यो के लिए आरक्षित उर्जा का उपयोग करके लम्बी दूरी तक दौड़ते है और इस कारण उनकी यादाश्त कमजोर हो जाती है और वे समय के पहले सठिया जाते है। उन्होने सुबह जल्दी जागने को दिनभर की सुस्ती का कारण बताते हुए सूर्योदय के बाद तक सोने की सलाह दी।

आराम हराम है - यह समाचार हमारी धारणाओं को उलटता है। हम समझते है आराम हराम है। इस व्यस्त दुनिया में आराम के लिए समय कहाँ? दिन के चैबिस घंटे आज कम पड़ रहे है। सफलता पाने के लिए शिखर पर पहुँचने के लिए एक अंधी दौड़ चल रही है, उसमें भला विश्राम के लिए कैसे सोचा जा सकता है। खरगोश विश्राम करने ठहर गया तो कुछए से हार गया। भला इस प्रतियोगिता के युग में आराम कैसा?

इस बिन्दु पर विचार आवश्यक है। आराम उम्र बढ़ाने के लिए सचमुच आवश्यक है। हम सफलता की अंधी दौड़ में भौतिक सफलता तो पा सकते है पर स्वास्थ नहीं। इस दौड़ में आराम हराम घोषित कर हम बीमारियां बुला सकते है। स्वास्थ बिगाड़ सकते है और हमारी प्राप्त की गई भौतिक सफलता, समृद्धि पर प्रश्न चिन्ह खड़े कर सकते है। लम्बी उम्र पाने के लिए आराम उतना ही आवश्यक है जितना कार्य करना, सक्रिय रहना। आज तक जो शिखर पर पहुँचे है उन्होने विश्राम के इस तत्व को याद रखा है।

लम्बी उम्र का रहस्य - लम्बी उम्र का भौतिक सफलताओं से कोई संबंध नहीं रहा है। ऐसे बहुत से कारक है जो लम्बी उम्र और स्वास्थ के कारक है जिन पर हम ध्यान ही नहीं देते। यदि हम उन पर ध्यान दें तो अंधी दौड़ पर अपने आप नियंत्रण लग जाएगा।

ईर्ष्या और क्रोध - ईर्ष्या और  क्रोध लम्बी आयु के दुश्मन नम्बर एक है। इन्हे भगवद् गीता में नरक का द्वार कहा गया है। आज की प्रतियोगिता की अंधी गलाकाट जीवन पद्धति में ईर्ष्या एक आवश्यक प्रेरक तत्व है। ईर्ष्या के बिना प्रतियोगिता का विचार ही हम नहीं कर सकते। एपो‌ॠफा धर्मग्रन्थ में कहा गया है, ईर्ष्या और क्रोध जीवन को छोटा कर देते है ’ इसलिए जरूरी है कि हम लम्बी दौड़ के इस जीवन में ठहर कर विचार करें।

सदाचार - लम्बी उम्र और अच्छे जीवन के लिए सदाचार का होना आवश्यक है। यदि हम दैविय गुणों से पूर्ण होंगे तभी हमारे जीवन में उदारता, त्याग, प्रेम, सहयोग ,क्षमा जैसे गुण होगे। हम ईर्ष्या, द्वेष से अलग रहेंगे। लम्बी और आनन्दपूर्ण जीवन के लिए सदाचारी जीवन आवश्यक है। मनुस्मृति में कहा गया है, ’सदाचारी, श्रद्धावान और ईर्ष्या रहित मनुष्य सौ वर्ष जीवित रहता है। यदि अन्य गुण कम हो या न भी हो यदि सदाचार के गुण व्यक्ति में है तो वह प्रतियोगिता से बाहर रहेगा, तनाव रहित रहेगा और लम्बी आयु पावेगा। ’

द्रव्य शुद्धि कर्मो की शुद्धि - लम्बी आयु के लिए द्रव्यशुद्धि और कर्मो की शुद्धि भी आवश्यक है। यदि हम समाज द्रोही गतिविधियों में संलग्न रह कर अधिकतम् धन अर्जन की प्रतियोगिता में सलंग्न होगे तो भले ही भौतिक समृद्धि हम पा ले किन्तु लम्बी आयु नहीं पा सकते। भारतीय ग्रन्थ योग वशिष्ट में कहा गया है , ’मनुष्यों की आयु कम व अधिक होने में देशकाल, क्रिया, द्रव्यशुद्धि अशुद्धि और स्वकर्मो की शुद्धि -अशुद्धि कारण होते है ’ लम्बी आयु के लिए इन गुणों को सदाचार के अन्तर्गत ही मानना चाहिए।

भोजन - भोजन का स्वास्थपद व स्वच्छ मिलना भी आयु के लम्बे व छोटे होने से सम्बन्ध रखता है। हिन्दी में एक कहावत है ’ कासाभर खाना आसा भर सोना ’ लम्बी आयु का कारक है । उपरोक्त सभी तत्वों में व्यायाम का कहीं उल्लेख नहीं है। यदि हम खूब क्रियाशील हो और व्यायाम भी करे तब भी इस बात को सुनिश्चित रूप से घोषित नहीं किया जा सकता कि हमारी आयु लम्बी होगी किन्तु ईष्या, द्वेष रहित सदाचार भरी आराम दायक जिन्दगी निश्चित ही लम्बी होगी।

आराम करे, उम्र बढ़ाए का नारा निश्चित रूप से शान्त जीवन जीने का सन्देश है। यह सन्देश कहता है लम्बी दूरी की दौड़ दौड़ना व्यर्थ है। इस दौड़ की व्यर्थता दौड़ के अन्त में पता चलती है जब हाथ में कुछ नहीं आता, तब ही दौड़ की व्यर्थता का ज्ञान होता है। इस तथ्य को साहित्यकार शेक्सपियर ने रोमियों -जुलियट में इस प्रकार कहा है’ ’’बुद्धिमता के साथ और धीमे चलों, जो तेज भागते है उन्हे ठोकर लगती है ’’ स्वामी रामतीर्थ ने इसी बात को इस प्रकार कहा है, ’’ सभी सच्चा काम आराम है ’’ इस दृष्टि से जर्मन वैज्ञानिक के शोध पर विचार करेगे तो लगेगा कि अन्धी दौड़ व्यर्थ है। तनाव उत्पन्न करने वाली है। हम घड़ी पहनते भी है और समय की पाबन्दी की बात भी करते है किन्तु कभी घड़ी के कांटे के अनुसार समयबद्ध कार्य नहीं करते क्योकि घड़ी के कांटे को महत्व देने से जीवन में तनाव आता है। काम का अपना महत्व है किन्तु काम के साथ कठोरता का कोई भी तत्व काम के आनन्द को समाप्त कर देता है। यही कारण है कि प्रतियोगिता में उतरे अधिकांश युवा जवानी में वृद्धावस्था की बीमारियों से ग्रसित हो रहे है। कमरदर्द, पीठदर्द, उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, हृदय रोग, अवसाद, तनाव आज युवाओं में भी पाया जा रहा है। युवाओं और किशोरों में आत्महत्या की प्रवृति बढ़ रही है। हिन्सा बढ़ रही है जो उनके जीवन में आई निराशा का परिणाम है। इसलिए धीमें चलो, शान्त चलों और लम्बी आयु प्राप्त करो , यही जीवन की सच्चाई है।

आज तक दुनिया में जो भी महत्वपूर्ण मानव कल्याण के शोध हुए है, वैज्ञानिक उपकरण प्राप्त किए गए है वे सब शान्त, एकाग्र, धैर्यपूर्वक निरन्तर किए गए प्रयोगों के फल है। जल्दबाजी में तेजी से कोई भी महत्वपूर्ण कार्य आज तक नहीं हुआ। एक कहावत प्रसिद्ध है जल्दी काम शैतान का। अतः जीवन में यदि कुछ महत्वपूर्ण प्राप्त करना है तो आराम से, तनाव रहित होकर ही पाया जा सकता है। इसलिए यदि कोई वैज्ञानिक शोध कर यह कहता है कि आराम करें, उम्र बढ़ाए तो उस पर विचार किया जाना चाहिए। श्रीमद् भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कर्मयोग की प्रेरणा देते है किन्तु कर्मयोग में भी अन्धी दौड़ के लिए कोई सन्देश नहीं है। हमारी योग्यता, क्षमता, परिस्थिति, वातावरण और शक्ति के अनुसार हम जो अधिकतम पूर्ण गुणवत्त्ता के साथ कर सके, वहीं करने की प्रेरणा उसमें है। अन्धी गलाकाट प्रतियोगिता तो कामना और स्वार्थों के कारण होती है जिसका श्रीभगवत् गीता में निषेध है। किसी भी धर्म ग्रन्थ में इस प्रकार की प्रतियोगिता का समर्थन नहीं है जो हम आधुनिकता के नाम पर अपना रहे है। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है जो कर्म के फल का विचार न कर केवल कर्म के लिए दौड़ता है,  उसका फल मिलने के समय उसी प्रकार शोक करता है जैसे ढ़ाक का वृक्ष सींचने वाला करता है। लम्बी उम्र और शान्त जीवन के लिए स्वास्थ पद भोजन और पूर्ण विश्रामदायक नींद ही आवश्यक है जिसके लिए तनावरहित जीवन आवश्यक है। इसलिए व्यर्थ की दौड़ पर विचार कीजिए और आरामदायक चिन्तामुक्त जीवन का प्रारम्भ कीजिए। इससे आपकी उम्र तो बढ़ेगी ही, अन्तरात्मा की आवाज सुनने का समय मिलेगा, सही निर्णय होगे, सफलता आपका इन्तजार करेगी। व्यर्थ की दौड से अन्त में निराशा के सिवाय कुछ भी नहीं मिलता।

Sunday, October 25, 2009

अपनों को धन्यवाद अवश्य दीजिए


श्री छोटेलाल जी मेरे निकट पड़ौसी है और मेरे एकांकी जीवन में हमेशा सहयोगी रहे है। अभी एक दिन मैने उनसे कहा, ’ मुझे सुबह पांच बजे उठ कर यात्रा पर जाना है। क्या आप मुझे उठाने के लिए सुबह टेलीफोन की घण्टी बजा देंगे ? उन्होने हां भरी और ठीक समय पर टेलीफोन की घंटी बज उठी। मैं बिस्तर से उठा, तैयार हुआ और यात्रा पर चल दिया। यात्रा से वापस आने पर मैने उन्हे धन्यवाद दिया। कहा, ’’ आपके सहयोग के द्वारा यात्रा आनन्दमय रही। ’’ जब मैने उन्हे धन्यवाद दिया तो वे बोले, ’’ में टेलीफोन करने के बाद इंतजार करता रहा कि आप जवाब देंगे ,पर आपकी ओर से उत्तर न पाने पर मैं कुछ समझ नहीं पाया।’’ तब मुझे अनुभव हुआ कि मुझे तत्काल धन्यवाद देना था। मुझसे भूल हुई। जब मैने अपने पडौसी को धन्यवाद कहा तो उनके चेहरे पर प्रसन्नता और संतोष का भाव था। जब भी कोई हम पर उपकार करता है तो हमें एक धन्यवाद का स्वर हृदय से देना ही चाहिए। इसमें कंजूसी कैसी?

यह दुनिया एक दूसरे की सहायता से चलती है। कुछ लोग हमें सहायता देते है, कुछ लोगों को हम सहायता देते है। अपनी अपनी परिस्थिति और योग्यता के अनुसार सहायता का आदान प्रदान चलता रहता है। यह संभव ही नहीं है कि हम बिना किसी सहायता के अपने सभी काम सम्पन्न कर लें। होता यह है कि जब भी कोई अनजान व्यक्ति हमारी सहायता करता है तो हम तत्काल भाव विभोर हो उसे धन्यवाद देते है। उसकी सहायता को हम विस्मृत नहीं करते। सबसे कहते सुनते है पर जब कोई हमारा अपना सहायता प्रदान करता है तो हम मौन रहते है सोचते है यह तो उसका कर्तव्य था। उसने कर्तव्य निर्वाह किया, इसमें कैसा धन्यवाद !

अपनो को भी दे धन्यवाद - यह सही है कि अपनों को शाब्दिक धन्यवाद देने में संकोच होता है। उनकी सहायता स्वभाविक होती है, वे हमसे धन्यवाद की आशा नहीं रखते है। हमारे शरीर के संकेत तो आभार व्यक्त कर सकते है। हमें अपने निकटतस्थ व्यक्तियों का भी हृदय से धन्यवाद ज्ञापन करना चाहिए। धन्यवाद शब्दों से ही नहीं कार्यो से भी दिया जा सकता है। जब भी अवसर मिले हमें अपने कर्तव्य का पालन उचित रीति से कर धन्यवाद देना चाहिए।

हमारे माता-पिता ,पत्नी, पति, भाई ,बहन और अन्य सम्बन्धी हमारे दिन रात कुछ न कुछ करते है। क्या हम उनके उपकारों का ध्यान रखते है ? क्या हम हृदय से उनके आभारी रहते है? मेरा अनुभव है नहीं । अवसर मिलते ही सुनने को मिलता है ’ उन्होने हमारे लिए क्या किया ? जो कुछ उन्होने किया, वह तो उनका कर्तव्य था। सब करते है। हम भी अपने बच्चों के लिए करेंगे। उन्होने कोई एहसान नहीं किया ।’ यह भाव यह बताते है कि हम अपनों को उपकार मानते ही नहीं। जबकि अन्य लोगों के द्वारा छोटे से छोटा किया गया उपकार हमें याद रहता है। यहां तक कि रिश्वत खौर बाबू भी हमसे धन लेकर हमारा जो काम करता है हम उसका भी आभार मानते है पर पडौसी की निस्वार्थ सेवा पर धन्यवाद देना भूल जाते है। अपनों को भी धन्यवाद दे। उन्होने निस्वार्थ भाव से कर्तव्य पूर्ण किये यह क्या कम है। यदि वे अपने कर्तव्य न करंे तब क्या होगा ।

हम अपने निकट संबंधियों को ही नहीं भगवान तक को याद नहीं रखते। भगवान ने भी इस संसार की रचना में हमें अपार आनन्द की सामग्री दी है। ये सूरज, चांद और तारे, ये हवाएं, ये प्रकृति के सुन्दर दृश्य, मौसम, शानदार शरीर ये सब हमारे लिए है। यदि हम न हो तो इन सबका क्या उपयोग ? इसलिए नव विधान में कहा गया है ’ सब बातों के लिए परमात्मा को धन्यवाद दो। इसी तरह व्यक्तित्व विकास के लिए प्रसिद्ध चिन्तक श्री डेल कानगी कहते है ’ जिन बातों के लिए आप कृतज्ञ है उन्ही के विषय में सोचिए और उपलब्ध ऐश्वर्य तथा वैभव के लिए भगवान को धन्यवाद दीजिए ।

होता यह है कि सब कुछ हमारे अनुकूल होते है तो हम प्रसन्न होते है। मौन रहते है, धन्यवाद नहीं देते किन्तु जैसे ही हमारे प्रतिकूल कुछ घटित होता है हम क्रोध से उबल जाते है। दोषारोपण करते है, ध्यान रहे हम सब मानते है कि हमारी कोई भी असफलता, प्रतिकूलता का कारण हम नहीं है, कोई और है। हम हमेशा बहाने बनाकर दोषारोपण करते है और असफलता और अनुकूलता के समय हम दूसरों के उपकारों को भूल जाते है।

अतः अपने ऊपर किये गये छोटे से छोटे उपकार को स्मरण रखिये। धन्यवाद दीजिए और अवसर आने पर वैसी ही सेवा देकर आनन्द दीजिए। यह संसार एक दूसरे की सहायता से ही चलता है। इस संबंध में नीतिशास्त्र के रचियता तिरूवल्लुवर के इस कथन पर ध्यान दीजिए ’ तृणतुल्य भी उपकार क्यों न हो उसके फल को समझने वाले उसको ताड़ के समान मानेंगे। ’

भलाई करना हमारा धर्म है। इसी प्रकार प्रत्युत्तर में धन्यवाद देना, आभार मानना भी हमारा स्वभाव है, कर्तव्य है, यदि हम इस कर्तव्य को पूर्ण नहीं कर पायेंगे तो कल जब हम पुनः किसी से सहायता चाहेंगे तो हमें सहायता नहीं मिलेगी। यह ईशवरीय नियम है। हमें यह सोचना चाहिए कि जितना उपकार हमारा हुआ है उससे अधिक उपकार हमें करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। महाभारत में वेदव्यासजी कहते है ’ दूसरा मनुष्य जितना उपकार करें उससे कई गुना अधिक प्रत्युतर स्वयं उसके प्रति करना चाहिए ।

धन्यवाद की आशा मत कीजिए - भलाई करना हमारा स्वभाव है। धर्म है, अतः हमें जब भी अवसर मिले हम प्राणी मात्र के प्रति उपकार करें। यह हमारी आदत होना चाहिए क्योकि हमें आभार या धन्यवाद की आशा नहीं करना चाहिए क्योकि मानव स्वभाव आभार मानने को सदा तत्पर नहीं होता । धन्यवाद का इन्तजार मत कीजिए अन्यथा आपको, हमको निराश होना पडेगा। अमेरीकी लेखक और वक्ता डेल कार्निगी कहते है ’ उपकारों का भूलना मनुष्य का स्वभाव है। अतः यदि हम दूसरों से कृतज्ञता की आशा करेंगे तो व्यर्थ ही सरदर्द मोल लेना पडेगा ।’

इसलिए सबसे उत्तम मार्ग है कि हम तृण मात्र भलाई के लिए तत्काल धन्यवाद करें और जब भी अवसर मिलें सब भलाई करने को तत्पर रहें । विशेष बात यह है कि इसमें अपनों को भी याद रखें और उन्हे भी धन्यवाद दे।

Thursday, October 22, 2009

एक हाथ से ताली कभी नहीं बजती



मैं एक परिवार में मेहमान था । रात्रि के भोजन के बाद मैं बिस्तर पर विश्राम के लिए पहुँचा। थोड़ी देर बाद मुझे पास के कमरे से पति पत्नी के वाकयुद्ध के स्वर सुनाई दिए। ये स्वर बड़ी तीव्र गति से बढ़ रहे थे। थोड़ी देर बाद वे दोनो लड़ते हुए कमरे के बाहर आ गए। पत्नी ने पति को गाली दी। पति ने एक चांटा रसीद कर दिया। पत्नी ने पास में पड़ी झाडू उठा ली और झगड़ा बढ़ता जा रहा था। मैने पति को डांटा, वह चुपचाप चला गया। पत्नी सुबकते हुए मेरे पास बेठी। थोडी देर बाद वह उठी और वह भी चली गई फिर रात शान्ति से बीती।

इस जोडे को विवाहित हुए दस वर्ष हो गए है। दोनो उच्च शिक्षा प्राप्त है। दोनो अच्छा वेतन पाते है। सुख सुविधा के सब साधन है। एक पाँच वर्ष का बेटा है फिर भी यह ‘गृह युद्ध’ हुआ जो निश्चित ही अशोभनीय था। विशेषकर जब एक वृद्ध मेहमान ठहरा हुआ था किन्तु ऐसा पत्नी पति के बीच होता है। दूसरे दिन वे प्रसन्नचित्त काम पर गए। हमारे देश मे महिलाओं को घरेलु हिंसा के विरूद्ध एक अधिनियम बना हुआ है उस पत्नी ने उस अधिनियम का उपयोग नहीं किया।

घरेलु झगड़े स्वभाविक - हमारे देश में एक कहावत है कि जहाँ पाँच बरतन होगे वहाँ बरतनों की आवाज होगी। यह आवाज होना स्वभाविक ही है। इस पर चिन्ता का कारण नहीं है। इसे अपराध की कोटि में नहीं मानना चाहिए। देखिए क्रिकेट के मैदान में जहाँ हजारों दर्शक होते है खिलाडियों के बीच नोक झोंक होती ही है । अब उसकी शिकायते होने लगी है । इस सम्बन्ध में क्रेग मैकमिलन न्यूजीलैण्ड के पूर्व आलराउण्डर क्या कहते है ’’ क्रिकेट मैदान पर खिलाडियों के बीच थोडी कहासुनी और टिकाटिप्पणी पर प्रतिबन्ध लगाने से खेल का मजा ही खत्म हो जाएगा। खिलाडी रोबोट की तरह हो जाएगे और खेल मशीनी तंत्र का हिस्सा।’‘

पति-पत्नी के बीच भी ‘थोडी सी ’ कहासुनी ऐसी ही घटना है। उनकी कहासुनी प्रेम-अपनत्व की सूचक है। यदि यह न हो तो फिर परिवार का आनन्द ही समाप्त हो जाएगा। फिर तो पति-पत्नी मशीन की तरह मुस्कराते रहेगे। जिन्दादिल लोगो के बीच कुछ खटपट होना  स्वभाविक है। एक शायर ने इसका क्या खूब वर्णन किया है।

‘बदजायका है शरबत, गर तुर्रषी न हो।
 बिसाले यार में भी चाहिए तकरार थोडी सी।।

तुर्रषी कहते है खटाई को । यदि शरबत में खटाई न हो तो शरबत बेस्वाद होता है ऐसे ही प्रेम में यदि तकरार न हो तो वह प्रेम भी बेस्वाद हो जाएगा। सही है तब पति-पत्नी रोबोट की तरह मशीनी जिन्दगी जिएगे। लेकिन इसमें सब महत्व की बात है ‘थोडी सी ’।

बढ़ती हिंसा - यह ‘थोडी सी ’अब मर्यादा लांघ रही है। पति -पत्नी के झगडे अदालत तक जा रहे है। महिला एवं बाल कल्याण मंत्री रेणुका चैधरी ने लोक सभा में एक लिखित बयान में बताया कि सन् 2005 में घरेलु हिंसा के 102 मामले दर्ज हुए थे, वही 2007 में 364 मामले दर्ज हुए। ये मामले तीन गुना बढ़ गए। इन मामलों का अदालत तक जाना एक विचारणीय विषय है । वैसे इतने विशाल देश मे यह संख्या अधिक नहीं है पर इनकी संख्या में वृद्धि विचारणीय तो है ही। हमें यह निसंकोच स्वीकार करना चाहिए कि पश्चिम की सभ्यता के प्रभाव के कारण तथा उपभोक्तावाद के कारण ‘गृहस्थ आश्रम ’ अब नहीं रहा। संयुक्त परिवार बिखर गए और व्यक्तिवाद का विचार चल पड़ा है। इसी कारण भले ही घरेलु हिंसा के मामले विकराल रूप से सामने न आए हो किन्तु तलाक की प्रवृति बढ़ती जा रही है। पति-पत्नी में विष्वास के सम्बन्ध कमजोर हो गए है। एक दूसरे के प्रति संषय बढ़ता जा रहा है। पति-पत्नी आपस में हत्या तक करा रहे है। ये घटनाएं हमें चेतावनी देती है कि ये सम्बन्धों की कडी कमजोर हो रही है। इसके क्या कारण है उस पर विचार किया जाना समय की आवष्यकता है।

क्या है कारण - एक समय था जब स्त्री का पक्ष कमजोर माना जाता था। आज स्त्री पुरूष समानता को हम स्वीकार कर चुके है पर अभी भी हमारी मानसिकता नहीं बदली है स्त्री के प्रति जो सम्मान होना चाहिए वह उसे नहीं मिलता। ठीक ऐसा ही पुरूष अनुभव करते है। वे कहते है कि महिलाओं के पक्ष में कानून बन जाने के कारण इनका दुरूपयोग हो रहा है और महिलाएं और उनके परिजन इनके आधार पर हमेशा भयभीत करते रहते है।

विवाह का आधार प्रेम है। प्रेम हो तो सम्मान बना रहता है जब प्रेम का अभाव होता है और अहंकार का उदय होता है तो विवाद प्रारम्भ हो जाते है। दूसरे की कमजोरियों का पता चल जाता है और तब फिर वह प्रेम ठहर नहीं पाता और विवाद उजागर होने लगते है। इस दुनिया में कोई भी एकदम पूर्ण नहीं होता। हम सब कमजोरियों के पुतले है। अपने प्रेमी की समस्त कमजोरियों के साथ उसे चाहने का नाम ही तो प्रेम है इसलिए सब झगड़ों की जड़ प्रेम अभाव है। हम विवाद के लिए चाहे जितने कारण बताए पर मूल कारण एक ही है।

प्रेम के अभाव के कारण - विवाह के प्रारम्भ में प्रेम हो और बाद में अभाव पैदा हो तो उसके क्या कारण हो सकते है -विचार कीजिए।
  1. आज कल विवाह पूर्ण वयस्क होने की अवस्था में होता है। इस अवस्था तक परिवार में जो संस्कार मिलते है उसका वैवाहिक जीवन पर बड़ा प्रभाव रहता है। हम अधिकारों को जानते हुए वयस्क होते है। कर्तव्य तो विचारते ही नहीं। गृहस्थ आश्रम में कर्तव्य ही अधिक होते है। कर्तव्य पालन करने के बाद ही अधिकार आते है। अधिकारों की घोशणा और कर्तव्यों व दायित्वों पर आँख मुदना ही विवाद का कारण होता है। इसके बीच एक छिपा अहंकार रहता है कि मैं सर्वश्रेश्ठ हूँ। मैं क्यों दबू। इस चक्कर में एक दूसरे के दोष खोजे जाते हैं। उन्हें उजागर किया जाता है। एक दूसरे पर दोष  लगाए जाते है। यदि कोई स्वंय को समझदार समझे तो कोई हर्ज नहीं लेकिन अधिकारों की द्योषणा के साथ दूसरे को मूर्ख समझना झगड़े की जड़ बन जाता है। आपका साथी जैसा भी है वह आदर का पात्र है पर  समानता के नारे के साथ यह आदर देना हम भूल रहे है। मित्रता में भी समानता रहती है। मित्रता भी बिना आदर के नहीं रह सकती पर ये संस्कार अब परिवार में नहीं दिए जाते है अब ये संस्कार सीखती है टी.वी. चैनल्स से, मित्रों से, पत्र-पत्रिकाओं से और यहाँ सीखने के लिए बहुत कुछ नहीं होता। एक परिवार में भोजन खाने के बाद  झूठे बर्तन टेबल पर पड़े रहते हैं। उन्हे उठाना ये सब परिवारों में नहीं चलता। परिवार होटल नहीं है। वहाँ प्रेम अपनत्व होना चाहिए। इन छोटी छोटी बातों पर भी युद्ध छिड़ जाता है।
  2. इस वातावरण में शान्ति स्थापना के लिए कोई नहीं होता। हाँ आग लगाने के लिए एक तृतीय पक्ष रहता है। जो मायका या ससुराल होता है। ये पक्ष अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए भड़काऊ क्रिया कलाप पैदा करता है। इस तृतीय पक्ष में पुलिस और अभिभाषक वर्ग का भी सहयोग मिल जाता है और तब आग में घी डालने के लिए कई धाराएं, तर्क, घटनाएं उपस्थित हो जाते है जिनका वास्तव में होना पाया ही नहीं जाता।
  3. इस समय तक युवा पति पत्नी को सही मार्गदर्शन देने के लिए परिवार का कोई बुजुर्ग नहीं होता जिसके प्रभाव से दोनो के मध्य प्रेम के बीज बोए जाए। हमने बुजुर्गो को तो दुश्मन मान परिवार संस्था से बाहर निकाल ही दिया है । तब वे  कहाँ से उपस्थित हो। पति -पत्नी के झगडो के लिए किसी न्यायालय की आवश्यकता नहीं है। वे स्वयं अपनी समस्या हल करे। यदि वे  समस्या हल न कर पाए तो परिवार के बुर्जग समस्या का हल खोजे। यदि उनसे भी हल न हो तो न्यायालय अन्तिम चरण हो सकता है लेकिन इस स्तर पर पर भी बीच मे अभिभाषकों की आवश्यकता नहीं है ये प्रेम का सौदा है इसमें कानूनी तर्क वितर्क नहीं, आपसी समझ ही काम आना चाहिए।
  4. आज परिवारों के टूटने में भोजन बनाने के प्रति अरूचि भी एक कारण है। भोजन बनाने का शिक्षण दिया ही नहीं जाता। दिया जाता है तो सतही तौर पर जब कि भोजन जीवन के लिए अनिवार्य है और उसकी विविधता और मर्म जानना स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। रसोई हमारे जीवन के केन्द्र में है। हम कामवाली महिलाओं के भरोसे नहीं चल सकते। उनका सहयोग लेना ठीक है लेकिन उन पर निर्भर होना परतंत्रता है। आज युवक युवतियों को केवल पढ़ना, अच्छे अंक लाना, उचे वेतन की नौकरी या व्यवसाय करना सिखाया जाता है। भोजन व रसोई घर के प्रति यह उदासीनता पति पत्नी के बीच विवाद पैदा कर देता है। अच्छे भोजन का हमारे स्वास्थ और मन से भी सम्बन्ध है।
  5. सच बात यह है कि परिवार चलता है सेवा, त्याग, प्रेम आपसी सम्मान से। यही गृहस्थ आश्रम की मूल आधार भूमि है। आश्रम के संबंध में संस्कृत विद्वान भोलानाथ शर्मा कहते है  ‘जिस प्रकार अन्न की उत्पत्ति के लिए आर्दश बीज भंडारों की आवष्यकता होती है। उसी प्रकार मानव विकास के लिए श्रद्धालु संतोषी एवं दृढ़वती व्यक्तियों के आश्रमों की आवष्यकता होती है।’ इन गुणो के कारण ही दोनों पक्षों में प्रेम पनपता है। इसमें कोई भी एक पक्ष स्वंय को श्रेष्ठ माने और दूसरे को हीन तो यह अंहकार क्रोध उत्पन्न करेगा ही। गीता में क्रोध को नरक का द्वार बताया है। यदि एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव न होगा तो फिर विवाह का कोई अर्थ नहीं है।
झगड़ों से उपजे परिणाम- परिवारों मे जो झगड़े बढ़ रहे है उसके दुःखद परिणाम उभय पक्ष को भुगतने पड़ते है। सबसे अधिक संकटग्रस्त होते हैं बच्चे। वे अपने को असुरक्षित समझ भयभीत रहते हैं। उनको परिवार में प्रारंभ से ही गलत संस्कार मिल जाते हैं। फलस्वरुप ऐसे बच्चे बड़े होकर असामाजिक और हिंसक हो जाते है। वे समाज में समस्याए पैदा करते है। अपराध बढ़ाते है उनका संबंधो में विश्वास नहीं रहता।

परिवार में पति पत्नी के बीच विवाद, तनाव, डिप्रेशन तो लाता ही है, यह भी अविश्वास का वातावरण निर्मित करता है। इन्हीं क्षणों में पति पत्नी और ‘वो’ का उदगम होता है। आज यदि पति संशय में पत्नी की हत्या कर रहा है और पत्नी पति की हत्या कर रही है। तो इसका कारण यह संशय और ‘वो’ तत्व ही है। संशय की दवा लुकमान हकीम के पास भी नहीं है। संदेह क्या क्या कर सकता है इस संबंध मे सुनिए अंग्रेज निबंध लेखक फ्रांसिस बेकन क्या कहते है, ‘विचारों में संदेह पक्षियों में चिमगादड़ो के समान होते है। वे सदा धुन्धले प्रकाश में ही उड़ते है। निसंदेह उन्हें दमित किया जाना चाहिए या कम से कम उनसे बहुत सावधान रहना चाहिए क्योंकि वे मन पर आवरण डाल देते है। मित्रो को गंवा देते है। व्यापार रुद्ध कर देते है। राजाओं को अत्याचार की ओर प्रवृत्त कर देते हैं, पतियों को इश्र्यालु बना देते हैं और बुद्धिमानों को अनिश्चयशील तथा उदासीन बना देते है। वे हद्धय के नहीं, मस्तिष्क के  दोष है।’

संशय से उपजे आपसी विवाद अवसाद के क्षणों में आत्महत्या की ओर भी प्रवृत्त करते है। इसका एक अन्य परिणाम भी प्राप्त होता है जिस पर हम  ध्यान नहीं दे पाते। संशय, तनाव, अवसाद, के कारण हमारी कार्यक्षमता और उत्पादन क्षमता पर भारी प्रभाव पड़ता है। हम अपना कोई भी कार्य मन लगाकर नहीं कर पाते। हम मानसिक रुप से भयग्रस्त हो जाते है। इस मानसिक स्थिती का हमारे मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है और हम उच्च रक्तचाप, हद्धय रोग से भी प्रभावित  हो जाते है। प्रसिद्ध अंग्रेज निबंधकार बेकन कहते है, ‘मन अपने ही सौन्दर्य  से रोगग्रस्त रहता है।’ ये बीमारियाँ महज आपसी विवाद के कारण होती है।

तब क्या करें? - इस दुनिया मे कोई भी पूर्ण नहीं है। हम सबमे दोष तो है ही। इसलिए साथ रहते रहते जिन दोषो को हम अपने साथी में पाए उन्हे स्वीकार करे। दोष ढूंढने के बजाय  गुणों की ओर ध्यान दें। हर व्यक्ति में गुण भी रहते हैं। समय समय पर उन गुणों की प्रशन्सा करें। अवगुण व दोषो को सुधारने के लिए प्रेम पूर्वक प्रयत्न करें।

यदि हमसे कभी भी जाने अनजाने गलती हुई है तो उसे तुरन्त स्वीकार करें। क्षमा माँगे। दुनिया में ऐसी कोई भी गलती नहीं है। जिसे क्षमा न किया जा सके।

अपने परिजनों का तो सम्मान सभी करते है। अपने साथी के परिजनों का भी हद्धय से सम्मान करे। जब भी समस्या उत्पन्न हो तब आपस में बैठकर धैर्य पूर्वक समाधान खोजे। अपनी समस्या के लिए किसी तीसरे पक्ष को मध्यस्त बनाने की भूल न करें। यदि समस्या का समाधान न मिले तो परिवार के बुजुर्गो से अवश्य सलाह लें।

समस्याएं हमेशा रहेगी। हम तलाक ले ले तब भी समस्याएं हमारा पीछा नहीं छोडे़गी। समस्याओं से भागना नहीं है, उनका साहसपूर्वक समाधान खोजना है। यदि आप ऐसा करेंगे तो समस्या में से समाधान निकल आएगा। इस संबंध में जिम डारमेन एक सूत्र बताते है। इस पर ध्यान दीजिए। यह सूत्र हमें याद दिलाता है कि लोगों के साथ व्यवहार करते समय हमारी प्राथमिकताएं क्या होना चाहिए।

सबसे महत्वहीन शब्द है ’मैं’। सबसे महत्वपूर्ण शब्द है ’हम’। सबसे महत्वपूर्ण दो शब्द ‘‘आपको धन्यवाद’’ सबसे महत्वपूर्ण तीन शब्द ‘‘सब माफ किया’’ सबसे महत्वपूर्ण चार शब्द ‘‘आपका क्या विचार है’’ सबसे महत्वपूर्ण पाँच शब्द ‘‘आपने बहुत अच्छा काम किया‘‘ सबसे महत्वपूर्ण छह शब्द ‘‘मैं आपको बेहतर समझना चाहता हूँ’’।

अपने नजरिए को बदलकर आत्मकेन्द्रीयता से समझने की स्थिती तक जाया जा सकता है। बस इसमें इच्छा और संकल्प की आवष्यकता होती है। जिससे हम स्थिती को दूसरे व्यक्ति के दृश्टिकोण से देखने की कोशिश करें।

यह है समस्या का हल। जब भी विवाद, झगड़ा संघर्ष होता है दोनों पक्षों की गलतियाँ होती है। एक हाथ से कभी ताली नहीं बजी। अतः उभय पक्षों को इस पर विचार करना चाहिए।

Monday, October 19, 2009

आस्था की शक्ति को पहचाना विज्ञान ने


जीवन में सुख शान्ति और आनन्द के साथ सफलता का मार्ग दुनिया भर में खोजा गया है। हर धर्म में यह प्रयत्न हुआ है और मार्ग खोजने में प्रक्रियागत विविधता चाहे जितनी रही हो किन्तु हम गहराई से विचार करें तो पाते है कि अन्तिम मंजिल एक ही है। श्रीमद्भभगवद् गीता में इस मार्ग के लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग जैसे मार्ग सुझाए है किन्तु अन्त में वे सब पहुँचाते है ईश्वर के पास जहाँ सुख शान्ति और आनन्द है। इन मार्गो पर चलने वाले राही के लिए निष्काम भाव से कर्म करना एक अनिवार्य शर्त है। हमारे कर्म कामना रहित, स्वार्थरहित होना चाहिए। श्रीमद् भगवद् गीता यज्ञमय जीवन जिने का सन्देश देती है। यह संसार भगवान का ही रूप है। इसकी सेवा निस्वार्थ भाव से परोपकार के लिए करो, न नाम चाहो, न यश चाहो न धन चाहो और न पद चाहो। अपने कर्म ईश्वर अर्पण कर दो, यह सन्देश है गीता का।

आज के इस प्रतियोगिता के युग में क्या यह सन्देश व्यवहारिक है ? ऐसे सन्देश से सफलता कैसे प्राप्त होगी ? यह प्रश्न उठाया जाता रहा है। हमने कामनाओं और ईच्छाओं से भरे इस संसार में गला-काट प्रतियोगिता देखी है और अन्त में पाया है कि हम सुख शक्ति से कोसो दूर है। दुनिया के धर्म हमें भोगेच्छा से दूर ईश्वर सर्मपण का सन्देश देते है। तब यह विचार स्वभाविक ही उठता है कि ईश्वर कैसे हमें सुख शान्ति और सफलता दिला सकता है।

शायद यह प्रश्न गीता के अमर गायक भगवान कृष्ण जानते थे। इसलिए गीता में वे आश्वासन देते है कि यदि तुम अपने कर्म, कर्मफल मुझे समर्पित कर दोगे तो मैं तुम्हारा योग क्षैत्र का ध्यान रखूगा। देखिए कितना स्पष्ट आश्वासन है यह। भगवान कहते है ’ जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए, मेरी भली भांति उपासना करते है, मुझ में निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम ( अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्ति की रक्षा) मैं वहन करता हूँ ’ भगवान की उपासना जिसने अपने कर्मो द्वारा अनन्य भाव से की है उसे ही यह वचन है। दुनियावी लोभ, लालच और कामनाओं के मध्य आरती उतारते-गीत गाते, प्रसाद बाटते भक्त के लिए यह वचन नहीं है।

हिन्दू धर्म के साधु सन्त ही नहीं, इस्लाम और ईसाई धर्म के सन्तों ने भी समर्पण भाव से कर्म द्वारा ईश्वर की इस उपासना का ज्ञान वितरित किया है। इसे हम आस्था का स्वर कह सकते है। यह उपासना या आस्था कैसे काम करती है। इसे वैज्ञानिक तुला पर अभी तक तोला नहीं गया था किन्तु अब विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है कि ईश्वर की इस प्रकार उपासना व्यक्ति में बल पैदा कर देता है कि वह अपने मार्ग पर शिखर पर पहुँच जाता है।

इस समबन्ध में हम स्वामी विवेकानन्द का स्मरण कर सकते है जिन्होने निष्काम भाव से दुनिया में धर्म का डंका बजाकर सब धर्मालम्बियों में निष्काम भाव से सेवा करने की प्रेरणा उत्पन्न की। यह बहुत पूर्व का उदाहरण नहीं है।

हमारे अपने समय में मदर टेरेसा का उदाहरण भी हमारे सामने है जिन्होने निष्काम भाव से दीनो, दुखियों और असहायों के लिए सहायता का हाथ बढ़ाया, उनमें आशा की किरण जगाई, उन्हे प्रेम व सम्मान दिया और ऐसा करते हुए एक विराट आयोजन रच डाला। वे दुनिया के लिए एक उदाहरण बन गई। करोडो डालरों की सहायता के उपक्रम आज दुनिया में उनके नाम से उनके बताए मार्ग पर चल रहे है। उनका अपना व्यक्तिगत कुछ भी शेष नहीं रहा। आप इसे प्रभू ईसा का मार्ग कहें या कृष्ण का पर है वह एक मार्ग। भगवान कृष्ण ने जो गीता में वचन दिया है उसकी पूर्ति होती ही है। वह वचन पूर्ण होगा, शर्त केवल एक है कि हम अनन्य भाव से ईश्वर का चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से ईश्वर की उपासना करे।

इस सम्बन्ध में हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी याद करे। वे भगवद् गीता को माता कहते थे। जब भी उन्हे समस्या उत्पन्न हुई उन्होने गीता माता की गोद में सर रख दिया और उन्हे मार्ग मिल गया। वे मृत्यु पर्यन्त राम नाम का स्मरण करते रहे। ईश्वर के प्रति इस आस्था के सम्बन्ध में वे कहते है ’’आस्था तर्क से परे की चीज है जब चारों और अंधेरा ही दिखाई पड़ता है और मनुष्य की बुद्धि काम करना बन्द कर देती है उस समय आस्था की ज्योति प्रखर रूप से चमकती है और हमारे मदद में आती है’’

गांधीजी का अनुभव - पूज्य महात्मा गांधी ने जो कहा यह उनका अनुभव है। इसे वे कई बार आजमा चुके है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में उन्होने आस्था के इस चमत्कार को देखा है। उनका ईश्वर की शाक्ति पर पूर्ण विश्वास था। इसी ने उन्हे अन्तिम समय तक साथ दिया। भगवान अपना वचन निबाहते है इसे तर्क से तो सिद्ध नहीं किया जा सकता किन्तु इसका अनुभव लिया जा सकता है।

उदाहरण - गांधी ने छुआछुत के विरूद्ध युद्ध छेड दिया था। उन दिनों दलित जातियों के प्रति सवर्णो का भेदभाव प्रभावशाली था अतः कुछ उच्च वर्ग व व्यापारी वर्ग नाराज हो गया। साबरमती आश्रम को मिलने वाली आर्थिक सहायता बन्द हो गई। आश्रम संचालन में कठिनाईयों की आशंका हुई तब महादेव भाई ने गांधीजी को सुझाव दिया कि आश्रम की सहायता के लिए अपील निकाली जाए। गांधीजी ने इन्कार कर दिया कहा - इसकी आवश्यकता नहीं है। ईश्वर इसकी व्यवस्था करेगा। आश्चर्य उसी दिन एक सज्जन आश्रम आए और आश्रम के लिए दस हजार रूपए की सहायता दे गए। गांधीजी की ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा थी। एक बार गांधीजी मनु बहन के कन्धे पर हाथ रख चल रहे थे, कमजोरी के कारण वे लड़खडाए। मनु बहन को लगा कि गांधीजी गिर पडेंगे। सम्हलेंगे नहीं मनु बहन ने एक सहयोगी को आवाज दी, गांधीजी को सम्हाल लिया गया। बाद में गांधीजी ने मनु बहन से कहा- ’सहयोगी को आवाज लगाने के बजाय राम को पुकारा होता। संकट में राम ही मदद करता है’ गांधीजी की इतनी असीम आस्था थी ईश्वर के प्रति। गांधीजी की यह आस्था वे खुले में स्वीकार करते थे।

वैज्ञानिक सत्य है आस्था - अभी तक विज्ञान आस्था पर विश्वास नहीं करता था किन्तु अब विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है कि आस्था में शक्ति है इसलिए अपने लक्ष्यों को पा लेते है धर्म में विश्वास रखने वाले आस्थावान अपनी भावनाओं और व्यवहार पर काबू रख लेते है। वे अपने लक्ष्य को पाने के लिए लगातार प्रयास करते है और लक्ष्य को पा ही लेते है।

यूनिवर्सिटी आँफ मियामी के साइकोलाजी विभाग के प्रोफेसर मैककुलफ ने आठ दशकों तक धर्म पर अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला। वे कहते है कि जब लोग मानते है कि उनका लक्ष्य बहुत पवित्र है तो वे उसे प्राप्त करने में अधिक उर्जा लगाते है और उसके लिए कडे प्रयास करते है। धार्मिक गतिविधियां जैसे पूजा या प्रार्थना करने, ध्यान लगाने आदि का प्रभाव मानव मस्तिष्क के उस भाग पर पड़ता है जो स्वयं पर नियंत्रण के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है क्योकि वे मानते है कि भगवान उन्हे देख रहा है।

ईश्वर पर गहरी आस्था व्यक्ति को आत्मविश्वासी बना देती है। शक्ति प्रदान करती है और वह, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है जो वह पाना चाहता है। भगवान कृष्ण श्रीमद् भगवद् गीता के द्वारा यही सन्देश देते है। आस्था के स्वर हमें ईश भक्ति के लिए प्रेरणा देते है।

Friday, October 16, 2009

रसोईघर है जीवन दर्शन की प्रयोगशाला


पिछले दिनों मैं मुंबई गया तो वहां मुझे अपनी भतीजी मिली। वह इंजीनियरिंग कर रही है। मैंने उसे चाय बनाकर लाने को कहा। वह बोली, चाय बनाना तो मैं नहीं जानती। मैं आश्चर्यचकित रह गया। जो चाय बनाना न जानता हो, उससे भोजन के संबंध में बात करना ही व्यर्थ है।

आजकल हम परिवार में रसोईघर के काम को बहुत कम महत्व देते हैं। हमारा सारा ध्यान पढ़ने, लिखने और करियर बनाने की ओर होता है। अच्छा भोजन तो बना-बनाया भी मिल जाता है- एक फोन करो, घर-दफ्तर जहां चाहो गरमा-गरम टिफिन उपस्थित। डिब्बाबंद भोजन भी उपलब्ध है, खोलो, गरम करो और खाओ। फिर दुनियाभर के कष्ट उठाकर किचन में समय बर्बाद करने का क्या अर्थ है?

असल में गृहस्थ आश्रम में रसोईघर है जीवन दर्शन की प्रयोगशाला। हमारी भारतीय संस्कृति में रसोई को बहुत महत्व दिया गया है। क्या खाना चाहिए, कैसा खाना चाहिए, किस विधि से पकाना चाहिए। रसोई की सफाई पर अत्यधिक बल दिया जाता था। यह सब अकारण नहीं है।

हमारे स्वास्थ्य पर भोजन का शत प्रतिशत प्रभाव पड़ता है। हमारे ऋषि मुनियों ने इसीलिए अन्न को ब्रह्मा कहा है। गीता में भोजन के सात्विक, राजस और तामस जैसे भेद किए गए हैं। तामस भोजन जिसे हम फास्ट फूड कहते हैं, गीता के अनुसार आलस और नींद लाता है। यह हमारी कार्य क्षमता को घटाता है। हमारे उत्साह, उमंग और प्रसन्नता में बाधक बनता है।

भोजन पकाने की जो एकाग्रता है, वह मन के तनाव को समाप्त करती है और हमें धैर्यवान बनाती है। यह एक ऐसी गतिविधि है जो तत्काल फल और संतुष्टि देती है। भोजन पकाने का काम प्रबंधन के गुर सिखाता है -आधुनिक प्रबंधन के गुर। इसीलिए वह परिवार को बांध कर रखता है।

गृहस्थ आश्रम में बच्चे प्रेम, त्याग, सहयोग, अपनत्व के गुण सीखते हैं। इस आश्रम में से आप यदि रसोई के केन्द्र को हटा दीजिए तो वह आश्रम वाली परिभाषा खो देगा। आश्रम शब्द में ही श्रम निहित है। बिना श्रम किए भोजन का भोग करना प्रकृति के विरुद्ध है।

गृहस्थ आश्रम एक तपस्या है। रसोईघर उसका केन्द्र है। भोजनशाला जीवन की वास्तविक शाला है, जहां जीवन का दर्शन तैयार होता है। यह दर्शन परिवार को साथ-साथ रहने, एक-दूसरे के लिए त्याग करने, एक-दूसरे की पसंद-नापसंद जानने और साथ सुख-दुख भोगने की शिक्षा देता है। यह दर्शन जीवन जीने की कला सिखाता है।

भोजन शास्त्र में अतिथि, पशु, कुत्ता, गाय आदि का भी भाग है जो हमें प्रकृति से जोड़ता है। यह हमें परोपकार रूपी यज्ञ की प्रेरण देता है। यह ईश्वर की याद दिलाता है और जीवन को यज्ञ बनाता है। भोजन का दर्शन, हमारे जीवन दर्शन का सहज और सगुण रूप है।

आप विचार कीजिए, इस भोजन और स्वास्थ्य को लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अनेक प्रयोग क्यों किए। स्वाद पर नियंत्रण उन्होंने अध्यात्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण बताया। हमारे प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद और पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री अपनी धर्मपत्नी द्वारा तैयार भोजन ही करते रहे। भोजन का आनंद ताजे और हल्के भोजन में है। इस बात को आज के प्रसिद्ध व सफल कुश्तीबाज खली भी स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि वह घर में पत्नी के हाथ का बनाया भोजन ही करते हैं, होटल में भोजन नहीं करते।

हमारे देश में यह भ्रम पाया जाता है कि भोजन पकाना सिर्फ महिलाओं का काम है। महाभारत काल में जब पांडवों को अज्ञातवास में समय व्यतीत करना पड़ा तब ध्यान दीजिए, रसोइए का काम भीम ने ही संपन्न किया, द्रौपदी ने नहीं।

राजा नल के विवाह के पहले देवता उनसे प्रसन्न होकर वर देते हैं कि वह अच्छे पाकशास्त्री होंगे। एक राजा का पाकशास्त्र से क्या संबंध हो सकता है? विचार कीजिए। इस वर का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को भोजन जैसे शास्त्र का ज्ञान होना चाहिए। भगवान कृष्ण के समय जो 64 कलाएं शिक्षा में दी जाती थीं, उसमें भोजन पकाना शामिल था।

Wednesday, October 14, 2009

यदि राम को वनवास नहीं हुआ होता


राम को चौदह वर्ष का वनवास माता कैकई के आदेश से राजा दशरथ ने दिया। कोई भी ऐसा आदेश प्रथम दृष्टि में दंड माना जाता है। राम, राजा दशरथ के सबसे बडे़ बेटे थे। परम्परा के अनुसार उनका राजतिलक होना चाहिए था। राजतिलक की तैयारी भी थी, किन्तु इसी बीच दासी मन्थरा के षडयंत्र पूर्ण मंतव्य को सुन माता कैकई अपने पुराने वर के रूप में राम का वनवास मांग लेती हैं। और राजा दशरथ को न चाहते हुए भी विवश भाव से उसे स्वीकार करना होता है।

राम राजा बनते-बनते वनवास के लिए सहर्ष प्रस्थान कर जाते हैं। इसे हम क्या कहेंगे? यदि हमारे साथ ऐसा कुछ घटित हो तो हम उसे आज किस रूप में ग्रहण करेंगे? क्या वनवास चले जाएंगे? क्या दुनिया उसे दुर्भाग्यपूर्ण नहीं कहेगी? यह प्रश्न है।

राम का वनवास सम्पूर्ण रामायण की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। विचार कीजिए कि यदि राम चन्द्र को वनवास नहीं मिलता तो रामायण की कथा क्या होती? क्या यह कथा अपना दम नहीं तोड़ देती? राम के राज्याभिषेक के बाद तो जो भी कथा बनाई जाती, वह सिर्फ राजा राम की ही होती।

लेकिन रामायण की कथा एक जन नायक की कथा है, जो दुर्भाग्य के क्षणों में भी संघर्षरत रह कर सभी नैतिक मूल्यों को बरकरार रखता है। अपने या समाज के मूल्यों पर कहीं समझौता नहीं करता। उन्होंने वनवास को दुर्भाग्य नहीं माना। अपने आचरण से उन्होंने यह बताया कि जीवन में सब कुछ अनुकूल नहीं होता। अनुकूल का जुड़वां भाई है प्रतिकूल। परिवर्तन चक्र में एक के बाद दूसरे का आना स्वाभाविक है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। सुख है तो दुख आएंगे ही। वसन्त है तो पतझड़ का इन्तज़ार कीजिए। दिन है तो रात भी आएगी।

राम ने पिता के आदेश का सहर्ष पालन कर प्रकृति के इस नियम को स्वीकार किया है। गीता में इसे ही समता योग कहा गया है। गीता कहती है, समता योग उच्चते (2/48)। खराब से खराब समझे जाने वाले समय की भी जीवन में उपयोगिता है।

दुर्भाग्य भी पाठशाला है- हमारा सामान्य अनुभव यह है कि जीवन में दुर्भाग्य की पाठशाला में जो भी प्रवेश करता है, वह पहले तनावग्रस्त होता है। अवसाद उसे घेर लेता है। वह निराश-हताश हो जाता है।

लेकिन राम दुर्भाग्य के इन क्षणों को पहले से पहचानते थे। उन्हें अनुभव था वनवास का। वे जानते थे क्या होता है वनवास में। और कुशलतापूर्वक इन परिस्थितियों से कैसे निपटा जाता है। वे जानते थे कि कांटों की झाड़ियों में भी पुष्प खिलते हैं। जंगल में भी फल-फूल हैं। हरियाली, पक्षियों का संगीत है और इस दुनिया का आनन्द लिया जा सकता है। दुखद क्षणों को सुखद क्षणों में बदलने का धैर्य ही वह कौशल है जो राम का वनवास हमें सिखाता है।

वनवास में क्या मिला राम को - राम को चौदह वर्ष का वह वनवास एक शिक्षालय के रूप में मिला। वे जान पाए एक सामान्य वनवासी के जीवन को, उसके सुख-दुख को, उसके संघर्ष को, उसकी मनोदशा को और कठिनाई भरे जीवन को। एक राजा को अपनी राजधानी और महल में यह सब जानने, अनुभव करने के लिए अन्य कोई जीवित शाला नहीं हो सकती। रामराज्य के सुशासन की कथा वनवास से प्रारम्भ होती है।
राम को यह वनवास काल प्रकृति की गोद में बिताने से प्रकृति के रहस्यों का गूढ़ अनुभव हुआ। पशु-पक्षी, विभिन्न प्रकार के वृक्ष, उनके फल-फूल -सभी उनको अपने सहायक जैसे लगे। इसके माध्यम से हमें समझाया गया है कि प्रकृति की गोद वास्तव में भगवान की गोद है। वहां बैठकर जीवन के गुण सीखे जा सकते हैं।
राम ने वनवास में ऋषि- मुनियों का सान्निध्य प्राप्त किया। उनके आश्रम देखे। उनसे सत्संग किया उनसे कथाएं सुनी। प्राचीन स्थलों का परिचय प्राप्त किया और राक्षस संस्कृति से उत्पन्न समस्याओं को निकट से जाना।

Tuesday, October 13, 2009

बच्चों के दोस्त बनिए



आजकल बच्चों के लिए खिलौनों का बाजार खूब सजा-धजा है। विभिन्न प्रकार के रंगों वाले खिलौने दुकानों पर प्रदर्शित किए जा रहे हैं, जो बच्चों को ललचा रहे हैं। इन खिलौनों में इलेक्ट्रॉनिक खिलौने भी हैं, जो पावर सेल से चलते हैं। इन खिलौनों की कीमत आसमान तक छूती है। हर डिजाइन के ऐसे-ऐसे खिलौने हैं कि हम हैरत में पड़ जाएं।

अब बच्चों के लिए खिलौने खरीदने निकले तो सस्ते महंगे का सवाल कैसा? बच्चे हमारे प्यारे हैं। आंख के तारे हैं। उनके लिए खिलौने खरीदते समय सस्ते खिलौने लेना गवारा नहीं। खिलौने भले ही बच्चों के लिए हों, किन्तु वे हमारे स्टेटस सिम्बल भी तो हैं। आजकल हमारे मित्र, रिश्तेदार आदि आते हैं, तो उन्हें बच्चों के साथ खिलौने भी दिखाए जाते हैं। कितने खिलौने हैं? किस मूल्य के हैं? कहां से खरीदे?- इन सवालों पर चर्चा होती है। बच्चे या तो मिलजुलकर उनसे खेलते हैं या आपस में लड़ते हैं। लेकिन खिलौने प्रदर्शन की वस्तु तो हो ही गए हैं।

खिलौने बच्चों का खेल हैं। उनकी दुनिया खिलौनों की दुनिया है। उनसे मनोरंजन ही नहीं होता, वे खिलौनों से एक रिश्ता भी कायम कर लेते हैं। वे खिलौनों के साथ आनन्द मनाते हैं। बच्चों के लिए खिलौनों का मूल्य कोई अर्थ नहीं रखता। वे तो खिलौनों से खेलते हैं। एक कल्पना जगत का निर्माण करते हैं।

आपने भी बच्चों को देखा होगा। वे तमाम तरह के खिलौने होने के बाद भी जूते-चप्पलों से खेला करते हैं। आपके भारी भरकम जूते वे अपने छोटे से पैर में डाल चलाते हैं। उसमें मगन होते हैं। छोटे बच्चे घर के बर्तनों से भी खेलते देखे जा सकते हैं। उन्हें झूठमूठ की चाय बनाते आप देख सकते हैं। वे आपको भी वह चाय पेश कर खुश होते हैं। बच्चे किसी भी चीज से खेल सकते हैं। हमारे लाए खिलौने तो एक बहाना हैं।

परिवार में जब भोजन बनता है तब बच्चे अक्सर रोटी का आटा मांगते हैं। जब उन्हें मिल जाता है तो वे उससे कुछ न कुछ बनाने में मगन हो जाते हैं। लेकिन बच्चों के लिए सबसे अच्छा खेल गुड़ियों का है। कपड़े के ये खिलौने उनका संसार बसा देते हैं। गुस्सा आ गया तो फेंक देंगे, वरना छाती से चिपटा कर सो भी सकते हैं। वे अपने इन खिलौनों से बातचीत भी करते हैं। लड़ते-झगड़ते और फिर दोस्ती भी कर लेते हैं।

जब हम छोटे थे तब कागज की नाव बनती थी। हवाई जहाज भी कागज के उड़ाए जाते थे। तमंचा भी कागज का बनता था। ये हवाई जहाज और नाव सृजन के बीज बोते थे, या कहें कि वह एक नया संसार बनाने की शुरुआत थी। असल में बच्चों के लिए सबसे अच्छे खिलौने वे हैं जिनमें सबसे कम पैसे की जरूरत होती है। हम जब घर में ही घर की चीजों से खिलौने बनाते हैं तो बच्चों को समय देते हैं। यह समय देना प्रेम है। इससे अपनत्व पैदा होता है। बच्चों को इससे गहरी खुशी मिलती है। सच तो यह है कि हमारे पास वक्त नहीं है, सिर्फ पैसा है। इसलिए बच्चों को बाजार से खिलौने दिला कर अपने कर्तव्य की पूर्ति समझ लेते हैं।

बच्चों के साथ खेलिए। यह सच्ची खुशी देने वाला है। उनके साथ खेलने की शर्त है कि आप खुद बच्चे बन जाएं। बुद्धि को एक तरफ रख दीजिए और देखिए कि बच्चे की खुशी का ठिकाना नहीं रहेगा। आप दसियों तरीके से बच्चों के साथ खेल सकते हैं। किसी बड़े तामझाम की जरूरत नहीं, कोई भारी-भरकम खर्च नहीं। आप बच्चे के साथ चित्रकारी का आनंद भी ले सकते हैं। इसके लिए भी महंगे रंगों और कैनवास की जरूरत नहीं। फिर देखिए कला का कैसा संसार बसता है।

खेल और खिलौने बच्चों को शिक्षा देने का पहला सोपान हैं। कवि जायसी पदमावत में कहते हैं, ' धनि सो खेल खेल ही प्रेमा। ' अर्थात वह खेल धन्य है जो प्रेम से खेला जाए। यह बात बच्चों को सिखाने की जरूरत नहीं। वे सीखे हुए हैं। इसे हम वयस्कों ने सीखना है।

Sunday, October 11, 2009

आकाश को देखने का समय निकालिए


हम धरती को माँ की तरह पूजते हैं। उसके प्राकृतिक सौंदर्य को देख गदगद हो जाते हैं, पर हमारी दृष्टि आकाश की ओर कभी-कभी ही जाती है। आकाश भी हमारी प्रकृति का अंग है। यदि आप आकाश की ओर निहारें तो उसमें बनने वाले रंग-बिरंगे चित्रों को देखकर सब कुछ भूल जाएं।


पृथ्वी की तरह आकाश का भी अपना परिवार है। सूर्य है चमकता-दमकता, तो शांत है चंद्रमा। ग्रह हैं, नक्षत्र हैं, आकाश गंगा है, दिशाएं हैं, क्षितिज है, उल्का और पिंड हैं। आकाश देता है पुष्पों को हीरे के कणों की तरह ओस। आकाश की चुप्पी है तो उसमें बादलों की गड़गड़ाहट भी है। उससे उत्पन्न विद्युत की चकाचौंध भी।

छान्दोग्योपनिषद में कहा गया है, 'आकाश उत्कृष्ट है।'  सूर्य जब उदय होता है तो उसकी किरणें दूर-दूर तक लालिमा का अद्भुत सौंदर्य आकाश में बिखेर देती हैं। इसी के साथ पक्षियों का उड़ना, गोते लगाना, चहचहाना भी आरम्भ हो जाता है। कभी क्षितिज पर बादल हों तो उन्हें चीर कर सूर्य की किरणें आकाश के विशाल कैनवास पर रंग बिखेरती हैं। सूर्योदय एक दृश्य संदेश है कि उठो, जागो, कर्मरत हो, आगे बढ़ो। उसका यह सन्देश सभी पशु-पक्षी और मानव एक साथ सुनते हैं।

आकाश खेल का मैदान है : आकाश की भाषा मौन है। जो उसकी मौन भाषा समझता है, वह आकाश को निहार कर चिन्तन में डूब जाता है। आकाश कभी खाली नहीं रहता। उसमें हर समय चित्र बनते-बिगड़ते रहते हैं। आकाश में पक्षी उड़ते हैं। वे मुक्त हैं विचरण के लिए। आकाश पक्षियों के लिए एक खेल का मैदान है। उसमें वे अपने पदचिन्ह नहीं बनाते। आकाश में हवा है, पर पक्षी उड़ते हुए कोई लहर पैदा नहीं करते। आकाश में कोई बैरियर नहीं बना है।

पृथ्वी का हर प्राणी ऊपर और ऊपर उठना चाहता है। कल्पना में उड़ना चाहता है। आकाश के प्रति प्रबल आकर्षण है प्राणी मात्र में। इसीलिए आदमी गननचुम्बी इमारतें बनाता है। वृक्ष अपनी ऊँचाई को बढ़ाता हुआ आसमान को चूमने की कोशिश करता है। आदमी का मन उड़ता है आकाश में। जो हल्का हो वह आकाश में उड़ सकता है। जो अहंकार से भरा हो, वह आसमान नहीं छू सकता। आसमान छूने के लिए चाहिए पक्षी सा सरल, सहज और भोला स्वभाव।

आकाश है एक विशाल कैनवास : इसी पर उके री जाती है उषा की लालिमा, रजनी की कालिमा, चांद, तारों और नक्षत्रों की जगमगाहट। आकाश के विशाल कैनवास पर सुबह, दोपहर और संध्या को अलग-अलग रंग रहते हैं। रात में आकाश गंगा का दूधिया रंग आप उसी में देख सकते हैं। रात के अन्धकार का सन्नाटा आप आकाश में ही महसूस करते हैं। सितारों का टिमटिमाना वहीं होता है। आकाश मौसम के साथ अपने रंग बदलता है। बादलों से भरा आकाश कभी दैत्य सा विकराल दिखता है और कभी हाथी सा अलमस्त।

कालिदास ने मेघदूत में इसका वर्णन इस प्रकार किया है:

' उस (यक्ष) ने आषाढ़ मास के प्रथम दिन उस पर्वत की चोटी पर झुके हुए मेघ को देखा तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो कोई हाथी मिट्टी का ढूह अपने मस्तक से गिराने का खेल खेल रहा है।'

आकाश में चाहे जितने चित्र बनें पर वे अपने आप बिगड़ते और मिटते भी रहते हैं। आसमान कभी गन्दा नहीं होता -काले बादल हों या उषा की लालिमा -आकाश हमेशा निर्मल और स्वच्छ बना रहता है।

आकाश देता है आशीर्वाद : आकाश केवल रिक्त जगह का नाम नहीं है। पृथ्वी की तरह आकाश भी प्रभु की लीला का प्रदेश है। हम ऐसी कल्पना करते हैं कि ईश्वर आकाश में बादलों के ऊपर कहीं रहता है। इसलिए जब भी ईश्वर से सम्बन्धित कोई बात होती है हम आसमान की ओर देख कर प्रभु इच्छा को धन्यवाद देते हैं। हम मानते हैं कि ईश्वर ने अपने आप को सर्वोत्तम रूप में आकाश में छिपा रखा है। हमारे अपने अन्दर भी है आकाश। अपने अन्दर स्थित आकाश को देखने का समय निकालिए, आपको आनन्द का सागर मिल जाएगा।

केदारनाथ मंदिर: वृषभ पिंड की पूजा

कहते हैं, किस्मत वालों को ही श्री केदारनाथ के दर्शन हो पाते हैं। जिस किसी ने भी बैल की पीठ के स्वरूप में विराजमान महादेव का दर्शन कर लिया, वह धन्य हो गया!

श्रीकेदारनाथका मंदिर 3593फीट की ऊंचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊंचाई पर इस मंदिर को कैसे बनाया गया, इसकी कल्पना आज भी नहीं की जा सकती है! यह मंदिर एक छह फीट ऊंचे चौकोरप्लेटफार्म पर बना हुआ है। मंदिर में मुख्य भाग मंडप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नंदी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मंदिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हां ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदिगुरु शंकराचार्य ने की।

मंदिर की पूजा - श्री केदारनाथ को द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिंड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते हैं।

पंचकेदार की कथा - ऐसा माना जाता है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के शाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे।

दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत:भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का हिस्सा पकड लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढसंकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं।

ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतध्र्यान हुए, तो उनके धड से ऊपर का हिस्सा काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथका मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथमें, नाभि मदमदेश्वरमें और जटा कल्पेश्वरमें प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।

यात्रा का संदेश - दृढसंकल्प, आत्मविश्वास और परिश्रम के अभाव में श्री केदारनाथ की दुर्गम पथरीलीराह पर चढाई संभव नहीं है। वास्तव में, यह यात्रा स्वर्गीय आनंद का स्त्रोत है। यहां न केवल मनोहर दृश्यावलियोंको सतत निहारने का आनंद मिलता है, बल्कि यह संदेश भी मिलता है कि संकट के रास्तों पर चले बिना सफलता के पुष्प नहीं खिल सकते हैं। भगवान शंकर भले ही भोलेनाथ हों, लेकिन उन्होंने भ्रातृहत्या के लिए पांडवों को सहज ही क्षमा नहीं कर दिया।

भक्तों की निर्मल भक्ति के आगे भले ही भगवान झुके हों, लेकिन उन्होंने बार-बार अंतध्र्यान हो कर, यह संदेश दे दिया कि वे व्यर्थ की हिंसा को पसंद नहीं करते।

पांडव भगवान शंकर से क्षमा प्राप्त कर बदरीधाम की ओर गए, जहां से स्वर्गारोहण का मार्ग प्रशस्त हुआ। अत:हम कह सकते हैं कि हिमालय का क्षेत्र देवलोक के समान है, जहां से स्वर्गारोहण का मार्ग खुलता है। इसलिए श्री केदारनाथ की यात्रा तप और साधना के समान है, जो हमें ईश्वर की गरिमा-महिमा का दर्शन कराकर आनंद से भर देती है।

-सत्यनारायण भटनागर

Friday, October 9, 2009

नोनू भटका मेले में (कहानी)

कुछ महीनों पहले एक मेला देखने नोनू अपने माता- पिता के साथ गया। मेले जाने के पहले माँ ने उसे समझाया, 'देखो उँगली पकड़कर चलना। मेले में बहुत भीड़ होती है। यदि उँगली छोड़ी और भटक गए तो फिर परेशानी होगी और देखो यदि साथ छूट ही जाए तो रोना मत। तुम्हारे जेब में घर का पता, मोबाइल नंबर लिखकर रख दिया है। किसी भी पुलिसवाले भैया से कहोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा।'

नोनू को मजा आ गया। उसे तो मेले में जाने की जल्दी थी। मेले में भीड़ ही भीड़ थी। बड़े-बड़े लोगों में बच्चे तो बेचारे दिखते ही नहीं थे।

कोई बच्चा गोद में था तो कोई कंधे पर। नोनू माँ के पीछे ऐसे चल रहा था, जैसे रस्सी से बँधा हो। उसे कष्ट हो रहा था। यह भी कोई चलना है। यह भी कोई आनंद है। वह सोच ही रहा था कि खुला मैदान आ गया।

मैदान में दुकानें थीं। फुग्गेवाले थे। खिलौने की दुकानें थीं। उसने फुग्गे के लिए हठ की। पापा ने फुग्गा खरीद दिया। फिर सीटी खरीदी और चाट खाने के लिए बैठ गए।

इधर-उधर देखते,  उछलते-कूदते,  गुनगुनाते नोनूजी चल रहे थे कि भीड़ का रेला आया और जिसका डर था, वही हुआ।

उनकी माँ की उँगली छूट गई और उन्होंने भीड़ के बीच अपने को अकेला पाया। पहले तो नोनू रूआँसा हुआ,  मगर घबराया नहीं। माँ ने उसकी जेब में घर का पता और मोबाइल नंबर जो रखा था। वह मैदान में एकतरफ खड़ा सोच ही रहा था कि एक दीदी उसको उसकी ओर मुस्कुराते दिखी। वह भी मुस्कुराया। वह दीदी पास आई पूछा- 'क्या भटक गए हो?'

नोनू ने भोलेपन से कहा- 'मेरे माता-पिता खो गए हैं। उन्हें खोजना है। ' दीदी ने पूछा- 'तुम्हारे पास पता है?'  नोनू ने जेब से पता निकालकर बताया।

दीदी बोली- 'ठीक है,  हम तुम्हें घर तक पहुँचा देंगे।'

नोनू ने कहा- 'क्या आपके पास मोटर गाड़ी है? मेरा घर तो बहुत दूर है।' दीदी हँसी। बोली- 'मैं परी हूँ। मैं तुम्हें गाड़ी से भी जल्दी पहुँचा दूँगी।'

नोनू ने कहा- 'आप कैसी परी हैं? परी तो सफेद वस्त्र पहनती है। आप तो यूनिफॉर्म पहने हुए हो।'

परी ने कहा- 'हम मेले की परी हैं। खोए हुए बच्चों की परी। हम भी मेला घूमने-फिरने, मजा करने आई हैं। जो बच्चे दूसरों के साथ मित्रता और प्रेम से रहते हैं, हम उनसे दोस्ती करती हैं और उनकी मदद करती हैं।'

परी ने नोनू को ऑटो रिक्शा में बिठाया और नोनू अपने माता के पास आ गया। माँ ने पूछा- 'कहाँ भटक गए थे?  कौन लाया तुम्हें?'  नोनू ने कहा- 'हमें परी लाई है। बड़ी प्यारी सहेली है हमारी,  आप भी मिल लो।'

नोनू पलटा तो वहाँ न तो परी थी और न ऑटो रिक्शा। वे जा चुके थे। माँ ने कहा- 'देखो नोनू यदि मेले में भटक जाओ तो चाहे जिसके साथ चल देना ठीक नहीं। पुलिस या स्काउट की मदद ही लेना चाहिए। ऐसे अपरिचितों के साथ चल देने में खतरे भी हैं। इस तरह नहीं आना चाहिए था।'

नोनू के आगे उस परी का भोलाभाला चेहरा दिखाई दिया। उसके पंख नहीं थे और वह यूनिफॉर्म पहने थी और चल भी रही थी ऑटो रिक्शा में। फिर भी वह साफ दिल की परी थी।

उसने तो साफ कहा कि जो बच्चे दूसरे बच्चों से प्रेम करते हैं, वे उनसे दोस्ती करती है। वह मन ही मन मुस्कुराया। दूसरे बच्चों के साथ सच्ची मित्रता व सहयोग करने वाली दीदियाँ परियाँ ही तो होती हैं, भले ही वे स्वप्न में न आई हों। नोनू फिर से अपने खेलने में लग गया।

Tuesday, October 6, 2009

हड़कू के मन में क्या है? (कहानी)


उनकी छुटकी-सी बिटिया लगभग बेसुध पड़ी है। हड़कू और मंगलिया को ओझा ने उपाय सुझाया है, पर हड़कू क्यों मना कर रही है?


हल्दुआ ग्राम में जब सूरज की किरण पड़ती है तो दूर-दूर फैले झोपड़े दिखाई देने लगते हैं मानो वे खेत में उग आए हों। रात के अंधेरे में यहां कुछ भी दिखाई नहीं देता। पूरे गांव में जब कुत्ते के भौंकने की आवाज़ सुनाई देती है, तो लगता है कुछ हलचल हुई है। अन्यथा पूरा गांव सोया-सा लगता है। झोपड़े दूर-दूर हैं, पर हैं एक-दूसरे से संबंधित। सब जानते हैं एक-दूसरे की आवाज़।

गांव सोया हुआ था। एक झोपड़े में आग तापते बैठे थे मंगलिया और उसकी पत्नी हड़कू। हड़कू और मंगलिया इसी गांव के निवासी हैं। यहीं पैदा हुए। यहीं की मिट्टी में खेले-कूदे और फिर कुछ ऐसा हुआ कि पति-पत्नी बन गए।

मंगलिया चिंतित था। उसकी दो माह की बेटी रोए जा रही थी। मां हड़कू परेशान थी। बेटी दूध ही नहीं पी रही थी। पता नहीं क्या हो गया? किसकी नज़र लगी? अभी कल तक तो खूब हलचल करती हाथ-पैर हिलाती, मुस्कराती थी। जब उसे भूख लगती, बस तभी रोती।

मंगलिया और हड़कू दोनों सड़क निर्माण कार्य में रोज़गार पाए हुए थे। दिन भर सड़क पर मिट्टी-पत्थर डालते, शाम ढले आ जाते झोपड़े पर। बेटी सोई रहती। कभी परेशान नहीं किया उसने। आज पता नहीं क्या हो गया। दोनों चिंतामग्न बैठे थे।

मंगलिया ने कहा ‘हड़कू, कल सुबह-सुबह चलते हैं शहर। वहां डॉक्टर को दिखाते हैं। हालत तो अच्छी नहीं है।’ हड़कू चिंता में पड़ी थी। बोली, ‘क्या होगा शहर ले जाने से? कितनी दूर है यहां से। फिर वहां बहुत खर्च है। वहां जाने पर रोज़गारी भी नहीं मिलेगी। भगवान ने चाहा, तो बेटी ठीक हो जाएगी। तुम ओझा को बुला लाओ। वही ठीक कर देगा।’

मंगलिया को लगा ठीक ही कहती है हड़कू। शहर है दूर-दूर तक फैला, न जान, न पहचान। शहर की जान-पहचान होती है पैसा। वहां सब दूर तो पैसा लगता है। जाना तो सचमुच मुश्किल है। उसे हड़कू की बात समझ में आ गई। दोनों आग तापते-तापते सो गए।

सुबह अभी आई नहीं थी। अंधकार बाहें फैलाए पड़ा था। मंगलिया उठा और चल दिया अंधकार को चीरता ओझा के झोपड़े की ओर। उसकी इस हलचल से गांव के कुत्ते भौंकने लगे। गांव जाग गया। सब देखने लगे क्या गड़बड़ है। मंगलिया पहुंच गया था ओझा विश्वासी के खेत पर। उसने खेत की मेड़ पर खड़े हो, दोनों हाथ मुंह पर रख विश्वासी को आवाज़ लगाई। विश्वासी आवाज़ पहचान गया। झोपड़े के बाहर आया और पूछा, ‘क्या बात है मंगलिया?’

मंगलिया ने वहीं से कहा-‘ओझा भाई! बेटी बीमार है जल्दी चलो।’ मंगलिया की आवाज़ गूंज गई गांव भर में। गांव जान गया इस समाचार को। लोग उठ कर चल दिए मंगलिया के झोपड़े की ओर। सूरज अब दिखाई देने लगा था। खेत रोशनी से भर रहे थे। पगडंडी पर लोग मंगलिया के घर जाते दिखाई दिए। मंगलिया की बेटी नहीं, गांव की बेटी बीमार हो गई थी। सबको चिंता हो गई। मंगलिया के झोपड़े के आसपास गांव एकत्र हो गया था।

ओझा आया। उसने बेटी को देखा। दो माह की बेटी निस्तेज पड़ी थी। सांस धीमी चल रही थी। कोई हलचल नहीं हुई। ओझा ने मंत्र पढ़ा। कुछ चावल फेंके पर कोई हलचल नहीं हुई। ओझा लगातार कुछ बुदबुदा रहा था। आसमान को ताक रहा था, मानो पुकार रहा हो किसी को।

थोड़ी देर यह सब कर वह बोला, ‘यह तो गड़बड़ मामला है कोई हवा लगी है। किसी की बुरी नज़र लग गई है। इसमें तो बहुत खर्चा होगा?’ मंगलिया ने पूछा- ‘बहुत याने कितना?’

ओझा बोला,‘कम से कम तीन हजार।’ उपस्थित लोगों में हलचल मच गई। बेचारा मंगलिया इतना कहां से लाएगा। इतना धन होता, तो शहर नहीं ले जाता। मंगलिया मौन रहा। मौन ही उसका उत्तर था। ओझा ने हलचल सुनी। वह समझ गया कि मांग कुछ ज्यादा हो गई।

बोला, ‘मामला ऐसा ही है फिर भी मंगलिया की हालत देखकर कुछ कम खर्चा करूंगा। गांव वाले मदद करें। गांव की बेटी का सवाल है।’ मंगलिया हाथ जोड़े बोला,‘ओझा भाई, सड़क की मजदूरी कर काम चला रहा हूं। अभी खेत भी खाली है आपको मैंने कष्ट दिया। आप क्षमा करना।’ ओझा ने सुना, समझ में आया कि उससे गलती हो गई।

वह समझ रहा था कि गांव वाले मिलजुलकर कुछ करेंगे। दया का समुद्र उमड़ेगा और उसकी आज की सुबह मंगलमय हो जाएगी। उसने मंगलिया को हाथ-जोड़कर क्षमा मांगते देखा, तो पैंतरा बदला। बोला, ‘यह सच है कि तुम इतना न कर पाओगे।

ऐसा करो कि बकरी का एक मेमना ही दे दो, तो मैं ऐसा करूंगा कि यह संकट टल जाए। इससे कम में तो कुछ हो ही नहीं सकता।’ मंगलिया के पास तो मेमना भी न था। उसने फिर हाथ जोड़कर कहा-‘ओझा भाई! मेरे पास तो मेमना भी नहीं है। मैं क्या करूं?’

उसकी आवाज़ में निराशा थी। वह बुझ-सा गया था। मां हड़कू बार-बार बेटी की ओर देख रही थी। बेटी निढाल पड़ी थी। सांस धीमे-धीमे चल रही थी। कोई हलचल नहीं थी। वह ओझा की बात सुन रही थी। पति मंगलिया की बेबसी देख रही थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे, तभी उसे उसके भाई बुधरिया का स्वर सुनाई दिया, ‘ओझा भाई! मेरे पास है मेमना, मैं दे दूंगा। आप बलि की जो क्रिया करना हो, करो। ’

यह स्वर जादू भरा था। गांव वालों में हर्ष छा गया। चलो, गांव की बेटी के लिए कुछ हुआ। अब शायद बच जाए बेटी। मंगलिया के चेहरे पर संतोष झलक रहा था। वह शांत था। तभी हड़कू बोली, ‘मैं अभी तैयार नहीं हूं। ओझा भाई, आप कल आना। मैं आज सोचूंगी।’ उसने स्नेहपूर्ण नज़रों से बुधरिया को देखा। ओझा को बुरा लगा। बना-बनाया खेल बिगड़ गया। बोला, ‘ठीक है जैसी इच्छा। हड़कू को जब अपनी बेटी की चिंता नहीं तो मैं क्या करूं?’

गांव वाले सब चर्चामग्न थे। क्या हो गया? क्यों मना कर दिया हड़कू ने? पता नहीं हड़कू के मन में क्या है। कल क्या होगा? क्या हड़कू तैयार होगी या मना कर देगी। पुरुषों का मत था कि हड़कू ने गलती कर दी। अपनी बेटी की जान बचाने के लिए एक क्या, ऐसी कई बलि दी जा सकती हैं। गांव की महिलाएं चुप थीं। वे समझ रही थीं हड़कू की पीड़ा। पर चुप थीं। कल पता चल ही जाएगा। अगले दिन सुबह ओझा स्नान ध्यान कर तिलक लगाए तैयारी से उपस्थित हुआ। बुधरिया मेमने को गोद में उठाए ले आया। ओझा ने कंकू -चावल मेमने पर मंत्र पढ़कर डाले और बोला, ‘मंगलिया और हड़कू अपने दोनों हाथ मेमने पर रखकर बोलो,  मेमना हमने बेटी की जान के खातिर ओझा को भेंट दिया।’

हड़कू बोली, ‘ओझा भाई! ऐसा नहीं होगा। जैसी मेरी बेटी, वैसी ही बकरी के लिए यह मेमना है। मैं मां हूं,  मैं जानती हूं संतान की मृत्यु का दुख क्या होता है। इस मेमने की बलि से बकरी को जो हृदय विदारक पीड़ा होगी, वह मैं जानती हूं। मैं अपनी बेटी के लिए मेमने की जान नहीं जाने दूंगी। मेरी बेटी जाए या रहे- यह भगवान की इच्छा है। मैं मेमने की बलि नहीं होने दूंगी। आप सब मुझे क्षमा करें।

सब सुनकर स्तब्ध रह गए। एक मां की वाणी में संतान का दर्द समाया हुआ था। हड़कू आंख बंद कर प्रार्थना में रत थी। मेमना उछल-कूदकर आनंद मना रहा था।

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